आज हमारी बिल्डिंग के सामने वाली बिल्डिंग में रहने वाले खरे साहब की लड़की का रिसेप्शन है। खरे साहब और उनकी श्रीमती जी दोनों नौकरी करते हैं। उनके दो बच्चे हैं। एक लड़का है एक लड़की। लड़का वकालत करता है और लड़की चेन्नई में किसी बड़ी कंपनी में नौकरी करती है। कल होटल पलाश में उसकी शादी संपन्न हुई है और आज उनके घर के पास ही एक भवन में उसका रिसेप्शन रखा गया है। हमारी बिल्डिंग में उन्होंने केवल हमें ही रिसेप्शन में बुलाया है। इसका कारण केवल यह है कि रात को जब हर दिन हम पति-पत्नी खाना खाकर टहलने निकलते हैं तो वे दोनों और उनका बेटा भी हमारे साथ-साथ घूमता है। घूमते-घामते कुछ घर तो कुछ इधर-उधर की बातें हो जाती हैं। अभी कुछ दिन पहले उनकी बेटी चेन्नई से लौटी तो हमारे पूछने पर उन्होंने बताया कि १८ तारीख को उनकी बेटी की शादी है। उसके ससुराल वाले दिल्ली में रहते हैं। लड़का इंजीनियर है और वह खजुराहों में सर्विस करता है। जब हमने उनसे पूछा कि फिर तो लड़की को नौकरी छोड़नी पड़ेगी तो वे बोले नहीं वे एडजस्ट कर लेंगे। मैंने सोचा हाँ आजकल का जमाना ही ऐसा है, क्या करे?
शादी की तैयारी के बारे में पूछने पर वे बोले कि शादी होटल से हैं और बाराती सब वहीँ ठहरेंगे और वहीं शादी के फेरे भी लग जाएंगे, तैयारी क्या करना, सब तैयार ही समझो। मैं सोचने लगी हाँ, पैसा है तो फिर शादी के तैयारी में महीनों सर खपा कर क्या करना, झट से होटल बुक कराओ और पट से वहीँ फेरे लगवा कर वहीँ से विदा कर दो। घर आकर दो घूँट पानी पिलाने का कष्ट भी किसी को नहीं उठाना पड़ेगा।
खैर शादी तो हो गई है, लेकिन घराती-बाराती अभी वहीँ होटल में ही हैं, शायद १ बजे से ६ बजे तक रिसेप्शन का समय जो उन्होंने कार्ड पर दिया है, उसी के अनुसार आएंगे सभी। तो अब हम भी वहीँ दावत उड़ाएंगे। दूर तो जाना नहीं है १०० कदम पैंया-पैंया भर चलना है इसलिए सोच रहीं हूँ क्या सजना-संवारना, लेकिन फिर सोच रही हूँ अरे मेरा भी तो ससुराल दिल्ली है, इसलिए थोड़ा-बहुत मेकअप-शेकप कर कुछ अच्छा पहन ही लूँ।
मैं सोचती हूँ जब घर से दूर शादी की पार्टी में जाना होता है तो मन को भी अच्छा लगता है। और लगेगा क्यों नहीं, रोज-रोज थोड़े ही होती हैं ऐसी पार्टियां और सोचो तो जब रास्ते में भी चलते-चलते कोई अपने लोग, रिश्तेदार, दूर-बाहर के परिचित टकरा जाते हैं, तो फिर उनसे इसी बहाने जो दो चार बातें हो जाती हैं, क्या वह किसी सुकून से कम है? लेकिन आज तो ऐसा कुछ होने से रहा, इसलिए चिंतित हूँ। बहुत समय से सोचती रही कि आखिर उन्होंने क्यों अपने घर के पास एक ऐसे भवन में रिसेप्शन रखा, जहाँ वे रिसेप्शन रखना तो दूर वहाँ झाँकना भी गँवारा नहीं समझते थे। उनकी हमेशा कुछ न कुछ शिकायत रहती ही थी। अगर उन्हें जब कभी उसमें शादी-ब्याह, जन्मदिन, शादी की वर्षगांठ, सगाई प्रोग्राम या फिर किसी समाज विशेष का कार्यक्रम होता दिखता तो उन्हें एक अजीब तरह की चिढ़ सी मच मचने लगती और वे जाने क्या-क्या नहीं कह जाते। उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी इस बात की होती कि जब बड़े-बड़े स्वर्णाक्षरों में इस भवन पर 'शासकीय महर्षि वाल्मीकि छात्रावास भवन' और उसके नीचे आदिम जाति अनुसूचित जाति विभाग लिखा है, तो यह तो एक शासकीय छात्रावास है, फिर यहाँ व्यक्तिगत कार्यक्रम संपन्न कराने की परमिशन क्यों दी जाती है और फिर यह एकदम सड़क के किनारे भी हैं, जहाँ कार्यक्रम में शामिल लोग-बाग़ अपनी-अपनी गाड़ियाँ सड़क पर लगा देते हैं, जिससे सड़क मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। और एक बड़ी बात यह भी है कि इन पार्टियों से जो दुनियाभर कचरा निकलता है, वह वहीँ बाहर कई दिन तक सड़ता-गलता है, जिसके कारण सड़क आने-जाने और आस-पास के रहने वालों को जो पार्टियों की गंध सूँघनी पड़ती है, उसे कौन समझेगा, देखेगा। उनकी इन बातों को मैंने न कभी सिरे से ख़ारिज किया और नहीं कर सकती हूँ। लेकिन बहुत सी सामाजिक बिडम्बनाएं हैं जहाँ हम सभी चुप्पी साध लेने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
खैर जब बात अपनी हो तो फिर जिसकी हम लाख बुराई करते हों, उसे भी सारे शिकवे-गिलवे भुलाकर गले लगाना पड़ता है, उसे अच्छा मानना ही पड़ता है।
अब हम चले दावत उड़ाने,पेट में चूहे कूद रहे हैं ...
और कल तक आप ये गीत गुनगुनाते रहिए -
तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई
शिकवा तो नहीं, शिकवा नहीं