दुर्मिल सवैया (वर्णिक ) शिल्प - आठ सगण, सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा, ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२
“दुर्मिलसवैया”
हिलती डुलती चलती नवका, ठहरे विच में डरि जा जियरा।
भरि के असवार खुले रसरी, पतवार रखे जल का भँवरा ।
अरमान लिए सिमटी गठरी, जब शोर मचा हंवुका उभरा।
ततकाल घुमाय दियो परदा, परचा लहराय दियो चतुरा
मन झूम गए पुनि नाव चली, चित व्याकुल हो हरषाय गयो।
हर हाथ मिले तकि पास सखी, नयना झरना बरसाय गयो।
जब ओट लगी फिर नाव हिली, रुक पाँव बढ़े किनराय गयो।
जग जीवन जान महान मिला, पर जोखम जन बिसराय गयो
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी