जबलपुर का फुहारा चौक । त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन का स्मृति-द्वार (सुभाष चन्द्र बोस ने 1939 में कांग्रेस से इस अधिवेशन में त्याग पत्र दिया था) सिर उठाये खड़ा है । इसी फुहारा चौक में १०-१२ साइकिलों पर
जबलपुर के आधार-ताल का वह मकान जो कभी दो बुलबुलों की मीठी तान से महका करता था, आज ख़ाली पिंजरे सा तन्हाई के आग़ोश में डूबा है । इस समय मकान की बालकनी में घर के स्वामी पति-पत्नी एकाकी से बैठे हैं । संद
राइट-टाउन का सुनीता-विला नाम का वह मकान जो कपिल अवस्थी के सच्चिदानंद बनने के पश्चात से वीरानी का दंश झेल रहा था, आज पुनः आबाद हो गया है । दिन के १२ बजे सुनीता-विला के आगे टैक्सी रुकी।कपिल अवस्थी के लि
शहर की हवाओं में एक सन्नाटा सा पसरा है। लोकतंत्र जेलों में बंद है। लोकतंत्र के स्तंभ रेडियो और प्रेस पर ताला जड़ा है।ऐसे में लमहेटा घाट से सटा परमानंद आश्रम भला कैसे अछूता रह सकता था। कुछ दिन पहले ही
जबलपुर भीषण गर्मी से तप रहा है। आज नौ- तपा का पहला दिन है। नौ-तपा अर्थात् झुलसा देने वाली गर्मी के वह नौ दिन जिनमें पारा ४५ डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार करता प्रतीत होता है। नौ-तपा झुलसाता है पर आस
मुख्य शहर से १६-१७ किलोमीटर दूर ,नर्मदा के लमहेटा घाट से २ किलोमीटर दूर स्थित परमानंद आश्रम एक बड़े भू-भाग में फैला है। साधकों के लिए साधना का उपयुक्त वातावरण प्रदान करने वाली, प्रदेश की प्रमुख आध्यात
किसी तरह रात कटी पौ फटी मायाविनी छायाओं की काली नीरन्ध्र यवनिका हटी। भोर की स्निग्ध बयार जगी, तृण-बालाओं की मंगल रजत-कलसियों से कुछ ओस बूँद झरे, चिड़ियों ने किया रोर,
हम कृति नहीं हैं कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्। क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब इस विलास का योग मिला ?—जो हों, इतने भर को ही भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ? हम हुए, यही बस, नामहीन ह
दीप पत्थर का लजीली किरण की पद चाप नीरव : अरी ओ करुणा प्रभामय ! कब ? कब ?
हम निहारते रूप काँच के पीछे हाँप रही है, मछली । रूप तृषा भी (और काँच के पीछे) हे जिजीविषा ।
हे अमिताभ ! नभ पूरित आलोक, सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक हे अवलोकित हे हिरण्यनाभ !
तुम जो कुछ कहना चाहोगे विगत युगों में कहा जा चुका सुख का आविष्कार तुम्हारा? बार-बार वह सहा जा चुका! रहने दो, वह नहीं तुम्हारा, केवल अपना हो सकता जो मानव के प्रत्येक अहं में सामाजिक अभिव्यक्ति पा
रो उठेगी जाग कर जब वेदना, बहेंगी लूहें विरह की उन्मना, उमड़ क्या लाया करेगा हृदय में सर्वदा विश्वास का वारिद घना?
वैर की परनालियों में हँस-हँस के हमने सींची जो राजनीति की रेती उसमें आज बह रही खूँ की नदियाँ हैं कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कह के हमने थूका था घृणा की आज उसमें पक गई खेती फ़सल कटने को अगली सर्दियाँ
मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?
प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! तुम विमुख हो, किन्तु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम? साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम! विमुख-उन्मुख से
सन्ध्या की किरण-परी ने उठ अरुण पंख दो खोले कम्पित-कर गिरि-शिखरों के उर-छिपे रहस्य टटोले । देखी उस अरुण किरण ने कुल पर्वत-माला श्यामल बस एक शृंग पर हिम का था कम
तरुण अरुण तो नवल प्रात में ही दिखलाई पड़ता लाल- इसीलिए मध्याह्न में अवनि को झुलसाती उसकी ज्वाल! मानव किन्तु तरुण शिशु को ही दबना-झुकना सिखला कर आशा करते हैं कि युवक का ऊँचा उठा रहेगा भाल!
घन अकाल में आये, आ कर रो गये। अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर, उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये। घन अकाल में आये, आ कर रो गये। जीवन की उलझन का जिस को मैं ने माना था अन्
मानस के तल के नीचे है नील अतल लहराता तल पर लख अपनी छाया तू लौट-लौट क्यों जाता? है काम मुकुर का केवल करना मुख-छवि प्रतिबिम्बित क्या इसी मात्र से उस की है यथार्थता परिशंकित?