दो-अस्तित्व मिले,
बन गए मीत;
मृदुहास्य खिले,
लिख गए गीत...
न मुख, वदन, न वसन
सौरभ था वो अम्बक का,
स्पर्श किया था स्पंदन
उठती-गिरती लहरों का ।
शल्लिका छलकी जाती थी
प्रेम-प्रतीति की श्लाघा की,
हम-संग लांघते थे सलिला,
जीवन की हर बाधा की ।
नि:शब्द निरखती सारी बातें
निष्प्राण पड़े हैं सारे स्वप्न
अंतर्गति तरनी सिन्धु खड़ी,
फिर चलो ढूंढकर लाएं रत्न ।