भू पर कटु रव कर्कश, अपार,
ऊपर अम्बर में धूम, क्षार ।
श्रमियों का कर शोषण, विनाश,
चिमनियाँ छोड़तीं मलिन सांस ।
श्रमशिथिल, विकल, परिलुब्ध, व्यस्त,
क्षयमान मनुज निरुपाय, त्रस्त ।
श्रम पिला पालता स्वार्थ-व्याल
जिसकी दंष्ट्रायों में कराल ।
वह स्वयं नष्ट हो रहा पीर
दंशन की जब करती अधीर,
वह छोड़ एक का दुखद संग
पालता अन्य विषधर भुजंग।
यों दुखी, लुब्ध, दयनीय, व्यग्र
है दौड़ रहा मानव समग्र ।
छीना-झपटी शोषण, प्रहार
यंत्राकुल संस्कृति के सिंगार।
इस कोलाहल के बीच एक
यह कौन शान्त जाग्रत-विवेक ?
जिसकी पूनी का धाग-धाग
रच रहा स्पर्श भू का सुहाग ।
कर रहा स्पर्श सांत्वना-युक्त
शापित धरनी को दाह-मुक्त !
इच्छा के सागर में अजान
नर ने छोड़ा निज वारियान ।
निर्दिष्ट देश का ज्ञान नहीं,
ध्रुव की उसको पहचान नहीं।
सह रहा चतुर्दिक् बीचि-घात;
निज कुशल-पंथ उसको न ज्ञात ।
तट पर से कोई तंतुकार
कर रहा स्निग्ध मंगल-पुकार-
इस तृष्णोदधि का नहीं तीर,
रे लौट, लौट मानव अधीर !
निष्कलष, शान्त, सुस्थिर जीवन,
निष्कलुष, शान्त, सुस्थिर जीवन,
तेरे निजत्व का कोष यहाँ,
सुखमय, अमोघ सन्तोष यहां ।
मत प्रकृति-अंग पर कर प्रहार,
वह शत्रु नहीं, जननी उदार ।
हो पतित, क्षुद्र या महयान्,
है स्वत्व यहां सब का समान ।
सम-भाग मिलेगा अनायास,
तब क्यों कोलाहल ह्रास-त्रास ?
तू जिसे खोजता थका हार,
मुड़ देख, शक्ति वह इसी पार ।
इस तृष्णोदधि का नहीं तीर !
रे लौट, लौट, मानव अधीर !
(मार्च, 1939 ई.)