चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया
जागा रहा तो मैं ने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया
सूखा पुराना ज़ख़्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया
आतीं न तुम तो क्यूँ मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारो मेरी राह में आने का शुक्रिया
आँसू सा माँ की गोद में आ कर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझ को गिराने का शुक्रिया
अब ये हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझ को घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया
ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
ये बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया
अब मुझ को आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझ 'कुँवर' से रूठ के जाने का शुक्रिया