“ दोहा ”
आर पार की खेल ते, शेष रही जो खेल
लुक्का छिप्पी हो गयी, मन में पाके मैल॥
सौ सुनार की ठुकठुकी, इक लुहार का छैल
आभा आभूषण घटे, फलित नहीं यह गैल॥
देख नमूना आँख से, आर पार का सार,
तहस नहस किसका हुआ, चाल हुई बेकार।।
बदले में जलते रहे, तेरे भी घर बार
मंशा न नापाक करो, कायर कपटी यार।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी