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नैतिक

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प्रियतम, एक बार और, एक क्षण-भर के लिए और! मुझे अपनी ओर खींच कर,  अपनी समर्थ भुजाओं से अपने विश्वास-भरे हृदय की ओर खींच कर,  संसार के प्रकाश से मुझे छिपा कर, एक बार और खो जाने दो,  एक क्षण-भर के लि

 मृत्यु अन्त है सब कुछ ही का फिर क्यों धींगा-धींगी, देरी? मुझे चले ही जाना है तो बिदा मौन ही हो फिर मेरी! होना ही है यह, तो प्रियतम! अपना निर्णय शीघ्र सुना दो नयन मूँद लूँ मैं तब तक तुम रस्सी काट

शशि रजनी से कहता है, 'प्रेयसि, बोलो क्या जाऊँ?' कहता पतंग से दीपक, 'यह ज्वाला कहो बुझाऊँ?' तुम मुझ से पूछ रहे हो-'यह प्रणय-पाश अब खोलूँ?' इस को उदारता समझूँ-या वक्ष पीट कर रो लूँ!

 प्रियतम मेरे मैं प्रियतम की! आँखें व्यथा कहे देती हैं खुली जा रही स्पन्दित छाती, अखिल जगत् ले आज देख जी भर मुझ गरीबनी की थाती, सुन ले, आज बावली आती गाती अपनी अवश प्रभाती : प्रियतम मेरे मैं प्र

प्रियतम! जानते हो, सुधाकर के अस्त होते ही कुमुदिनी क्यों नत-मस्तक हो कर सो जाती है? इसलिए नहीं कि वह प्रणय से थकी होती है। इसलिए नहीं कि वह वियोग नहीं सह सकती। इसलिए नहीं कि वह सूर्य के प्रखर ताप स

 अपने तप्त करों में ले कर तेरे दोनों हाथ मैं सोचा करती हूँ जाने कहाँ-कहाँ की बात! तेरा तरल-मुकुर क्यों निष्प्रभ शिथिल पड़ा रहता है जब मेरे स्तर-स्तर से ज्वाला का झरना बहता है? क्यों, जब मैं ज्वा

प्रदोष की शान्त और नीरव भव्यता से मुग्ध हो कर दार्शनिक बोला, 'ईश्वर कैसा सर्वज्ञ है! दिवस के तुमुल और श्रम के बाद कितनी सुखद है यह सन्ध्याकालीन शान्ति!' निश्चल और तरल वातावरण को चीरती हुई, दार्शनिक क

मैं ने देखा सान्ध्य क्षितिज को चीर, गगन में छाये तुम; मैं ने देखा, खेतों में से धीरे-धीरे आये तुम। शशि टटोलते आये किरण-करों से रजनी को तम में देखा, तुम समीप आ कर भी रुके निमिष-भर सम्भ्रम में। दे

 ओ तू, जिसे आज मैं ने सह-पथिक लिया है मान, दे मत कुछ, न माँग तू मुझ से कोई भी वाग्दान, लेन-देन ही है क्या इस परमाहुति का सम्मान? जहाँ दान है वहाँ कभी टिक सकते हैं अधिकार? शब्दों ही में बँध जाएगा

यह भी क्या बन्धन ही है? ध्येय मान जिस को अपनाया मुक्त-कंठ से जिस को गाया समझा जिस को जय-हुंकार, पराजय का क्रन्दन ही है? अरमानों के दीप्त सितारे जिस में प्रतिपल अनगिन बारे मेरे स्वप्नों का प्रश

मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा! तुम होओ जीवन के स्वामी, मुझ से पूजा पाओ- या मैं होऊँ देवी जिस पर तुम अघ्र्य चढ़ाओ, तुम रवि जिस को तुहिन बिन्दु-सी मैं मिट कर ही जानूँ- या मैं दीप-शिखा जिस पर तुम जल-जल

मेरे आरती के दीप! झिपते-झिपते बहते जाओ सिन्धु के समीप! तुम स्नेह-पात्र उर के मेरे- मेरी आभा तुम को घेरे! अपना राग जगत का विस्मृत आँगन जावे लीप? मेरे आरती के दीप! हम-तुम किस के पूजा-साधन? किस क

 प्रियतम, क्यों यह ढीठ समीरण, किस अनजाने क्षण में आ कर, जाता है बिखरा-बिखरा कर मेरे राग-भरे ओठों को सम्भ्रम नीरव कम्पन? प्रियतम, क्यों यह सौरभ छलिया, मेरा दीर्घ प्रयास विफल कर, इस अबाध में गल-घु

मैं अमरत्व भला क्यों माँगूँ? प्रियतम, यदि नितप्रति तेरा ही स्नेहाग्रह-आतुर कर-कम्पन विस्मय से भर कर ही खोले मेरे अलस-निमीलित लोचन; नितप्रति माथे पर तेरा ही ओस-बिन्दु-सा कोमल चुम्बन मेरी शिरा-शिर

प्रियतम! देखो, नदी समुद्र से मिलने के लिए किस सुदूर पर्वत के आश्रय से, किन उच्चतम पर्वत-शृंगों को ठुकरा कर, किस पथ पर भटकती हुई, दौड़ी हुई आयी है! समुद्र से मिल जाने के पहले उसने अपनी चिर-संचित स्मृत

 आओ, इस अजस्र निर्झर के तट पर प्रिय, क्षण-भर हम नीरव रह कर इस के स्वर में लय कर डालें अपने प्राणों का यह अविरल रौरव! प्रिय! उस की अजस्र गति क्या कहती है? 'शक्ति ओ अनन्त! ओ अगाध!' प्राणों की स्प

 पथ में आँखें आज बिछीं प्रियदर्शन! तेरा दर्शन पा के, तोड़ बाँध अस्तित्व मात्र के आज प्राण बाहर हैं झाँके; पर मानस के तल में जागृति-स्मृति यह तड़प-तड़प कहती है प्रेयस! मन के किरण-कर तुझे घेरे ही त

पीठिका में शिव-प्रतिमा की भाँति मेरे हृदय की परिधि में तुम्हारा अटल आसन है। मैं स्वयं एक निरर्थक आकार हूँ, किन्तु तुम्हारे स्पर्श से मैं पूज्य हो जाती हूँ क्योंकि तुम्हारे चरणों का अमृत मेरे शरीर में

 गंगा-कूल सिराने ओ लघु दीप मूक दूत से जाओ सिन्धु समीप! ढुलक-ढुलक! नयनों से आँसू-धार! कहाँ भाग्य ले उन के पाँव पखार!

 शशि जब जा कर फिर आये-सरसी तब शून्य पड़ी थी! सुख से रोमांचित होती कुमुदिनी कहीं न खड़ी थी। शशि मन में हँस कर बोले-'मुग्धा से परिणति होगी? सरसी में शीश छिपा कर मुझ से क्या मान करोगी?' ओ दर्प-मूढ़

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