“निशा तक रही थी”
उम्मीद के दामन दरक रहे थे
रात अकेली सरक रही थी
काली आँखों में लाली लिए
भीगते बिस्तर तकिये पर
चाँदनी छटक दूर जा रही थी
निशा सूरज को तक रही थी॥
तारे टूटकर बिखर रहे थे
रोशनी सहमकर सिमट रही थी
कल सूरज निकलेगा धूप लिए
अहसास होगा दिन गुजर जाने पर
बोझिल सी शाम आ रही थी
निशा सूरज को ढ़क रही थी॥
जुगनू बाराती बन रहे थे
आस अंगड़ाई तड़प रही थी
फिर बिस्तर एक रात लिए
इंतजार के मोहरे विसात पर
झनकते झींगुर रात दहक रही थी
निशा सूरज के लिए पक रही थी॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी