आज रात मुझे एक जगह लड़की के विवाह समारोह तो दूसरी जगह बिटिया के जन्मोत्सव में सम्मिलित होने जाना है, इसलिए सोचा इससे पहले आज कुछ लिखती चलूँ। कल शब्द.इन की पेड पुस्तक प्रतियोगिता के लिए "प्यार का खत लिखने में वक्त तो लगता है" की तर्ज पर पहली कहानी की माथा-पची में यूँ ही वक्त गुजर गया। लेकिन आज भले ही थोड़ा समय मिला है, लेकिन थोड़ा-बहुत जरूर लिखकर ही बारात और जन्मदिन जाऊँगी, सोच लिया है। हां, तो आज की ख़ास बात ये है कि जिन परिचित की लड़की की शादी है, उसके पिता और भाई आज सुबह-सुबह हमारे घर आ धमके और उन्होंने बताया कि लड़के के कहने पर शादी का स्थान बदल दिया है, हम यह बताने और वेदी के लिए केले का पेड़, हल्दी के साथ मिलाने वाली दूसरी जड़ी-बूटियां (जिरल्लू, ब्वाजु) और पूजा के लिए कुणज के पत्ती भी लेने आये हैं। मैंने जब उन्हें बगिया से लाकर वे चीजें दीं और बगिये में उगाये हमारे गांव के बहुत से पेड़-पौधों को दिखाया तो वे आश्चर्यचकित होकर कहने लगे कि आप तो गॉंव को ही शहर में ले आये हैं, क्या हमें भी कुछ पेड़-पौधे मिलेंगे, तो मैंने ख़ुशी से उनके अनुरोध पर भेंटस्वरूप कुछ पौधे जो मैंने पहले से ही ब्रेड, सर्फ़ एक्सेल की पन्नियों, मिनरल वाटर की बोतलों में लगा रखी थी, उन्हें दान किये तो मुझे एक अलग तरह की आत्मसंतुष्टि मिली। इस तरह जब कभी शहर में बसा कोई अपने गांव-गली का आकर मुझसे मेरी छोटी सी बगिया की यादें अपने साथ लेकर जाता है, तो मैं अपने आप को अपनी जड़ों के करीब और प्रकृति के बहुत करीब महसूस करती हूँ।
मैं हर दिन अपनी इस छोटी सी बगिया में ईश्वरीय सृष्टि की अलौकिक, असीम एवं विलक्षण कला समूह का दर्शन कर उसके पल-पल परिवर्तित रूप सौंदर्य को कविवर श्रीधर पाठक की तरह करीब से अनुभव करती हूँ-
प्रकृति यहाँ एकांत बैठी निज रूप सँवारति
पल-पल पलटती भेष, छनिक छबि छिनछिन धारति।
विहरति विविध विलासमयी, जीवन में मद सनी,
ललकती, किलकती, पुलकति, निरखति थिरकति बनी ठनि।। .
फ़िलहाल इतना ही शेष फिर .....