मापनी 2222 2222 2222 212
“ गीतिका ”
मत सोचो क्या कहती दुनियाँ, अपने अपने गाँव से
पाप पहर अब किसको दिखता,समय चले निज पाँव से
नोट नया है ओट पुराना, आँगन अपना दरवज्जा
तिल काला काली दाढ़ी में, काला कौवा कांव से॥
आज उठी है कैसी आंधी, शहर शहर उड़ते विस्तर
बेसुध नींद उड़ी आँखों से, खलल खड़ी है छांव से॥
लोग खड़े है अपना अपना, लेकर सपना हाथ में
भीड़ खड़ी है दौलत लेकर, भर भर झोली ठाँव से॥
आका सारे असमंजस में, गोदामों में खलबली
जतन करूँ कैसे रे तुझको, चाल चलूँ किस दाँव से॥
रंग गुलाबी वापस पाएँ, मिल्क्त जो अब शाम है
रौनक अपने घर आ जाए, बिन पानी की नाव से॥
गौतम तनिक अभाव सह, मंशा अधिक अमीर है
नाहक क्यूँ तकरार तर्क, पहल हुई है भाव से॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी