जो अनिल-स्कन्ध पर चढ़े हुए प्रच्छन्न अनल !
हुतप्राण वीर की ओ ज्वलन्त छाया अशेष !
यह नहीं तुम्हारी अभिलाषाओं की मंजिल,
यह नहीं तुम्हारे सपनों से उत्पन्न देश ।
काया-प्रकल्प के बीज मृत्ति में रहे ऊँघ,
हैं ऊँघ रहे आदर्श तुम्हारे महाप्राण ।
वलिसिक्त भूमि में जिन्हें गिराया था मैंने,
जाने, मेरे भी ऊँघ रहे वे कहाँ गान ।
यह सुरभि नहीं, मधु स्वप्न तुम्हारे जलते हैं,
यह चमक ? तुम्हारे अरमानों में लगी आग ।
श्री नहीं, छद्मिनी कोई वेश बदल आई
मल खूब तुम्हारी इच्छा का मुख पर पराग ।
जादू की यह चाँदनी, धूप की चमक-दमक,
ये फूल और ये दीप. सभी छिप जायेंगे;
वली की खेती पर पड़ी पपड़ियों को उछाल
अपने जब सूरज और चाँद उग आयेंगे।
अंजलि भर जल से भी उगते दूर्वा के दल,
वसुधा न मूल्य के बिना कभी कुछ लेती है।
औ' शोणित से सींचते अंग हम जब उसका,
बदले में सूरज-चाँद हमें वह देती है ।
(1949)