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मेरी बिदाई

19 फरवरी 2022

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 (1) 

सुन्दर, सुखद, सूर्य से सेवित मेरे प्यारे देश बिदा! 

प्राच्य सिन्धु के मुक्ता! तेरे आगे तुच्छ विपिन नन्दन । 

यह मैं चला खुशी में भर कर तुझ पर न्योछावर करने 

आशायों से रहित, भाग्य से हीन, व्यग्र, व्याकुल जीवन । 

  

आह ! कहीं होता यह जीवन और अधिक उज्जवल, मधु 

तुझ पर इसे चढ़ा देता मैं मोहमुक्त तब भी निश्चय । 

  

(2) 

रोधों में जूझते, युद्ध करते प्रचण्ड उन्मादों में 

किस उमंग से वीर तुम्हारे पद पर प्राण चढ़ाते हैं! 

युद्धभूमि हो या फाँसी हो, विजय-हार हो या मरघट, 

ये दृश्यों के भेद वीर-मन में न भेद उपजाते हैं । 

  

खुले युद्ध में लड़ो कि तप में छोड़ो तड़प-तड़प कर 

देश अगर माँगे तो सारी कुर्बानी है एक समान । 

  

(3) 

मैं तो मरने चला, किन्तु यह निर्मल शुभ्र गगन देखो, 

बीत चुकी तममयी निशा, ऊषा उगने ही वाली है । 

नये प्रात का मुख रंगने को तुम्हें चाहिए रंग अगर, 

तो अर्पित उस हेतु तप्त मेरे शोणित की लाली है। 

  

ठीक समय पर इसे छिड़कना नभ के कोने-कोने में, 

रंग लेना, कम से कम, नूतन एक किरन इस सोने में । 

  

(4) 

जब मैं था बालक या जब कुछ बढ़कर और किशोर हुआ, 

याकि आज जब आग जवानी पर है डाल रही घेरा, 

ओ हीरक पूर्वी समुद्र के ! ओ प्राची नभ के नक्षत्र ! 

रहा एक ही सपने पर ललचाता सदा हृदय मेरा । 

  

आशापूर्ण नयन चमकेंगे, यह दु:शोक विगत होगा, 

आज न तो कल कभी तुम्हारा झुका भाल उन्नत होगा । 

  

(5) 

मन की तृषा ! ध्यान प्राणों के ! ओ जीवन के सम्मोहन ! 

अन्तिम यात्रा पर चलने से पहले मेरा भरा हृदय । 

जय पुकारता है तेरी; मैं मरूं कि तेरी आयु बढ़े, 

धन्य भाग ! मेरे विनाश पर खिले विश्व में तेरी जय । 

  

यह सुयोग दुर्लभ तेरे नभ के नीचे बलि होने का, 

तेरी मनमोहनी गोद में चिर-निद्रा में सोने का। 

  

(6) 

कभी अगर मेरी समाधि पर उगनेवाले झाड़ों में 

मिले चटकता फूल तुझे कोई अदना-सा, साधारण; 

तो दुलार लेना उसको, क्षण भर, निज अधरों से छूकर, 

उसे चूमने में होगा मेरी ही आत्मा का चुम्बन । 

  

शीत शिला के नीचे मैं महसूस करूँगा निज मुख पर 

तेरी मृदुल स्पर्श, साँसों से उठनेवाली उष्ण लहर । 

  

(7) 

कहो चाँद से, जगा रहे वह शीतल, शान्त, सुखद होकर, 

कहो उषा से, उड़नेवाली किरणों को आजाद करे । 

कहो वायु से, शोक मनाए अतिशय शोकाकुल होकर, 

मन्द-मन्द रोये, धीमे-धीमे अपनी फरियाद करे । 

  

और क्रूस पर बैठे यदि उड्डीन विहग कोई आकर, 

कहो, बिताये समय यहाँ का कोई शान्ति-गीत गाकर । 

  

(8) 

कहो, सूर्य के प्रखर ताप में जलवृष्टियां बिखर जायें 

और लगें लौटने व्योम को जब वे पुन: शुद्ध होकर, 

लेती जाएँ ऊर्ध्व लोक तक मेरी साध, ध्येय मेरा 

करने दो, मेरा विलाप यदि करे मित्र कोई रोकर । 

  

और करे प्रार्थना शाम को कोई यदि मेरा ले नाम, 

तो यह भी वह कहे कि हरि में मैंने पाया है विश्राम । 

  

(9) 

करो प्रार्थना उनके हित जो टूट गिरे लडते-लड़ते, 

या जो वीर आज मी डटकर झेल रहे छाती पर वार । 

विधवाओं, अनाथ बच्चों के हित जिनका कोई न कहीं, 

उन माताओं के निमित्त जो घर-घर रोती हैं बेजार । 

  

करो प्रार्थनाएँ उनके हित जो नर कारागारों में 

काट रहे जिन्दगी विवश हो नीरव हाहाकारों में । 

  

(10) 

काली निशा के अंधकार में कभी कब्र यदि छिप जाए, 

और रात भर जाग तिमिर में मुरदे देते हों पहरा, 

भंग न करना निविड़ शांति को, नीरवता को मत छूना, 

रहने देना उस रहस्य को अनजाना, गोपन, गहरा । 

  

सुनो अगर कोई धुन तो समझो, मैं बीन बजाता हूं, 

मेरे प्यारे देश ! तुम्हें प्राणों के गीत सुनाता हूँ । 

  

(11) 

और एक दिन जब समाधि की सब निशानियाँ मिट जायें, 

कभी यहाँ थी कब्र, नहीं कोई कह सके किसी कल से, 

मत रोकना अगर कोई फावड़ा चला मिट्टी खोदे, 

या जोते गर जमीं यहाँ की हलवाहा अपने हल से । 

  

मेरी धूल कब्र से उठ हरियाली बन उग आयेगी, 

तेरे पांव तले बन कर कालीन नर्म बिछ जायेगी । 

  

(12) 

तब विस्मृति की भला भीति क्या? यह चिरायु आत्मा मेरी, 

तेरे नभ, तलहटी, पवन से होकर आये-जायेगी । 

और सुदृढ़, झंकारशील रागिनियों का समुदाय बनकर, 

गीत-प्रवन तेरी सुरम्य श्रुतियों में जा सो जायेगी । 

  

गन्ध, रंग, आलोक, गीतियां, आहें, मन्द-मधुर-गुनगुन 

सभी करेंगे एक साथ मेरी श्रद्धा का अभिव्यंजन । 

  

(13) 

पूज्य भूमि ! ओ पीड़ाओं में सबसे प्रथम पीर मेरी! 

प्यारे फिलीपिना ! सुन लो जानेवाले का बिदा-वचन; 

जो था मेरे पास, सभी कुछ तुम्हें दिये मैं जाता हूं, 

सखा, बंधु, परिवार, प्रेम, आशा, उमंग, जीवन, तन, मन । 

  

चला जहाँ मैं, नहीं न होते दास, वधिक, अत्याचारी, 

धर्म नहीं अपराध; वहां हरि के कर में सत्ता सारी । 

  

(14) 

बिदा जनक-जननी ! प्रणाम, बंधुओ ! अंश मेरे उर के ! 

मित्र और क्रीड़ासंगी शैशव के ! हो सब रोज भला । 

सब मिलकर दो धन्यवाद, कोलाहल-भरे हुए दिन से 

किसी तरह, मैं छट, अन्त में, करने को विश्राम चला । 

  

बिदा मधुर मेरे परदेसी ! मेरे प्रिय ! मेरे अभिराम ! 

बिदा सभी प्रिय बंधु-बांधवो ! मृत्यु नहीं कुछ और, विराम । 

  

(मूल सपैनिश कवि : डा. जोज रिज्जल; फिलीपिन। 

अंग्रेजी अनुवाद: निक तोआकिन) 

(नई दिल्ली, 12 अगस्त, 1959 ई.)  

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रचनाएँ
मृत्ति-तिलक
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'मृत्ति-तिलक'। संग्रह की कविताओं में जहाँ देश के विराट व्यक्तियों के प्रति कवि का श्रद्धा-निवेदन है, वहीं कुछ कविताओं में उत्कट देश-प्रेम की ओजस्वी अभिव्यक्ति है। कुछ कविताएँ ख्यातनाम देशी-विदेशी कवियों की उत्कृष्ट रचनाओं का सरस अनुवाद हैं तो कुछ कविताओं में निसर्ग का सुन्दर चित्रण है। इन कविताओं की अद्भुत विशेषता है। अपने सरोकार और संवेदना में हिन्दी साहित्य के लिए थाती हैं ये कविताएँ। 'मृत्ति-तिलक' को पढ़ना हिन्दी काव्य के स्वर्ण-युग की यात्रा करना है।
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मृत्ति-तिलक

19 फरवरी 2022
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सब लाए कनकाभ चूर्ण,  विद्याधन हम क्या लाएँ?  झुका शीश नरवीर ! कि हम  मिट्टी का तिलक चढ़ाएँ ।     भरत-भूमि की मृत्ति सिक्त,  मानस के सुधा-क्षरण से  भरत-भूमि की मृत्ति दीप्त,  नरता के तपश्चरण से

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वलि की खेती

19 फरवरी 2022
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जो अनिल-स्कन्ध पर चढ़े हुए प्रच्छन्न अनल !  हुतप्राण वीर की ओ ज्वलन्त छाया अशेष !  यह नहीं तुम्हारी अभिलाषाओं की मंजिल,  यह नहीं तुम्हारे सपनों से उत्पन्न देश ।     काया-प्रकल्प के बीज मृत्ति में

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अमृत-मंथन

19 फरवरी 2022
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 १  जय हो, छोड़ो जलधि-मूल,  ऊपर आओ अविनाशी,  पन्थ जोहती खड़ी कूल पर  वसुधा दीन, पियासी ।  मन्दर थका, थके असुरासुर,  थका रज्जु का नाग,  थका सिन्धु उत्ताल,  शिथिल हो उगल रहा है झाग ।  निकल चुकी व

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भाइयो और बहनो

19 फरवरी 2022
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लो शोणित, कुछ नहीं अगर  यह आंसू और पसीना!  सपने ही जब धधक उठें  तब धरती पर क्या जीना?  सुखी रहो, दे सका नहीं मैं  जो-कुछ रो-समझाकर,  मिले कभी वह तुम्हें भाइयो-  बहनों! मुझे गंवाकर!  

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बापू

19 फरवरी 2022
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जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी  हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में;  लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती,  बेबसी बोलती है आँसू की भाषा में।     वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाये,  किरणों का

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पटना जेल की दीवार से

19 फरवरी 2022
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 मृत्यु-भीत शत-लक्ष मानवों की करुणार्द्र पुकार!  ढह पड़ना था तुम्हें अरी ! ओ पत्थर की दीवार!  निष्फल लौट रही थी जब मरनेवालों की आह,  दे देनी थी तुम्हें अभागिनि, एक मौज को राह ।     एक मनुज, चालीस

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स्वर्ण घन

19 फरवरी 2022
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उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!  बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!     भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,  उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;  भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!  उ

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राजकुमारी और बाँसुरी

19 फरवरी 2022
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राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी,  कोई विह्वल बजा रहा था नीचे वंशी प्यारी।  "बस, बस, रुको, इसे सुनकर मन भारी हो जाता है,  अभी दूर अज्ञात दिशा की ओर न उड़ पाता है।  अभी कि जब धीरे-धीरे है डूब रहा

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प्लेग

19 फरवरी 2022
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सब देते गालियाँ, बताते औरत बला बुरी है,  मर्दों की है प्लेग भयानक, विष में बुझी छुरी है।  और कहा करते, "फितूर, झगड़ा, फसाद, खूँरेज़ी,  दुनिया पर सारी मुसीबतें इसी प्लेग ने भेजीं।"  मैं कहती हूँ, अ

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गोपाल का चुम्बन

19 फरवरी 2022
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छिः, छिः, लज्जा-शरम नाम को भी न गई रह हाय,  औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय।     लोट गई धरती पर अब की उलर फूल की डार,  अबकी शील सँभल नहीं सकता यौवन का भार।  दोनों हाथ फँसे थे मेरे, क्या कर

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विपक्षिणी

19 फरवरी 2022
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(एक रमणी के प्रति जो बहस करना छोड़कर चुप हो रही)     क्षमा करो मोहिनी विपक्षिणी! अब यह शत्रु तुम्हारा  हार गया तुमसे विवाद में मौन-विशिख का मारा।  यह रण था असमान, लड़ा केवल मैं इस आशय से,  तुमसे

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संजीवन-घन दो

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जो त्रिकाल-कूजित संगम है, वह जीवन-क्षण दो,  मन-मन मिलते जहाँ देवता! वह विशाल मन दो।     माँग रहा जनगण कुम्हलाया  बोधिवृक्ष की शीतल छाया,  सिरजा सुधा, तृषित वसुधा को संजीवन-घन दो।  मन-मन मिलते जह

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वीर-वन्दना

19 फरवरी 2022
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 (1)  वीर-वन्दना की वेला है, कहो, कहो क्या गाऊं ?  आँसू पातक बनें नींव की ईंट अगर दिखलाऊं ।  बहुत कीमती हीरे-मोती रावी लेकर भागी,  छोड़ गई जालियाँबाग की लेकिन, याद अभागी ।  कई वर्ष उससें पहले, जब

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भारत का आगमन

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कुछ आये शर-चाप उठाये राग प्रलय का गाते,  मानवता पर पड़े हुए पर्वत की धूल उड़ाते ।  कुछ आये आसीन अनल से भरे हुए झोंकों पर,  गाँथे हुए मुकुट-मुंडों को बरछों की नोकों पर ।  कूछ आये तोलते कदम को मणि-मुक

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एक भारतीय आत्मा के प्रति

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(कवि की साठवीं वर्ष गांठ पर) रेशम के डोरे नहीं, तूल के तार नहीं, तुमने तो सब कुछ बुना साँस के धागों से; बेंतों की रेखाएं रगों में बोल उठीं, गुलबदन किरन फूटी कड़ियों की रागों से । चीखें जब बनती

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आगोचर का आमंत्रण

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आदि प्रेम की मैं ज्वाला,  उतरी गाती यों प्रात-किरण,  जो प्रेमी हो, आगे बढ़,  मुझ अनल-विशिख का करे वरण ।     कहती गन्ध, साँस से जिसकी,  सुरभित हैं अग-जग, त्रिभुवन,  वृन्तहीन उस आदि पुष्प का,  मै

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निर्वासित

19 फरवरी 2022
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 बार-बार लिपटा चरणों से, बार-बार नीचे आया;  चूक न अपनी ज्ञात हमें, है दण्ड कि निर्वासन पाया ।     (1)  तरी झांझरी साथ मिली,  चल पड़ा कहीं तिरता-तिरता,  लहर-लहर पर सघन अमा में  ज्योति खोजता मैँ

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जमीन दो, जमीन दो

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सुरम्य शान्ति के लिए, जमीन दो, जमीन दो,  महान् क्रान्ति के लिए, जमीन दो, जमीन दो ।     (1)  जमीन दो कि देश का अभाव दूर हो सके,  जमीन दो कि द्वेष का प्रमाद दूर हो सके,  जमीन दो कि भूमिहीन लोग काम

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इस्तीफा

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लगा शाप, यह वाण गया झुक, शिथिल हुई धनु की डोरी,  अंगों में छा रही, न जाने, तंद्रा क्यों थोड़ी-थोड़ी !     विनय मान मुझको जाने दो,  शेष गीत छिप कर गाने दो,  मुझसे तो न सहा जाएगा अब असीम यह कोलाहल, 

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मेरी बिदाई

19 फरवरी 2022
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 (1)  सुन्दर, सुखद, सूर्य से सेवित मेरे प्यारे देश बिदा!  प्राच्य सिन्धु के मुक्ता! तेरे आगे तुच्छ विपिन नन्दन ।  यह मैं चला खुशी में भर कर तुझ पर न्योछावर करने  आशायों से रहित, भाग्य से हीन, व्यग

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राजर्षि अभिनन्दन

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(स्वर्गीय राजर्षि पुरषोत्तमदास टंडन के अभिनन्दन में)     जन-हित निज सर्वस्व दान कर तुम तो हुए अशेष;  क्या देकर प्रतिदान चुकाए ॠषे ! तुम्हारा देश ?     राजदंड केयूर, क्षत्र, चामर, किरीट, सम्मान; 

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भारत-व्रत

19 फरवरी 2022
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 (सन् 1955 ई. में रुसी नेतओं के दिल्ली-आगमन  के अवसर पर विरचित)     स्वागत लोहित सूर्य ! यहाँ निर्मल, नीलाभ गगन है,  क्षीर-कल्प सर-सरित, अगुरु-सौरभ से भरित पवन है ।  लेकर नूतन-जन्म पुरातन व्रत हम

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तन्तुकार

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भू पर कटु रव कर्कश, अपार,  ऊपर अम्बर में धूम, क्षार ।    श्रमियों का कर शोषण, विनाश,  चिमनियाँ छोड़तीं मलिन सांस ।    श्रमशिथिल, विकल, परिलुब्ध, व्यस्त,  क्षयमान मनुज निरुपाय, त्रस्त ।  श्रम पि

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सर्ग-संदेश

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देशों में यदि सर्वोच्च देश बनना चाहो,  पहले, सबसे बढ़ कर, भारत को प्यार करो ।     है चकित विश्व यह देख,  धर्म के प्रतनु, प्रांशु पथ पर चल कर  नय-विनय-समन्वित शूर  लिये सबके हित कर में सुधा-सार, 

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बरगद

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निश्चिन्त चारुजल ताल-तीर  है खड़ा एक बरगद गम्भीर,  पत्ते-पत्ते में सघन, श्यामद्युति हरियाली ।     डोलता दिवस भर छवि बिखेर,  जब निश आती, झूमता पेड़,  गुंजित विहंग-कलकूजन से डाली-डाली ।     भीतर-भ

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उर्वशी काव्य की समाप्ति

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(उर्वशी काव्य के पूर्ण होने पर पंत जी  को लिखा गया एक पत्र)     मान्यवर ! आप कवि की जय हो,  यह नया वर्ष मंगलमय हो।     अब एक नया संवाद सुनें,  दे मुझ को आर्शीवाद, सुनें।     हो गया पूर्ण उर्व

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