उम्र की इस ढलान पर
भीतर भावों का उद्वेलन है
पर बाहर निश्चेष्टता,
वर्तमान में बन्द हो गए हम ।
अतीत भूला-भूला सा है
भविष्य का पता नहीं
सब कुछ धुंधला सा
शब्दहीन,
स्पन्दनहीन
मृतप्राय है ।
अब गीत सुनाता हूँ
लिखता नहीं,
न जाने कितने विगत के चित्र
आँखों के सामने उभरते हैं
मिटते हैं पर उन्हें-
कैनवस पर उतार नहीं पाता ।
अन्दर ही अन्दर,
समय-समय पर जाने कितनी बार
रंगमंच का परदा उठता है, गिरता है
कितने ही दृश्य बदलते हैं,
पर
इस रंगमंच के नाटक का
अंतिम पटाक्षेप कब होगा- पता नहीं...
-चारुचन्द्र द्विवेदी
बाजर बेलीगंज रायबरेली।