"मानव " ( मात्रिक छंद )
रे माँ तेरे चरणों में सगरो तीरथ सुरधामा
करुणाकारी आँचल में मोहक ममता अभिरामा॥
सुख की सरिता लहराती तेरे नैनों की धारा
दुख के बादल दूर रहें पानी चाहे हो खारा॥
पीकर उसको जी लेता तेरा लाल निराला है
अमृत बूंदे मिल जाती सम्यक स्वाद निवाला है॥
खाकर मीठी थपकी को मधुरम प्याला भर लेता
उड़ जाता नभ लहराता अपने मन की कर लेता॥
जननी जगत निराली तू सुत तेरा वंदन करता
माँ की महिमा सुखदाई चंदन सा शीतल करता॥
महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी