जब मेरे घर के पास कहीं भी नगर न था
तो इस तरह का राह में लुटने का डर न था
जंगल में जंगलों की तरह का सफ़र न था
सूरत में आदमी की कोई जानवर न था
आँसू सा गिर के आँख से मैं सोचता रहा
इतना तो अपने-आप से मैं बे-ख़बर न था
इक बार ख़ुद को ग़ौर से देखा तो ये मिला
मैं सिर्फ़ एक धड़ था मिरे धड़ पे सर न था
होंटों पे आई और 'कुँवर' काँपती रही
इक बात जिस का दिल पे कोई भी असर न था