काफ़िया- आ स्वर, रदीफ़- रह गया शायद
“गज़ल”
जुर्म को नजरों से
छुपाता रह गया शायद
व्यर्थ का आईना
दिखाता रह गया शायद
सहलाते रह गया काले
तिल को अपने
नगीना है सबको
बताता रह गया शायद॥
धीरे-धीरे घिरती गई
छाया पसरी उसकी
दर्द बदन सिर
खुजाता रह गया शायद॥
छोटी सी दाग जब
नासूर बन गई माना
मर्ज गैर मलहम लगाता रह गया शायद॥
लोग कहते हैं जमाने
की नजर गुमराह है
था मर्म बेपरवाह
जिलाता रह गया शायद॥
झूठ के शृंगार को
सतरूप कहाँ देखता
रौनक हवा सी उड़ी
देखता रह गया शायद॥
गौतम तेरे विश्वास
को विश्वास ने चाहा बहुत
टूटने की चीज को तू
जोड़ता रह गया शायद॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी