बच्चे ने
हरी-भरी
सुन्दर-सजीली
गेंद से
खेलते-खेलते
धीरे-धीरे
कुतर दिया उसे।
उधेड़ कर परत-दर-परत
देखना चाहता था
उसे तह तक।
या फिर कौतूहल में
उतारता गया
रंगों की पपड़ियाँ इसकी।
अब असंतुलित हो गई है,
रंग उधड़ गया है इसका।
कुरूप हो गई है अब;
जीवन से भरी
उछलती थी अब तक.....
अब ठहर सी गई है।
बच्चा निहारता है
गगन की ओर अपलक
शायद कोई टपका दे
रंग-बिरंगी एक और नई गेंद...!