आज भले ही छुट्टी का दिन था, लेकिन मैं और दिन की अपेक्षा जल्दी से उठी और कल जो मेरी ऑफिस की महिला मित्र के बड़े बेटे ने आत्महत्या की थी, उनके परिवार और रिश्तेदारों के लिए कुछ नाश्ता-पानी बनाकर ले गई। ऐसी दुःखद घड़ी में खाना खाने का मन तो किसी का नहीं करता लेकिन जीने के लिए खाना जरुरी होता है, इसलिए मैंने उसे और उनके करीबी लोगों को जैसे-तैसे कर थोड़ा-बहुत खिलाया तो मन को थोड़ी राहत मिली। वहां सभी आपस में उसके बेटे की बारे में बातें करते हुए उसे याद कर रहे थे। जब भी कोई दु:खी परिवार को सांत्वना देने आता वह सबसे पहले कमरे के एक कोने में रखी उसके मृत लड़के की तस्वीर पर कुछ फूल अर्पित कर सबके साथ उसके बारे में बात करते हुए बैठ जाता। वहां बैठे-बैठे मेरे मन में जाने कितने ही विचार उमड़-घुमड़ कर मुझे परेशान करते रहे। मैं कभी-कभी उसे समझाती तो कभी खुद ही विचारों में डूब जाती। मैं सोचती भले ही आत्महत्या करने वाले को शरीर की छटपटाहट के मुक्ति मिल जाती है, किन्तु वह अपनों को जीवन भर की तड़प देकर जाता है।
दुःख की घड़ी में दु:खी परिवार को समझाना किसी के लिए भी सरल काम नहीं है। सब कुछ समझते-जानते हुए कि मृत्यु अटल है, हम उससे डरकर दूर भागने का उत्क्रम करने में लगे रहते हैं। जब तक इंसान जिन्दा रहता है वह सबको अच्छा लगता है, प्यारा लगता है लेकिन जैसे ही वह निष्प्राण हुआ कि सभी उसे शव कहकर उसे अपवित्र और उससे दूर भागते हैं, उसे घर से बाहर कर उसे आग के हवाले कर देते हैं, तभी तो शयामनारायण पाण्डे कहते हैं -
नश्वर यह सारा अग-जग, नश्वर यह मेरा तन है।
है अर्थ जन्म का मरना, संसृति का लक्ष्य निधन है।।.