काफिया- आ स्वर रदीफ़-नहीं यूँ ही वज्न- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
“गज़ल”
बहाने मत बनाओ जी धुआँ उठता नहीं यूँ ही
लगाकर आग बैठे घर जला करता नहीं यूँ ही
यहाँ तक आ रहीं लपटें धधकता है वहाँ कोना
तनिक जाकर शहर देखों किला जलता नहीं यूँ ही॥
सुना है जल गई कितनी इमारत बंद कमरों की
खिड़कियाँ रोज खुलती थी तवा तपता नहीं यूँ ही॥
खुला था सर्द दरवाजा अनाथों के लिए जिस दर
उसीने दर्द छलकाया गुन्हा खपता नहीं यूँ ही॥
मिली हैं बच्चियाँ कितनी जो जीने के लिए आई
बिचारी पत्तियों का क्या तना जलता नहीं यूँ ही॥
रहम आती नहीं तुमको अभी भी गूँजती चींखे
शरम से सर झुका जाता बता सकता नहीं यूँ ही॥
निशाना और था गौतम गिरि नीयत जुवारी की
हुआ हैवान पालक बन इंसा मरता नहीं यूँ ही॥
महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी