डायरी दिनांक १८/०४/२०२२
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एक पुराना नियम है - आत्मनः प्रतिकूलानि, परेशां न समाचरेत।
जो बातें खुद के लिये उपयुक्त न हों, उन्हें दूसरों पर भी लागू नहीं करना चाहिये। हमेशा मानना चाहिये कि जिन बातों से खुद को तकलीफ होती है, वे बातें दूसरों को भी तकलीफ देती होंगीं।
पर वास्तव में ऐसा बहुत कम होता है। लोगों को खुद की तकलीफ तो दिखाई देती है। पर दूसरों की तकलीफ समझ नहीं आती।
जाके पैर न फटे बिबाई। सो का जाने पीर पराई।।
यह सिद्धांत भी आज कुछ बेअसर हो रहा है। ठीक है कि जब तक पैरों में बिबाई नहीं पड़ीं तब तक दूसरों की बिबाई का कष्ट ज्ञात न था। पर जब खुद उस कष्ट का अनुभव कर लिया तब तो दूसरों के कष्ट का अनुभव होना चाहिये। यथार्थ में आज ऐसी स्थिति भी दुर्लभ हो रही है।
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी लिखते हैं कि केवल गेंहुआ वस्त्र धारण कर लेना तथा किसी संप्रदाय का चिन्ह अपना लेना ही संत बनना नहीं है। संत वास्तव में जीवन जीने का तरीका होता है। श्री राम चरित मानस और श्रीमद्भगवद्गीता ये दो ग्रंथ किसी भी साधारण मनुष्य को भी संत बनाने का अचूक साधन हैं। इनकी बातों को जो जीवन में उतार लेता है, वह संत बन जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का एक भाग है तथा संस्कृत भाषा में लिखी हुई है। पर श्री रामचरित मानस हिंदी भाषा, और उसमें भी बोलचाल की भाषा में लिखा ग्रंथ है। इसका जितना संभव हो, अधिक से अधिक पाठ किसी भी व्यक्ति के मन को उत्थान की दिशा में ले जाता है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।