लगा शाप, यह वाण गया झुक, शिथिल हुई धनु की डोरी,
अंगों में छा रही, न जाने, तंद्रा क्यों थोड़ी-थोड़ी !
विनय मान मुझको जाने दो,
शेष गीत छिप कर गाने दो,
मुझसे तो न सहा जाएगा अब असीम यह कोलाहल,
जी न सकूँगा पंक झेल, अब पी न सकूँगा ग्लानि-गरल ।
मन तक पहुँच न पाते हैं जो,
मिट्टी देख घिनाते हैं जो,
इनके बीच रहूं, पाऊँ वह छद्म-जड़ित परिधान कहाँ?
बीन सुनाऊं किसे? छिपाऊँ यह अपना अभिमान कहाँ?
मुझे तुम्हारा वेश न भूला,
अनल-भरा आदेश न भूला,
जहाँ रहा, दिन-रात फूंकता रहा शंख पूरे बल से,
झरते रहे सदा आशिष के फूल तुम्हारे अंचल से ।
तिमिरमयी धरती थी सारी,
छिपी खोह में थी उजियारी,
तब भी, आशीर्वाद तुम्हारा आग-सरीखा बलता था,
इसी बाँसुरी के छिद्रों से रह-रह लपट उगलता था।
तब भी मिली नहीं जयमाला,
मिला कराल जहर का प्याला,
दुनिया कहकर चली गई, क्यों ध्वजा गिरी तेरे कर से;
पूछा नहीं, अनल यह कैसा फूट रहा तेरे स्वर से ।
रजत-शंख का दान मिला था,
मुझे वह्नि का गान मिला था,
गिरि-श्रृंगों पर अभय आज भी शंख फूंकता चलता हूं,
बुझा कहां? मैं मध्य सूर्य के आलिंगन में जलता हूं।
लेकिन विश्व कहे सो मानूँ,
इसी तरह निज को पहचानूं
अच्छा, लो यह कवच, उतरता हूं विराट, लोहित रथ से ।
घर की पगडंडी धरता हूँ अभी उतर ज्वाला-पथ से ।
आग समर्पित है यह, ले लो,
दान करो अथवा खुद खेलो ।
प्यारी वह्नि ! विदा, जाता हूं, हदय यहाँ अकुलाता है,
विधु-मण्डल से कुमुद फेंककर कोई मुझे बुलाता है ।
कोई शंख बजाएगा ही,
तप्त ऊर्मि उपजाएगा ही,
स्वामिनि! मेरी चाह, निनादित सदा तुम्हारा द्वार रहे,
मैं न रहूं, न रहूं पर गुंजित केहरि का हुंकार रहे ।
सेवा की बख्शीश मुझे दो,
केवल यह आशीष मुझे दो,
कभी तुम्हारे लिए कौमुदी-गृह का मैं निर्माण करूं,
कवि-सा तो जी सका नहीं, आशिष दो, कवि की मौत मरूँ ।
(पटना 20-8-1946 ई.)