उछलती मौज़ा बहारें ला दरिया दिली दर्द लहराती।
मचलती नौका किनारे ला सरिता मिली सर्द विखराती।
जहाँ नित तूफान आते है भिगाते मन मोंह जाते हैं-
पकड़ती बहियाँ किनारे ला खुशियाँ खिली जर्द मचलाती॥
रुख हवावों में मोड़ मिलना निराशा फिरी फर्द महकाती।
खुद के गरुर में सिमट जाना हताशा हँसी गर्द लहराती।
पकड़ पाती क्या उड़ती बूँद छलकती हुई चित लहरों की-
अकेले सिकुड़ना जकड़ जाना बहारों में पर्द फहराती॥
गर्द- पतवार, फर्द- जलन भुना हुआ, जर्द- पीलापन, पर्द- परदा
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी