जिस रात पूर्णिमा में नहा लेगी चांदनी
पानी को सागरों से उछालेगी चांदनी।
उन्मुक्त कुन्तलों की नशीली सी छाँव में
सो भी गया तो मुझको जगा लेगी चांदनी।
सोचा न था कि मैक़दे से खींचकर मुझे
मंदिर की सीढ़ियों पे बिठा लेगी चांदनी।
किसको पता था देह की दीवार फांदकर
मुझसे ही कभी मुझको चुरा लेगी चांदनी।
दामन पे मेरे लाख अंधेरों के दाग़ हों
मुझको यक़ीन है कि निभा लेगी चांदनी।
ये भी यक़ीन है कि अंधेरों की भंवर से
सूरज न बचाये तो बचा लेगी चांदनी।