मापनी- 2122 2122 2122 222
“ गीतिका ”
वक्त के दहलीज पर चलते हुए गिरते भी हम
एक जैसी यह डगर रुकते हुए उठते भी हम
हर घरों का दर सुहाना खान-ख़ुरमा सुलभ सभर
बोल भाषा चंहकती सुनते हुए गुनते भी हम॥
गर न उठता मरहला सम्मान क्या अपमान क्या
हम खड़े किरदार बन तकते हुए कहते भी हम॥
यह धरा है शुभ सखे सुर संस्कृति अरमान पर
ताल मन को मोहती लिखते हुए पढ़ते भी हम॥
जर जमीं जोरू जगह शाश्वत सुलह पर शोभती
चढ़ चले उन्माद पर मरते हुए मिटते भी हम॥
नाहक उलझ जा रहे हम खुद ही अपने आप से
बोझ गैरा तो नहीं ढ़लते हुए लदते भी हम॥
कब उठी है पालकी होकर अलग परिवार से
सज चली है जब कभी खिचते हुए जुतते भी हम॥
छद्म कब होता भला कोई बहर मिशाल हो झूठ
कब झोली भरे ठगते हुए नटते भी हम॥
गैर से गौतम गिला मत देख ले गैरत है क्या
आदमी को आदमी डँसते हुए बचते भी हम॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी