हमारे ऑफिस में पदस्थ एक महिला अधीक्षक कई वर्ष पूर्व सेवानिवृत्त हुई हैं। उनके पति उनसे पहले सेवानिवृत हो गए थे। वे एक सरकारी स्कूल में प्राइमरी के अध्यापक थे। वे दोनों हमारे घर से कुछ ही दूरी पर रहते हैं। मैं अपने पति के साथ कभी-कभार, देर-सबेर घुमते-घामते उनके हाल-चाल जानने उनके घर हो आती हूँ। उनके एक बेटी और एक बेटा है। बेटी तो शादी करके अमरीका बस गयी है और बेटा पुणे में जॉब करते है। दोनों बूढ़े एक दूसरे के सहारे जैसे-तैसे जिंदगी गुजार रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले उनका फ़ोन आया तो उन्होंने सरकारी डायरी और कैलेंडर की मांग कि तो मैंने बताया कि इस वर्ष कोरोना के कारण सरकार ने कैलेंडर नहीं छापे हैं, लेकिन मैं टेबल कैलेंडर लेती आऊंगी। वे अपनी सेवानिवृति के बाद से ही हर वर्ष मुझे सरकारी डायरी और कैलेंडर के लिए जरूर फ़ोन करती हैं। कल जब मुझे मेरे परिचित ने उनके साख समिति के दो कैलेंडर दिए जो शासकीय कैलेंडर की तरह थे, दिए तो मैं आज सुबह-सुबह उन्हें देने के लिए निकल पड़ी और साथ में मैंने उनके लिए हमारे द्वारा नेटल लीफ और तुलसी को सुखाकर ग्रीन टी बनायीं जाती है, वह भी लेती गई। हम जब उनके घर पहुंचे तो महिला ने दरवाजा खोला, हमें देखकर वे खुश हुए। उनके पति सो रहे थे लेकिन जैसे ही उनको हमारी आवाज सुनाई दी वे धीरे-धीरे छड़ी के सहारे हम तक पहुंचे। जब हमने उनका हाल पूछा कि आजकल आप लोग सुबह-सुबह घुमते नहीं मिलते हैं तो वे बोले क्या करें बुढ़ापा है, अब तो घूमना तो दूर की बात है घर से दो कदम सीढ़ियों से नीचे उतरना भी भूल गए हैं। क्या करे बुढ़ापा होता ही ऐसा है लाचार बना देता है। हमने देखा वे बहुत ही दुबले-पतले हो रखे थे। कारण जानने के लिए पूछा तो उन्होंने बताया कि अभी कुछ पहले ही वे पास के ही हॉस्पिटल में भर्ती थे। काफी कमजोरी आ गयी है। बस दवा-दारु के सहारे चल रहे हैं।
बातों-बातों में वे चाय पानी का पूछने लगे तो हमने कहा कि हम चाय नयी पीते तो वे कॉफ़ी पीने की जिद्द करने लगे। लेकिन हमने देखा कि उनके घर में दूध नहीं था और वे बार-बार दूध वाले को फ़ोन लगा रहे थे लेकिन वह उनका फोन नहीं उठा रहा था। वे इतनी सी बात के लिए बड़े हैरान-परेशान हो रहे थे। जब हमने कहा कि क्या आपका दूधवाला गांव से दूध लेकर आता है तो उन्होंने बताया की नहीं, यहीं सामने जो साँची दूध का पार्लर है वहीँ से वह लाता है, हम उसे ५० रूपये माह में अतिरिक्त देते हैं। उनको परेशान होता देख हमने कहा कि आप परेशान न हो, हम तो अभी ग्रीन टी पीकर आये है, आप कहो तो हम आपको दूध लाकर दे देते हैं, लेकिन उन्होंने कहाँ बस आता ही होगा। हमें भी ऑफिस जाना था इसलिए हम थोड़ी देर बात करते हुए अपने घर को निकल पड़े। मैं चलते-चलते सोचने लगे ये बुढ़ापा भी कितना लाचार कर देता है। हम कितनी मेहनत करते हैं, अपने और अपने बच्चों के सुख संसार के लिए, लेकिन देखो! बुढ़ापे में क्या होता है, कोई कहाँ, कोई कहाँ, सब बिखर जाता है एक पल में। सभी के भाग्य में कहाँ होता उत्तम स्वास्थ्य और स्वस्थ पारिवारिक जीवन जीना। उनके बारे में सोचते हुए जब घर पहुंची और जब आईने में मैंने अपने आप को देखा तो सिर में कुछ सफ़ेद बाल मुझे मुस्कुराते हुए मिले मैंने झट से अपना मुँह उससे दूर कर दिया।
सच में बुढ़ापा इंसान को कितना लाचार बना देता है, अच्छे खासे की हिम्मत तोड़ के रख देता है। बुढ़ापे की लाचारी और हिम्मत की बात आई, तो इस सम्बन्ध में रामलीला का एक प्रसंग सुनाने का मन हो चला है, तो सुनते चलिए।
रावण जब सीता हरण करने के लिए मारीच से कहता है कि -
"सुन मारीच निशाचर भाई, चल मोरे संग जहाँ रघुराई।
होहु कपट मृग तुम छलकारी, मैं फह लाऊँ उनकी नारी।।"
तब मारीच अपने बुढ़ापे की लाचारी का बखान कुछ यूँ गाकर करता है-
"बुढ़ापा आ गया सरकार हिम्मत हार बैठा हूँ।
कबर में पांव रखने के लिए तैयार बैठा हूँ। बुढ़ापा ......
जवानी की उमंगें तो जवानी ही में रहती है।
बुढ़ापा आ गया सरकार हिम्मत हार बैठा हूँ। कबर ...... "
फिर मिलते हैं .....