चलो हम कुछ नहीं कहते,
चलो हम कुछ नहीं करते,
कुरेदेंगे न ज़ख्मों को,
न कोई हवा इन्हें देंगे,
गिला भी है नहीं कोई,
न कोई शिकवा करेंगे I
मगर कब तक करेंगे लोग,
यूँ ही दिन-रात मनमानी ?
लेकर नाम मज़हब का,
बहे क्यों खून बन पानी ?
गुलिस्ताँ’ है ये फूलों का,
इसे हरदम महकने दो,
सम्भालो तुम क़दम अपने,
इन्हें ना तुम बहकने दो;
मुन्तज़िर है वतन मिलकर,
लिखो कोई नई कहानी...!