(1)
सुन्दर, सुखद, सूर्य से सेवित मेरे प्यारे देश बिदा!
प्राच्य सिन्धु के मुक्ता! तेरे आगे तुच्छ विपिन नन्दन ।
यह मैं चला खुशी में भर कर तुझ पर न्योछावर करने
आशायों से रहित, भाग्य से हीन, व्यग्र, व्याकुल जीवन ।
आह ! कहीं होता यह जीवन और अधिक उज्जवल, मधु
तुझ पर इसे चढ़ा देता मैं मोहमुक्त तब भी निश्चय ।
(2)
रोधों में जूझते, युद्ध करते प्रचण्ड उन्मादों में
किस उमंग से वीर तुम्हारे पद पर प्राण चढ़ाते हैं!
युद्धभूमि हो या फाँसी हो, विजय-हार हो या मरघट,
ये दृश्यों के भेद वीर-मन में न भेद उपजाते हैं ।
खुले युद्ध में लड़ो कि तप में छोड़ो तड़प-तड़प कर
देश अगर माँगे तो सारी कुर्बानी है एक समान ।
(3)
मैं तो मरने चला, किन्तु यह निर्मल शुभ्र गगन देखो,
बीत चुकी तममयी निशा, ऊषा उगने ही वाली है ।
नये प्रात का मुख रंगने को तुम्हें चाहिए रंग अगर,
तो अर्पित उस हेतु तप्त मेरे शोणित की लाली है।
ठीक समय पर इसे छिड़कना नभ के कोने-कोने में,
रंग लेना, कम से कम, नूतन एक किरन इस सोने में ।
(4)
जब मैं था बालक या जब कुछ बढ़कर और किशोर हुआ,
याकि आज जब आग जवानी पर है डाल रही घेरा,
ओ हीरक पूर्वी समुद्र के ! ओ प्राची नभ के नक्षत्र !
रहा एक ही सपने पर ललचाता सदा हृदय मेरा ।
आशापूर्ण नयन चमकेंगे, यह दु:शोक विगत होगा,
आज न तो कल कभी तुम्हारा झुका भाल उन्नत होगा ।
(5)
मन की तृषा ! ध्यान प्राणों के ! ओ जीवन के सम्मोहन !
अन्तिम यात्रा पर चलने से पहले मेरा भरा हृदय ।
जय पुकारता है तेरी; मैं मरूं कि तेरी आयु बढ़े,
धन्य भाग ! मेरे विनाश पर खिले विश्व में तेरी जय ।
यह सुयोग दुर्लभ तेरे नभ के नीचे बलि होने का,
तेरी मनमोहनी गोद में चिर-निद्रा में सोने का।
(6)
कभी अगर मेरी समाधि पर उगनेवाले झाड़ों में
मिले चटकता फूल तुझे कोई अदना-सा, साधारण;
तो दुलार लेना उसको, क्षण भर, निज अधरों से छूकर,
उसे चूमने में होगा मेरी ही आत्मा का चुम्बन ।
शीत शिला के नीचे मैं महसूस करूँगा निज मुख पर
तेरी मृदुल स्पर्श, साँसों से उठनेवाली उष्ण लहर ।
(7)
कहो चाँद से, जगा रहे वह शीतल, शान्त, सुखद होकर,
कहो उषा से, उड़नेवाली किरणों को आजाद करे ।
कहो वायु से, शोक मनाए अतिशय शोकाकुल होकर,
मन्द-मन्द रोये, धीमे-धीमे अपनी फरियाद करे ।
और क्रूस पर बैठे यदि उड्डीन विहग कोई आकर,
कहो, बिताये समय यहाँ का कोई शान्ति-गीत गाकर ।
(8)
कहो, सूर्य के प्रखर ताप में जलवृष्टियां बिखर जायें
और लगें लौटने व्योम को जब वे पुन: शुद्ध होकर,
लेती जाएँ ऊर्ध्व लोक तक मेरी साध, ध्येय मेरा
करने दो, मेरा विलाप यदि करे मित्र कोई रोकर ।
और करे प्रार्थना शाम को कोई यदि मेरा ले नाम,
तो यह भी वह कहे कि हरि में मैंने पाया है विश्राम ।
(9)
करो प्रार्थना उनके हित जो टूट गिरे लडते-लड़ते,
या जो वीर आज मी डटकर झेल रहे छाती पर वार ।
विधवाओं, अनाथ बच्चों के हित जिनका कोई न कहीं,
उन माताओं के निमित्त जो घर-घर रोती हैं बेजार ।
करो प्रार्थनाएँ उनके हित जो नर कारागारों में
काट रहे जिन्दगी विवश हो नीरव हाहाकारों में ।
(10)
काली निशा के अंधकार में कभी कब्र यदि छिप जाए,
और रात भर जाग तिमिर में मुरदे देते हों पहरा,
भंग न करना निविड़ शांति को, नीरवता को मत छूना,
रहने देना उस रहस्य को अनजाना, गोपन, गहरा ।
सुनो अगर कोई धुन तो समझो, मैं बीन बजाता हूं,
मेरे प्यारे देश ! तुम्हें प्राणों के गीत सुनाता हूँ ।
(11)
और एक दिन जब समाधि की सब निशानियाँ मिट जायें,
कभी यहाँ थी कब्र, नहीं कोई कह सके किसी कल से,
मत रोकना अगर कोई फावड़ा चला मिट्टी खोदे,
या जोते गर जमीं यहाँ की हलवाहा अपने हल से ।
मेरी धूल कब्र से उठ हरियाली बन उग आयेगी,
तेरे पांव तले बन कर कालीन नर्म बिछ जायेगी ।
(12)
तब विस्मृति की भला भीति क्या? यह चिरायु आत्मा मेरी,
तेरे नभ, तलहटी, पवन से होकर आये-जायेगी ।
और सुदृढ़, झंकारशील रागिनियों का समुदाय बनकर,
गीत-प्रवन तेरी सुरम्य श्रुतियों में जा सो जायेगी ।
गन्ध, रंग, आलोक, गीतियां, आहें, मन्द-मधुर-गुनगुन
सभी करेंगे एक साथ मेरी श्रद्धा का अभिव्यंजन ।
(13)
पूज्य भूमि ! ओ पीड़ाओं में सबसे प्रथम पीर मेरी!
प्यारे फिलीपिना ! सुन लो जानेवाले का बिदा-वचन;
जो था मेरे पास, सभी कुछ तुम्हें दिये मैं जाता हूं,
सखा, बंधु, परिवार, प्रेम, आशा, उमंग, जीवन, तन, मन ।
चला जहाँ मैं, नहीं न होते दास, वधिक, अत्याचारी,
धर्म नहीं अपराध; वहां हरि के कर में सत्ता सारी ।
(14)
बिदा जनक-जननी ! प्रणाम, बंधुओ ! अंश मेरे उर के !
मित्र और क्रीड़ासंगी शैशव के ! हो सब रोज भला ।
सब मिलकर दो धन्यवाद, कोलाहल-भरे हुए दिन से
किसी तरह, मैं छट, अन्त में, करने को विश्राम चला ।
बिदा मधुर मेरे परदेसी ! मेरे प्रिय ! मेरे अभिराम !
बिदा सभी प्रिय बंधु-बांधवो ! मृत्यु नहीं कुछ और, विराम ।
(मूल सपैनिश कवि : डा. जोज रिज्जल; फिलीपिन।
अंग्रेजी अनुवाद: निक तोआकिन)
(नई दिल्ली, 12 अगस्त, 1959 ई.)