दिन पंख बनकर हवा की तरह उड़ रहे थे दोनों के दिल फेवीकॉल की तरह जुड़ रहे थे
इश्क की सरगोशियां सुमधुर बहारें बन गईं
आंखों में आशाओं के बादल घुमड़ रहे थे
संपत का एक ही सिद्धांत था कि हर काम को डूबकर करो । अपना कर्तव्य हो या प्यार , पूरी शिद्दत के साथ करना चाहिए । जिसने अपने काम और प्यार से वफा नहीं की वह ना तो देश का है और ना ही परिवार का । संपत देश और गायत्री दोनों के प्रति पूरा वफादार था । काम की जगह काम और बाकी समय में प्यार ।
गायत्री के पास एक ही काम था "संपत को क्या पसंद है ? उसे किस चीज में खुशी मिलती है" ? वह बस संपत के बारे में ही सोचती थी । संपत को हर खुशी देना जैसे उसका मकसद बन गया था । कब सुबह हुई कब शाम हुई संपत की बातों में उम्र तमाम हुई । प्रेम दीवानी बनी गायत्री घर में मोरनी सी घूमती फिरती थी । अपने "मोर" की थिरकन देखने के लिए वह क्या कुछ नहीं कर सकती थी ? पत्नी अपने पति के सुख के लिए सब कुछ त्याग देती है नींद, आलस, सुख, चैन सब । बदले में बस वह इतना ही तो चाहती है कि उसका पति उसे जी भरकर प्यार करे और उसकी भावनाओं का आदर करे । इसके अलावा और कुछ नहीं चाहिए एक पत्नी को । संपत गायत्री से न केवल प्यार करता है अपितु वह तो उसकी पूजा करता है । और संपत जैसा प्रेमी हर किसी को कहां नसीब होता है ? ठीक उसी तरह जैसे गायत्री जैसी पत्नी किसी सौभाग्यशाली को ही मिलती है ।
दो दलित बहनों के साथ हुआ दुष्कर्म और बाद में उनकी हत्या का मामला तूल पकड़ता जा रहा था । जातिवादी नेता इस मुद्दे पर अपनी रोटियां सेंक रहे थे और अपनी राजनीति चमका रहे थे । तो संप्रदाय विशेष के लोग अपराधियों को बचाने का हर संभव प्रयास कर रहे थे । संपत निष्पक्ष भाव से मामले की तहकीकात कर रहा था । उसने अब तक छ : आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया था । अखबारों में यह प्रकरण सुर्खियां बटोर रहा था इसलिए सरकार भी इस प्रकरण में विशेष ध्यान दे रही थी ।
संपत जैसे ही थाने में पहुंचा , उसे इंचार्ज साहब ने बुलवा लिया । उस प्रकरण की विस्तृत जानकारी लेने के बाद उन्होंने एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने को कहा और यह भी कहा कि पुलिस अधीक्षक महोदय भी आने वाले हैं इस सिलसिले में । पूरी तरह से मुस्तैद रहने के लिए उसे सचेत कर दिया था इंचार्ज साहब ने । इंचार्ज साहब बोले "संपत एस पी साहब के खाने की क्या व्यवस्था करें" ?
"जैसा आप आदेश करें वैसा कर देंगे" ।
"वो होटल का खाना तो खाते नहीं हैं इसलिए बनाना तो घर में पड़ेगा । हमारी मैडम अभी मायके गईं हुईं हैं । अगर उचित समझो तो तुम्हारे घर बनवा लें" ?
"अरे सर , क्या बात है ? नेकी और पूछ पूछ" ?
"तो फिर ये ठीक रहेगा । वो शाम को पांच बजे आयेंगे । थोड़ी देर काम के बारे में बात करेंगे । फिर पीने पिलाने का दौर चलेगा । उसके बाद छक कर खायेंगे । क्यों ठीक है ना" ?
"सर , वो तो ठीक है पर खाने में बनाना क्या है" ?
"मैंने सुना है कि तुम्हारी श्रीमती जी बहुत अच्छा खाना बनाती हैं । वो जो भी बना देंगी वह बढिया ही होगा"
"खीर पूरी वगैरह बनवा लूं क्या सर" ?
"बनवा लो । बस मिर्च मसाला थोड़ा कम ही रखवाना । ये आला अधिकारी लोग मिर्च मसाला कम ही पसंद करते हैं"
"जी सर"
"तो जाओ और तैयारी करो"
"जी सर" और संपत घर आ गया । उसने गायत्री को सब बातें बताई और शाम को एस पी साहब का खाना बनाने को भी कहा । गायत्री को इस तरह एस पी साहब का अपने मातहत के घर में खाना खाना अच्छा नहीं लगा । स्त्रियां खतरे को जल्दी भांप लेती हैं । गायत्री को भी इसमें कुछ भेद नजर आ रहा था । उसने शंका करते हुए कहा "साहब का खाना तो किसी बढिया से होटल या रेस्टोरेंट से भी मंगवाया जा सकता था मगर ऐसा नहीं कर हमारे घर खाना खाया जा रहा है । इसके पीछे क्या कारण हो सकता है ? पर इस बारे में दोनों का दिमाग काम नहीं कर रहा था ।
संपत ने दो पुलिस वाले छोड़ दिये थे घर पर गायत्री की मदद करने के लिये और वह एस पी साहब के दौरे के लिए तैयारियों में जुट गया । एस पी साहब का जब भी दौरा होता है तो पूरा थाना चकरघिन्नी की तरह घूमता रहता है । इंचार्ज को तो "दस्त" लग जाते हैं । साहब का दौरा सकुशल निबट जाये, इसके लिये बड़ी मन्नतें मनाई जाती हैं । यह दौरा तो ऐसे समय में हो रहा था जब दो दलित नाबालिग लड़कियों के साथ दुराचार किया जाकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया था और इस घटना को आत्महत्या बताने का प्रयास किया गया था । "रावण आर्मी", "दलित सेना","भीम मंच" जैसे कई संगठन इस पर आंदोलन भी कर रहे थे । लेकिन संपत निष्फिक्र होकर अपना काम कर रहा था । जब कोई अधिकारी या कर्मचारी अपना काम पूरी ईमानदारी , निष्पक्षता और मुस्तैदी से करता है तो फिर उसे किसी से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
शाम के छ: बजे एस पी साहब पधारे । पूरे एक घंटा देर से आये थे । उनसे पूछने की हिम्मत कौन करे कि एक घंटा देर कैसे हो गई ? सवाल करने का अधिकार केवल बड़े आदमी या अधिकारी को होता है । नीचे वालों का कर्तव्य है कि वह हर सवाल का जवाब दे । बस, यही एकमात्र नियम है ।
साहब के लिये नाश्ते में काजू, बादाम, पिस्ता और अखरोट, अंजीर वगैरह सब मंगवाये गये थे । कई प्रकार की मिठाइयां और नमकीन भी मंगवाई गईं थी । उन पर एक उचटती सी निगाह डालकर एस पी साहब ने वह दलित लड़कियों वाली फाइल मंगवा ली । करीब आधा घंटा तक उस फाइल को वे गौर से देखते रहे और फिर संपत से पूछने लगे
"वो सातवां आरोपी अभी तक गिरफ्तार क्यों नहीं हुआ है" ?
"सर, उसका पता अभी कल ही चला है जब छठे आरोपी को गिरफ्तार किया था और उससे कड़ी पूछताछ की गई थी । उसने ही उसका नाम लिया था और वह कल से ही फरार है सर" ।
"तुमने उसकी गिरफ्तारी के लिए क्या किया है अब तक" ?
"सर, कल दो बार उसके और उसके रिश्तेदारों के घर पर दबिश दी थी मगर वह वहां नहीं मिला । उस पर दवाब बनाने के लिए हमने उसके बड़े भाई को उठा लिया है सर"
"बड़े भाई को क्यों, क्या वह भी आरोपित है" ?
"अभी तक तो उसका नाम नहीं आया है सर । मगर आरोपितों को पकड़ने के लिए तो पुलिस उसके घरवालों को अब तक उठाती ही आई है जिससे घबरा कर आरोपित खुद आत्म समर्पण कर दे । मैंने इंचार्ज साहब से पूछकर ही उसे उठाया था । क्यों, सही है ना सर" ? संपत ने इंचार्ज की ओर देखकर कहा ।
एस पी साहब का मूड देखकर इंचार्ज घबरा गया । सातवां आरोपी एस पी साहब के ही समुदाय का था । हो सकता है उनका कोई रिश्तेदार हो ? यह सोचकर इंचार्ज डर गया और उसने संपत को मंझधार में छोड़ दिया "मेरे से कब पूछा आपने" ? संपत की ओर देखकर क्रोध से कहा था इंचार्ज ने
"सर, आपको सब कुछ तो बताया था और आपने ही कहा था कि उसे थाने ले आओ । उसके बाद ही मैं उसे थाने लेकर आया था" संपत भी अब लड़ने के मूड में आ गया था । खरा आदमी किसी से नहीं डरता है ।
"ये क्या बदतमीजी है ? अपने सीनियर से ऐसे बात करते हैं क्या" ?
"सॉरी सर, मगर मैंने इंचार्ज साहब के कहने पर ही उसे उठाया था"
"तो इंचार्ज साहब झूठ बोल रहे हैं क्या" ?
अब संपत फंस गया । वह यह कैसे कह सकता है कि इंचार्ज साहब वाकई झूठ बोल रहे हैं । उसने इतना ही कहा "सर, मैं एकदम सच कह रहा हूं" ।
"ठीक है ठीक है , ये बच्चों की तरह लड़ना बंद करो पहले । उस निरपराध आदमी को तुरंत छोड़ो और उस सातवें आरोपी को पकड़ने के लिए अभी रवाना हो जाओ । गिरफ्तार करके ही आना थाने पर, पहले नहीं" ।
संपत ने कहना चाहा "सर, आपका भोजन मेरे घर पर ही रखा है । उसके हो जाने के बाद चला जाऊंगा"
"नहीं, अभी की अभी रवाना हो जाओ । और एस एच ओ साहब, आप उसके भाई को तुरंत रिहा करिए" । एस पी साहब ने कठोरता से आदेश दिया ।
संपत को एस पी साहब का आदेश बड़ा अजीब लग रहा था । उसने ऐसा कौन सा गलत काम कर दिया था जो पुलिस अब तक नहीं करती आई थी । मगर उनका आदेश तो मानना ही पड़ेगा । वह घर गया और गायत्री से यह सब वाकया कह सुनाया और उसे सचेत रहने के लिए भी कह दिया ।
रात्रि के आठ बज गये थे । इंचार्ज एस पी साहब को संपत के घर ले गया खाना खिलाने । गायत्री ने खीर, गाजर का हलवा, पूरी, बेढई, छोले और गोभी की सब्जी बनाई थी । पूरे घर में खाने की महक भरी हुई थी । वह महक ऐसी थी कि उस महक से ही भूख लगने लग जाये और भूखे की भूख और भी बढ जाये । एस पी और इंचार्ज की आत्मा प्रसन्न हो गई थी उस सुगंध से ।
दोनों पुलिस वालों ने खाना लगा दिया । बीच में एक बार गायत्री को भी आना पड़ा था "मनुहार" करने के लिये । उसके झीने से घूंघट में उसका अप्रतिम सौन्दर्य झांक रहा था । एस पी साहब उस बेपनाह हुस्न को देखते ही रह गये । अब तक तो उन्होंने गायत्री की खूबसूरती के बारे में केवल सुना ही सुना था मगर आज साक्षात दर्शन करने के बाद उन्हें लगा कि उन्होंने यहां आने में देर कर दी थी । मगर अब और देर सहन नहीं हो रही थी उन्हें ।
उन्होंने दोनों पुलिस वालों को अपने पास बुलाया और कहा "जाओ, थाने में जाओ । अब तुम्हारा यहां क्या काम" ?
इंचार्ज से कहा "अरे, पान वगैरह की कोई व्यवस्था है कि नहीं" ? इंचार्ज एस पी साहब का आशय समझ गया था और तुरंत खड़े होते हुए बोला "अभी लाता हूं सर" ।
अब घर में गायत्री अकेली रह गई थी । उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा । पर गायत्री एक पतिव्रता स्त्री थी और पतिव्रता स्त्री में नैतिक शक्ति अपार होती है । उसने मन ही मन "दुर्गा मैया" को प्रणाम किया और फिर वह किसी भी परिस्थिति से निबटने को तैयार हो गई । उसने अपने हाथ में एक बेलन उठा लिया था ।
जैसे कि गायत्री को उम्मीद थी , एस पी साहब रसोई में ही आ गये और उन्होंने गायत्री को पकड़ने की कोशिश की । गायत्री ने तड़ाक से एक बेलन एस पी साहब के सिर पर दे मारा । बेलन के दो टुकड़े हो गये । एक जोरदार चीख के साथ एस पी साहब सिर पकड़ कर वहीं बैठ गये और गायत्री दौड़कर घर से बाहर आ गई ।
बाहर संपत छुपकर अपने घर पर निगाह रख रहा था । उसे दाल में काला नजर आ गया था इसलिए वह जाने का दिखावा करके घर से निकल गया था । मगर एक गली में छुपकर अपने घर पर निगाह रख रहा था वह । गायत्री को घर से भागते हुए बाहर निकलते देखकर उसे खतरा महसूस हुआ और वह लपक कर गायत्री के सामने आ गया । उसे सामने देखकर गायत्री उससे लिपट गई और फूट फूटकर रोने लगी । संपत ने उसके आंसू पोंछे और उसे लेकर घर के अंदर आ गया । अब संपत ने कपड़े धोने का डंडा गायत्री को पकड़ा दिया और कहा "मार साले को । आज तू चंडी है और यह एक राक्षस । इसे ऐसा सबक सिखा कि भविष्य में यह नीच फिर किसी औरत की तरफ बुरी निगाह डालने से भी घबराये" ।
गायत्री तो अपने पति की आज्ञाकारी पत्नी थी । बस बरस पड़ी । पर अबकी बार उसने सावधानी बरती और केवल पीठ पर ही वार किया । दो इंच सुजा दी उसकी पीठ । इतना सब करने के पश्चात दोनों ने मिलकर एस पी को उठाया और ड्राइंगरूम में एक कुर्सी पर बैठा दिया । संपत घर के अंदर ही छुप गया ।
करीब दो घंटे बाद इंचार्ज पान लेकर आया और एस पी को पान देकर बोला "सॉरी सर, पान की दुकान खुलवानी पड़ी थी, इसलिए देर हो गई "
"नहीं, रहने दो । अब पान खाने की इच्छा नहीं है । खाना इतना स्वादिष्ट था कि स्वाद स्वाद में बहुत ज्यादा खा गया । अब उठने का भी दम नहीं है । थोड़ा सहारा देकर गाड़ी तक पहुंचा दो" बड़ी मुश्किल से एस पी बोला ।
इंचार्ज को आश्चर्य हो रहा था एस पी की हालत देखकर । वह तो समझा था कि साहब तो "मौज मस्ती" करके बड़े खुश हो रहे होंगे । मगर यहां तो मंजर ही कुछ अलग नजर आ रहा था । वह सहारा देकर एस पी को गाड़ी तक ले गया और उसमें बैठा दिया । एस पी साहब का दौरा पूरा हो गया था
श्री हरि
17.9.22