समान्त - आना , पदान्त – हो गया | मात्रा भार- 26
" गीतिका "
अंगुलियों में काजल आँख लगाना हो गया
दर्पण के सामने से गुजरे जमाना हो गया
सजती सँवरती रही बिंदिया चमकती माथे
शौक शृंगार का वो आईना पुराना हो गया॥
अब तो शरयाम रगड़ते लोग अपना चेहरा
लगी दाग दिल दिलग्गी का बहाना हो गया॥
आकर्षण अलंकार आभूषण हर मौसम में
चमक गया हार जबसे गले लगाना हो गया॥
अरमान की हंसी सुर्ख होठों को रंगने लगी
पलकों में जबसे चितवन का चुराना हो गया॥
दूइज़ की चंदा सी चलती है जिंदगी अपनी
बेखिड़की बैठक में जबसे ठिकाना हो गया॥
विरासत है गौतम सहूर घूँघट घर अंगना
अदाओं को अदब से दिल में बसाना हो गया॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी