“गीतिका”
रात की यह कालिमा प्रहरी नहीं
दिन उजाले में डगर ठहरी नहीं
आज वो भी छुप गए सुबहा हुई
जो जगाते समय को पहरी नहीं॥
रोशनी है ले उड़ी इस रात को
तब जगाती पकड़ दोपहरी नहीं॥
चाहतें उठ कर बुलाती शाम को
गीत स्वर को समझना तहरी नहीं॥
ताल जाती बहक बस इक भूल पर
ज़ोर ठुमका कदम कद महरी नहीं॥
लोग कहते कहन अब हर बात पर
आप की लत रटन सुर लहरी नहीं॥
वक्त गौतम बहकना तू मत कहीं
है सजाया भवन जड़ गहरी नहीं॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी