(स्वर्गीय राजर्षि पुरषोत्तमदास टंडन के अभिनन्दन में)
जन-हित निज सर्वस्व दान कर तुम तो हुए अशेष;
क्या देकर प्रतिदान चुकाए ॠषे ! तुम्हारा देश ?
राजदंड केयूर, क्षत्र, चामर, किरीट, सम्मान;
तोड़ न पाए यती ! ध्येय से बंधा तुम्हारा ध्यान !
ऐश्वर्यों के मोह-कुंज में भी धीरता डोली,
तुमने तो की ग्रहण देवता ! केवल अक्षत-रोली।
जय कामना-जयी! व्रतचारी ! मधुकर चम्पक-वन के!
जय हो अभिनव मस्त भव्य भारत के राजभवन के !
गत की तिमिराच्छन्न गुफा में शिखा सजानेवाले!
जय जीवित, उज्जवल अतीत की ध्वजा उठानेवाले !
ॠषे ! मरेगा कभी न भारतवर्ष तुम्हारे मन का,
अब तो वह बन रहा ध्येय जग भर के अन्वेषण का ।
टूट रही परतें, स्वरूप अपना घुलता जाता है,
मन्द-मन्द मुदित सरोज का मुख खुलता जाता है ।
मन्द-मन्द उठ रही हमारी ध्वजा धर्म की, बल की,
विभा नर्मदा-कावेरी की, प्रभा जहुजा-जल की ।
क्षमा, शान्ति, करुणा, ममता, ये सब आकार धरेंगे,
शमन किसी दिन हलाहल का जग में हमीं करेंगे ।
संस्कृति से संपृक्त यहाँ विज्ञान मुक्त-दव होगा,
हुआ नहीं जो कहीं और, भारत में सम्भव होगा ।
एक हाथ में कमल, एक में धर्मदीप्त विज्ञान,
ले कर उठनेवाला है धरती पर हिन्दुस्तान ।
(1955 ई.)