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 नये ढंग की लड़की

11 सितम्बर 2023

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मध्यम रही अनिथित स्थिति के लोगों की एक अद्भुत चमेली है। कुछ लोग मोटरों और शानदार बंगलों का व्यवहार कर विनय से अपने आपको इस श्रेणी का अंग बताते है। दूसरे लोग मज़दूरी की सी असहाय स्थिति में रहकर भी केवल दश और शिक्षित होने के यल पर इस श्रेणी का अंग होने का दावा करते हैं। देश की राजनीति और समाज-सुधार की चिन्ता जितनी इस श्रेणी में रहती है, उवनी न तो अपने विस्तृत स्वार्थी की चिन्ता में व्यस्त रहने वाली ऊँची मेथियों को और से कभी मुक्ति न पानेवाली निम्न श्रेणियों को ही के निर्विवाद अंग थे। समाज और देश के प्रति करने के लिये वे प्रतिदिन चार पैसे का समाचार पत्र स्नान से पूर्व, रात की सुमारी उतारते हुए देख बालते ।

न रोटी के टुकड़े की चिन्ता अमरनाथ बाबू इस श्रेणी अपने सम्बन्ध को अनुभव

अमरनाथ के पड़ोसी गिरधारीलाल बैंक में मामूली स्तर्क थे। समाचार जानने के लिये चार पैसे निछावर करने की अपेक्षा गिरधारीला प्रातः मु में दातुन और गोद में अढ़ाई बरस के बच्चे को लिये, बच्चे की माँ को पर हारने की सहूलियत देने के विचार से अमरनाथ अबू के यहाँ आकर पूज लेते खबर है ज

इसमें दोनों का ही नाम था गिरधारीलाल पवार पढ़ लेते। अमर- नाथ को विवाद में गिरधारीलाल को मात दे और अपनी नीतिकता प्रकट कर सकने का अवसर मिल जाता गिरधारीलाल, चाहे विचारों की उपता के कारण हो या अपनी परिस्थितियों के प्रति असन्तोष के कारण, चोर वामपक्षी ये अमरनाथ बाबू थे, की अहिंसात्मक नीति अर्थात् गांधीवाद के समर्थक। आये दिन की घटनाओं को ले इन दोनों में बहस चला करती यशोदा


के लिये यह केवल पति के मनोविनोद का साधन था। पति को उत्साह से ऊँचे स्वर में बोलते और हा-हा कर हँसते देख उसे संतोष होता था परन्तु उस दिन यह ध्यान से सुन रही थी डकैती और कल के अपराधी क्रान्तिकारी 1 अभियुक्त के पुलिस की हिरासत से भागकर प्राण बचा लेने की ख़बर से अमरनाथ भी प्रसन्न थे। मागने के प्रयन में गोली खाकर मारे जानेवाले क्रान्ति- कारी से उन्हें सहानुभूति भी थी परन्तु गिरधारीलाल के इस ताने को 'यह है सी राह, और सब तो केवल पासवड और बेईमानी है' वे सह न सके।

पचीस बरस में इन क्रान्तिकारियों ने

बहस में गरम हो उन्होंने कहा कर ही क्या लिया जो जागृति देश में गांधी जी ने दस वर्ष में फैलादी, उसे यह क्रान्तिकारी एक सदी में भी फैला नहीं सकते थे। सरकार के मुकाबले में इनके दस-पाँच बम और पिस्तोल कर हो क्या सकते हैं.अरे हाँ, जिस सरकार की शख-शक्ति का अन्त नहीं, इन फुलझड़ियों से उसका क्या बिगड़ सकता है ? पतंगों की तरह जल मरना हो तो दूसरी बात है।'

उदय को नहलाते और कपड़े पहनाते यशोदा यह सब सुन रही थी। अखबार की सबर का प्रभाव उदय पर भी कम न हुआ था। बार बार हाथ की लकड़ी पटक कर कह रहा था—'भावी, मैं बन्दूक लेकर जाऊँ था। कभी वह भागे हुये डाकू को पकड़ने जाना चाहता, कभी डाकू का पीछा करने बालों से लड़ने। यशोदा उसे समझा रही थी अच्छा जाना, कपड़े तो पहन ले। बहस को ध्यान से सुन सकने के लिये वह बच्चे को चुपकरा देना चाहती थी परन्तु वह सुनता न था, पति की बात का कोई समुचित उत्तर गिरधारीलाल को दे सकते न देख उसे भा मालूम न हुआ। कुछ सीन कर गिरधारीलाल ने कहा- 'तो तुम कांग्रेसियों का तीन मास जेल काट शहादत की माला पहिर लेना इन लोगों के फाँसी चढ़ जाने से भी बड़ी हिम्मत है !'

यशोदा के कान उधर ही थे, सुन कर कुछ सन्तोष हुआ। अमरनाथ इस ताने पर हँस न सके, न अभ्यास के अनुसार ऊंचे स्वर में उत्तर ही दे सके। परन्तु पराजय स्वीकार कर लेना भी उनके लिये कठिन था। अपने आपको रोकने में असमर्थ था, उन्होंने कह दिया- 'हिम्मत तो चोर बाकुओं में भी कम नहीं होता !"

माये पर हाथ मार विस्मय प्रकट कर आप इन लोगों को चोर डाकू समझते हैं श्राचुके थे बोले- यह हमने कब कहा

गिरधारीलाल बोले- 'धन्य है, इस बीच में अमरनाथ आपे में लेकिन इस बात से तो आप इन-

कार नहीं कर सकते कि इन लोगों के काम कांग्रेस के सत्याग्रह आन्दोलन की


राह में स्कावट डालते हैं। गांधी जी कई द कह चुके हैं कि एक दफे उन्हें पूर्ण अवसर दिया जाय। क्या यह लोग देश के उन सब बड़े-बड़े नेता से भी अधिक बुद्धिमान है— इसी प्रकार ह

रही।

गिरधारीलाल चिढ़कर उत्तर देने से बचने के लिये कुचली हुई दातुन मुंह में डाल मधे को गोद में ले चलने का उपक्रम करने लगे अपनी लहान- भूति उनके प्रति प्रकट करने के लिये मशोदा ने खिड़की से पुकार कर कहा- "भइया ठहरो, लल्लू को उदव के साथ दूध पी लेने दो, जरा यहीं खेलेगा। तुम भी नाश्ता करके जाना

स्नान से पहले नाश्ता करने के निमंत्रण का व्यवहारिक धर्म कुछ ना परन्तु इससे गिरधारीलाल के सर्क में निश्तर हो जाने का मलाल मिट गया। यशोदा बातूनी अधिक नहीं है परन्तु स्वभाव की अच्छी है, यह सभी जानते हैं। अमरनाथ भी अपनी कठोरता से परहे थे। मशोदा की इस मौके की

सेहो उन्होंने भी समर्थन कियाहाँ गिरधारी, खाज नाश्ता नहीं कर लो न !' चे को गोद में लेते हुए दाउन से मरे मुख से विकृत स्वर में गिरधारीवाल ने के इस संकेत को स्वीकार करते हुए कहा- दौडेर हो और चले गये। स्नान के पश्चात बाहर आने के कपड़े पहन जिस समय अमरनाथ यह सोच रहे थे कि किस परिचित के जरिये बीमे के किस नए अवामी से उन्हें मिलना है, नाश्ते की तस्करी उनके सामने रखते हुए यशोदा ने प्यार के उलाहने से कहा- तुम भी क्या," मारिको डाँट दिया करते हो !'

विजय- गौरव से पक्षी की ओर उठा अमरनाथ ने उत्तर दिया- यह गधा भी तो कान्तिकारी बनता है।' यशोदा का मन चाह रहा था, पूछे- तुम्हें इन क्रान्तिकारियों से कोई सहानुभूति नहीं है परन्तु ऐसी नई बात, जो उसने कभी नहीं पूछी और जिसकी तह में रात का इतना का रहस्य दिव 4 उसके मोठों तक आकर ही रह गई। बीपीले पति की ओर उठा कर उसने कहा- विचारा जान बचा कर भाग गया है पकड़ा जायगा हो उसका क्या होगा

दूध का गिलास समाप्त कर हाथ पोछते हुए अमरनाथ ने उत्तर दिया- यह लोग एक द माग गये तो पकड़े नहीं जाते। इनके बड़े-बड़े म है। जाने कैसे लानों और किम जंगलों में यह लोग रहते हैं

यशोदा संतोष की साँस ले चुप हो गई। उसके पति से अधिक प्रामा णिक बात और कौन कह सकता था। उसके पति के निकट वह क्रान्तिकारी बहुत भला न सही परन्तु उसकी जान तो सुरक्षित है।

यशोदा नित्य अनवार पढ़ने लगी। जिस समाचार को जानने के लिये वह विशेष उत्सुक भी उसे न पाने पर भी वह कितनी ही दूसरी बातें पढ़ चालती। पढ़ने का उसका अभ्यास विवाह के बाद से प्रायः छूट चुका था। सास कभी उससे भगवद्गीता या कोई दूसरी पुस्तक पढ़ाकर सुनतीं परन्तु बहुत कम । घर का काम ही कभी समाप्त न होता श्रार्यपुत्री पाठशाला से मिडिल पास कर लेने के बाद उसकी पढ़ाई का उपयोग रह गया था केवल मायके से ये पत्र पढ़ उत्तर लिख देना, या कभी कोई उपन्यास प्रेमचन्द या शत बाबू का मिल जाय तो पढ़ डालना पढ़ने के प्रति या अक्षरों के झरोखे की राह विस्तृत संसार से परिचय बनाये रखने के लिये कोई व्ययता उसके मन में न थी। मानो वह दिल बहलावे का एक काम है, जिसे फालतू समय मिलने पर कर लेने में कोई हर्ज नहीं उसका संसार परिमित था, अमरनाथ बाबू के शरीर और उनके घर की व्यवस्था बनाये रखने में अपने जन्म के बाद से ।

उदय उसकी चिन्ता और विचार का केन्द्र बन गया। हिन्दुस्तानी स्त्री का जीवन इससे परे और है ही क्या है परन्तु इधर अखबार रोज़ पढ़ना शुरू करने पर यह भी एक आवश्यक चीन जान पड़ने लगी। अपने चारों ओर के संसार से वह एक सम्बन्ध अनुभव करने लगी।

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उस घटना को प्रायः एक मास बीत चुका था।

तीसरे पहर एक जवान लड़की उसके पर पहुँची। यशोदा स्वयम् भी पुराने ढंग की स्त्री न थी परन्तु यह लड़की भी बिलकुल ही नये ढंग की। पहले ही दर्शन में उसके प्रति यशोदा को कौतूहल और आकर्षण दोनों अनुभव

1

हुए लड़की की साड़ी लहर की थी परन्तु पहनावा बिलकुल नये ढंग का जम्पर की बातें कन्धे पर ही समाप्त हो गयीं थीं। हाथ में एक बड़ा-सा बटुवा था जैसा दोपियन स्त्रियाँ रखती है। धारम्भ में दो एक बात करने के बाद लड़की ने पूछा- 'आप कांग्रेस की मेम्बर हैं '

यशोदा ने इनकार से सिर हिला कर कहा

हैं।'

'वाह! आप क्यों कांग्रेस की मेम्बर नहीं बनतीं ? क्या सब काम करने का ठेका पुरुषों ने ही ले रखा है ? देखिये, आप जैसी पढ़ी-लिखी त्रियों को हो


तो कुछ करना ही चाहिये ! कहते हुए लड़की ने अपने बटुए से रसीद की कापी निकाली और उसके साथ ही दूसरी दो पुस्तकें रसीद की कापी खोलते हुए उसने कहा की मेम्बर आप अरूर बनिये!' यशोदाजी सिम सि में काम करती है, उस और समाओं में जाती है। उनसे उसका कुछ परिचय न था कभी परिचय की कोई आवश्यकता मी अनुभव नहीं हुई। इनके प्रति एक सहानुभूति मन में लिये यह चुप थी। सामने ही दोनों पुस्तकों की और उसने देखा एक पुस्तक थी 'संसार की स्त्रियों' और दूसरी 'चन्दा जीवन यशोदा ने कहा—पर के नाम से ही फुर्सत नहीं मिलती

कुछ उग्रता से लड़की ने उत्तर दिया— बाद आप पर में ही कैद रहेंगी तो पुर्तत मिलेगी कहाँ से ? चूल्हे-चौके और क्यों के सिया अपनी भी तो कोई जिन्दगी होनी चाहिये लड़की की बातें और उसकी समीपता यशोदा को भी मालूम हो रही थी। बिना खाना-कानी किये ही चली दे उसने मेम्बरी की रसीद ले लो यशोदा को चुप देख लड़की ने कहा- बिलकुल पर में ही क्यों बन्द रहती है जरा मिला जुला कीजिये। जियो में कुछ काम कीजिये। आज सोमवार हे गुरुवार को आपको संत होगी उस दिन आप हमारे पर आइये। कुछ स्त्रियों से आपका परिचय हो जायगा । ...इसी समय में आपको ले जाऊँगी |

किसी के यहाँ आने-जाने का प्रश्न लियों के लिये पुरुषों के समान सर नहीं होता। इस विषय में वे काफी जिम्मेवारी अनुभव करती है। इस अपरि- चित जवान लड़की के निमंत्रण की बात से यशोदा ध्यान पूर्वक उसकी और देखने लगी। उसके साफ़ गंदगी, कुछ लम्बे चेहरे पर कौमार्य की कोमलता और अनुभवहीनता मौजूद थी परन्तु उसके हावभाव और बोलने के ढंग में एक आत्मीयता सूचक धाग्रह था उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में आत्मविश्वास भलक रहा था। उसके रूप में तड़प पैदा कर देने वाला सोन्दर्य नहीं परन्तु स्मृति में स्थिर रह जाने वाला आकर्षण था निस्संकोच कार्य कहाँ निर्भय और कहाँ निता हो जाता है, इसे पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक समी हैं। पुरुष पामः तर्क करता है परन्तु श्री अनुभूति द्वारा परिणाम पर पहुँच जाती है। यशोदा को कुछ पूछने की आवश्यकता अनुभव न हुई की ने स्वयं ही अपना परिचय दिया :-

मेरा नाम शैवाला है। हमारा मकान निवत रोड पर है। में एम० ए०

में पढ़ती हूँ। पिता जी का नाम शायद आपने सुना होगा—साला प्यानचन्द जी! मैं चाहती हूँ हम स्त्रियाँ भी कुछ करें। दोनों पुस्तकों की ओर संकेत कर उसने पूछा- ' आप इन्हें पढ़ेंगी


यशोदा के सिर झुकाकर अनुमति प्रकट करने पर शैलवाला अपना बहुधा संभाल चलने को तैयार हुई जैसे वह अपना काम समाप्त कर चुकी काम-कामी आदमी की तरह उसे चलना चाहिये।

उस आधे घण्टे में मुख से बिना विशेष कुछ करे ही यशोदा को उस जवान लड़की के प्रति एक आत्मीयता अनुभव होने लगी। मानो मायके की | कोई पुरानी सहेली, जिसकी वह चिरकाल से प्रतीक्षा कर रही थी, मिल गई हो। शैलपाला को हाथ से पकड़ यशोदा ऊपर हो गई और बड़े आग्रह से कुछ खाने के लिये अनुरोध किया ।


यशोदा शैलबाला को नीचे दरवाजे तक छोड़ने के लिये गई। उसी समय अमरनाथ बाबू बाहर से लौट श्राये शैलवाला के स्वयम् मोटर चला कर चले जाने तक यशोदा ममता से उसी की ओर देखती रही। उसके चले जाने पर, अमरनाथ ने पूछा—'यह यहाँ कैसे ?'

'शैल है!' यशोदा ने उत्तर दिया मानो शैलयाला का उसका यहाँ खाना नई बात न थी, पति ने उसे पहचाना क्यों नहीं अमरनाथ ने फिर भी कहा-'हाँ, पर तुम उसे कैसे जानती हो ?'

संतोष के भाव से सिर का आँचल सँभालते हुए यशोदा ने कहा-'बड़ी भक्षी है, ऊपर चलो न !' यशोदा ऊपर चली गई।

उन दोनों पुस्तकों की यशोदा ने एकान्त में विशेष ध्यान से पढ़ा। पति से उनके बारे में उसने कोई ज़िक नहीं किया। पति से छिपाकर कुछ करने का विचार न था, केवल यह समझ कर कि यह उसकी अपनी ही बात है; पैसे ही जैसे नारी जीवन की दिनचर्या में अनेक बातें ऐसी रहती हैं, जिनका पति या दूसरे पुरुषों से कोई सम्बन्ध नहीं रहता।

इन पुस्तकों को पढ़ एक नई भावना उसके मन में उठने लगा। कुछ करने की एक इच्छा और उत्साह मन में अनुभव होने लगा परन्तु उसके लिये मार्ग न या बोलती वह पहले भी बहुत कम थी। सिलाई बुनाई या घर का कोई काम-काज करते समय यदि वह कमी कुछ सोचती तो घर के शिथिल बोझ की बाबत ही अब उसकी अनुभूति दूसरी थी उस बोझ की भूत भूल, यह गति का आकर्षण अनुभव करने लगी। उसकी दृष्टि अब अमरनाथ बाबू,


बाबू, उदय, रसोई और असमय को कोठरी में ही सीमित न रही। उसे दिखाई देने लगा पर की चारदिवारी के बाहर भी एक संसार है, जहाँ शैल रहती है। वहाँ कितने ही जरूरी काम है। व्यग्रता से वह लाल की प्रतीक्षा कर रही थी। वहीं उसकी एक मात्र अंतरंग थी, जो उसकी बात जानती थी। और उसके अप्रकट जीवन में गहरी छाया में था वह युवक अंधेरी कोठरी में रात बिता, नौकर के कपड़े पहन, खाली कनस्तर बनाते हुए सड़क पर चला जाने वाला।

शुक्रवार के दिन जब शैलवाला उसे अपने साथ गाड़ी में बैठा खुद गाड़ी चलाती हुई अपने घर ले जा रही थी, यशोदा को अनुभव हुआ वह नये संसार की ओर जा रही है; जैसे विवाह के बाद सुसराल के लिये विदा होते समय हुआ था। उस समय पटना और अवसर की तीव्रता से उसकी संशा और चेतना बहुत कुछ जहां गई थी, आज वह पर्याप्त सचेत थी। संतोष का एक शिथिल रोमांच उसे अनुभव हो रहा था। वह एक सूक्ष्म जगत की ओर जा रही ती शेतमाला के मकान पर पहुँच कर भी मकान के आकार और ठाठ-बाट की और उसकी दृष्टि न गईं। यह देख रही थी केवल शैलवाला की निःसंकोच स्फूर्ति को ड्राइङ्गरूम में एक नौजवान प्रतीक्षा कर रहा था। शैलयाला ने दोनो पुस्तकें यशोदा से ले उस नौजवान को दे दी और नौजवान को कमरे के एक कोने की ओर ले जा धीमे स्वर में कुछ कह दिया और फिर यशोदा को सम्बोधन कर भीतर के दरवाजे की ओर चलने के लिये कहा। एक बरामदे से होकर वह उसे भीतर दूसरे कमरे के राई । यहाँ आराम कुर्सी पर बैठा दूसरा नौजवान, सामने एक छोटी तिपाईं पर बहुत से कागज़ रख, जल्दी-जल्दी कुछ लिख रहा था। इन लोगों के पैरों की आहट पा अपना कलम रोक उसने

तो दृष्टि से दरवाजे को धार देखा और सहसा मुंह का सिगरेट हाथ में ले 'खड़े हो, उसने कहा- 'झाइये समीप की दूसरी आराम कुर्सी को खींच उसने यशोदा को बैठने के लिये संकेत किया।

कभी किसी पर पुरुष के समीप मां बैठने का अवसर यशोदा के लिये नहीं आया था परन्तु उस ओर यशोदा का ध्यान न गया। वह विस्मय से देख रही थी क्या वही नहीं

यशोदा पहचान न सकी परन्तु सन्देह था। उसके सिर पर केश ये श्रीर चेहरे पर हलकी दादी मूँछ यह नौजवान बिलकुल साहब वह कालर कटाई से दुरुस्त था। यशोदा की और ध्यान न दे शैलबाला के कंधे पर हाथ

रख युवक ने कहा- 'सुनो।' और उसे बाहर बरामदे में ले जा, धाचे मिनिट बाद वह लौट आया। अब की दफ्रे तिपाई पर बिखरे हुए कागज़ों को समेटते हुए मुस्करा कर विनीत स्वर में युवक ने पूछा- आप कैसी है?

यशोदा को सन्देह न रहा। संतोष का निश्वास ले उसने उत्तर में प्रश्न किया- 'अब तो कोई डर नहीं न १

'डर तो सदा ही है जब भय को स्वयम् निमन्त्रण देते हैं तो फिर उचकी शिकायत क्या...हाँ, पर उस रात जैसा नहीं। यह डर नहीं.... वह तो मीत थी आपने शरण दे बचा लिया ।' युवक ने मुस्कराकर उत्तर दिया। यशोदा का हृदय उसकी बात से पिघल गया। उस रात का दृश्य उसकी स्मृति में जाग गया। वह चुपचाप फर्श की ओर देखती रही।

.

युवक ने फिर पूछा उस रोज़ की बात आपने घर में कही थी ?'

यशोदा के सिर हिला इनकार कर देने पर उसने कहा- 'जरूरत भी क्या

है, न कहिये। पति परमेश्वर जरूर है परन्तु और भी बीसियों परमेश्वर हैं। प्रत्येक को अपने-अपने स्थान पर रहने देना ही ठीक है। यहाँ शैल या किसी दूसरे व्यक्ति को यह मालूम नहीं कि उस रात मैंने आपके यहाँ शरण ली थी। बताने की ज़रूरत भी नहीं आपका नाम या पता भी केवल शैल ही जानती है। आज आप को अपनी इच्छा से मैंने यहाँ बुला भेजा है। आगे आपकी इच्छा पर निर्भर रहेगा। हमें आप की सहायता की जरूरत है परन्तु हम ज़बरदस्ती नहीं कर सकते। आपके प्रति अपनी वैयक्तिक कृशता और अद्धा के कारण ही आपको इस संकट में; या कहिये, सम्मान में घसीटने का मोह मुझे होता है । यह आवश्यक नहीं विद्वा' भी हम लोगों की तरह नम और पिस्तोल बाँधे फिरें और मिनिटों में छिप छिपकर अपना जीवन बितायें। हम लोग तो ख़ास परिस्थितियों की वजह से इस प्रकार रहने के लिये मजबूर हैं। आप शैल के साथ काम कीजिये । वह अभी लड़की है। यदि आप काम सँभालें, हमें अधिक सहायता मिल सकती है। मुझे यहाँ सब लोग हरीश कहते हैं।' दरवाज़े की ओर देखकर हरीश ने पुकारा-'शैल !'

शैल भीतर से पुकार आने की प्रतीक्षा में ही थी। ऊँची एड़ी के जूते की खट-खट सुनाई दी और शेल मुस्कराती हुई भीतर आ गई बैठने के लिये तीसरी 1 कुर्सी न थी। शैल बिना किसी संकोच के हरीश की कुर्सी की बाँह पर बैठने के प्रयत्न में फिसल कर हरीश की गोद में जा पहुँची। उत्तमन के स्वर में हरीश ने कहा- 'क्या जानवर हो' और तिपाई की ओर संकेत कर कहा 'वहाँ बैठी?'


'हमारे लिये तो कहीं जगह नहीं ।' रोल ने उपालम्भ से कहा और उठकर तिपाई पर जा बैठी । इस असाधारण व्यवहार से, जिसे साधारणतः अभद्रता कहा सकता था, न जाने क्यों यशोदा को पृथा न हुई। वह केवल मुस्करा कर रह गई, मानो वह केवल निर्दोष परिहास मात्र था।

हरीश यशोदा को सम्बोधन कर बोला तो आप सब कुछ समझ गई हैं। 'बन्दी जीवन' आपने पढ़ा है। वे पिछली बातें है परन्तु वे ही बातें आज नये रूप में मौजूद हैं। व्यक्ति, जाति या देश के रूप में हम जीवित रहना चाहते हैं। उसके लिये सबसे पहले ज़रूरत है इस अधिकार की कि जीवन निर्वाह के साधनों पर हमें अधिकार हो। अपनी शक्ति के उपयोग और विकास का हमें अवसर हो तभी हम मनुष्य की तरह जीवन बिता सकते हैं। यह अधिकार और अवसर आज दिन हमें नहीं है न व्यक्तिगत तौर से न देश की मा के रूप में अपने चारा और जनता के जीवन में जो संकट हम प्रतिदिन देखते हैं, उनका कारण है—अवसर न मिजने के कारण हमारो शक्ति और योग्यता किसी काम नहीं आ पाती । जब किसी राष्ट्र का शोषण दूसरे राष्ट्र के लिये किया जा रहा हो तो उस देश की प्रजा के लिये अवसर कहाँ से हो हम लाग जावित है जानवरा की तरह, जिनके जीवन का व्यवहार दूसरे के उपयाग के लिये होता है। इसी अवस्था का हमें दूर करना है। यदि यह चेतना देश भर में फैला सकें तभी हमारा उद्देश्य सफल हो सकता है। ऐसे आदमी चाहे जहाँ हां, कांग्रेस में या दूसरी जगह, वे सब हमारी श्रृंखला होगे।"

पर मैया, दादा और बी० एम० तो कहते हैं, कांग्रेस निरो चाहती है। इमें इस प्रकार के लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। उससे मेद खुल कर सिवा संकट के और लाभ नहीं शेल ने ठोड़ी पर हाथ टेक कर पूछा।

दादा या बी० एम० क्या कहते हैं, यह मुझे मालूम है, परन्तु मेरो या तुम्हारी खोपड़ी में भी तो दिमाग है। हाथ में पिस्तौल धागया है, इसलिये किसी न किसी को मारना हो चाहिये १ उससे बनता क्या है 'श्रीम कर हरीश ने उत्तर दिया।

शैल फिर बोली- श्री० एम० कहते हैं, तुम्हारे तरीकों से जनता की प्रवृत्ति पार्टी के काम की और न होकर काग्रेस के व्यर्थ दिलायी आन्दोलन की ओर हो जाती है।

कांग्रेस का अन्दोलन व्यर्थ हो रहा है परन्तु जनता को उसे व्यर्थ नहीं बनाना चाहती, न उसे वह व्यर्थ समझती है। यह तो हमारा दुर्भाग्य है कि

उसका नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया है, तुम्हीं बताओ हरीश ने आगे बढ़कर पूछा- गुप्त पार्टी बना अपनी शक्ति को दस पाँच आदमियों मैं संकुचित कर देने से हम क्या कर सकेंगे ' '

शैल ने कंधे पर साड़ी का आँचल खींचते हुए कहा- 'तुम कहते हो अपना क्षेत्र बढ़ाओ। वे लोग कहते हैं, लोगों से मिलो-जुलो मत ! बर्ना हमारे काम के न रहोगे ।"

हरीश कुछ उत्तर न दे दीवार की ओर देखता हुआ सोचने लगा। यशोदा कभी शैल की ओर और कभी हरीश की ओर देखती। वह इस बहस को समझने की चेष्टा कर रही थी। हरीश की ओर देख रोल ने पूछा- 'चाय लाऊँ, कुछ साओगे मी १' - सिर ऊपर उठाये बिना ही हरीश ने कहा- 'हूँ, जरूर।'

शैल के कमरे के बाहर चले जाने पर हरीश ने यशोदा की ओर देख कर कहा- 'यह काम ही ऐसा है। इसमें सभी का मोह छोड़ना पड़ता है। सगे सम्बन्धियों की तो बात क्या अपने साथियों तक का मोह छोड़ना पड़ेगा।' और फिर प्रसंग बदलने के लिये मुस्कराकर उसने कहा है तो मामूली सी यात; परन्तु मैं कह आया था न आपसे कि आपकी चीजें लौटा दूँगा । वे कपड़े तो जाने कहाँ गये, परन्तु आप के यह रूपये उसने अठारह रुपये निकाल यशोदा के सामने रख दिये। यशोदा को लामा से झाँले भुकाते देख उसने कहा- न सही, लेकिन आप हमारा काम तो करेंगी न १ वर्ना मैं आप के कर्जे के बोझ को लिये ही मर जाऊँगा !-यशोदा को स्वयम् कुछ न बोलते देख उसने कहा-आप खियों में अपना क्षेत्र बनाइये । जो चीज़ स्त्रियों में घर कर जाती है, उसे कोई शक्ति उखाड़ नहीं सकती ।' शैलचाला एक बड़ौसी में चाय और खाने का सामान लिये लौट आई। ट्रे को तिपाईं पर रख यह हरीश के पैरों के समीप नगदे पर ही बैठ गई। अपनी कुर्सी पर सरकते हुए यशोदा ने कहा 'यहाँ आइये न ।' मुख से कुछ न कह शैल ने हाथ के संकेत से उसे ऐसा करने से रोका, कि वह बहुत मज़ में है।

शैलपाला को प्यालों में चाय डालते और डेलते देख मशोदा ने कहा- 'अच्छा मुझे आश दीजिये !'

हरीश ने पूछा- 'क्या एक प्याला चाय मी न पीजियेगा ?' उसकी ओर देख शैल बोली शायद आप इन सब चीजों से परहेज करती हैं ?'डोककर हरीश ने कहा तो इनके लिये अलग से चाय मँगवा

दी न !' यशोदा वास्तव में ही उन वस्तुओं से परहेज़ करती थी परन्तु उसके लिये अलग से चाय मँगवाने का अर्थ था, वह उन लोगों से मित्र है।


मित्रता का यह भाव उसे अच्छा न लगा। उसने उत्तर दिया- नहीं अलग में लाने की कोई जरूरत नहीं। चाय में यीं भी नहीं पीती और अच्छा हो "यदि मैं चलूँ !"

हरीश ने रोल को आदेश दिया—'जाओ इन्हें छोड़ आओ.

चाय का प्याला ओोठों से लगाते हुए शेल बोली वाश्वर न छोड़ आयेगा

सिर हिला इनकार करते हुए हरीश ने कहा-नहीं, तुम स्वयम् जाओ। मैं मी एक पराठे तक यहीं हूँ ।" रोल यशोदा को पर पहुँचा खाने के लिये उठ खड़ी हुई।

यशोदा सोच रही थी, यह अभिमानिनी और सतेज लड़की किस प्रकार उस नौजवान की आशा पर नाचती है और सम्भव है, फल उसे भी इसी प्रकार उसके हुकुम पर दौड़ना पड़े।

यशोदा को घर छोड़ जिस समय शैलबाला लौटी, हरीश अपने चेहरे को दोनों हाथों में थाने चिंता मग्न बैठा था। उसे देख उसने कहा-शैल में जा रहा हूँ।

'कहाँ कहीं बाहर

यही बी० एम० की चिड़ी जो तुमने मुझे दी है मुझे जाना होगा।' -शैल की ओर देख उसने उत्तर दिया।

'परन्तु सफर करना तुम्हारे लिये कितना खतरनाक है यदि वे लोग तुम से मिलना चाहते हैं सोने ही यहाँ क्यों नहीं आ जाते ! क्या उनकी जान तुमसे भी अधिक खतरे में है ?' उसके कगठ की आरती बढ़ती जा रही थी तो कहती हूँ तुम न जाओ!' साड़ी की खंड से धागे खींचते हुए उसने कहा ।

आश्चर्य से उसकी और देख हरीश ने पूछा- कह रही हो पार्टी की धान मानू दादा ने बुलाया है ' शैल अनुभव कर रही थी पार्टी के मेयर के नाते जितनी चिन्ता उसे हरीश की करनी चाहिये, उससे अधिक उसके शब्दों से प्रकट हो रही है। मानो साधारण औचित्य की सीमा यह लॉंच गई और अब भी, जितना वह चाहती थी, कह नहीं पाई साड़ी के छोर से यह उसी प्रकार धागे खींचती रही हो काटकर उसने कहा- "कोई गलत आशा दे दे तो फिर हो सकता है छाया दादा की न हो।' कुछ कर उसने कहा- पी० एम० की माठों से मुझे संदेह होता है।


मैं कहना नहीं चाहती थी लेकिन वह तुम्हारी बात कह रहा था तुम यहाँ क्यों टिके हुए हो तुमसे मिलने से भी उसने मुझे मना किया था। मैंने कहा-मेरे लिये तो सब एक हैं।'''''''मुझे उसका व्यवहार ठीक नहीं मालूम हुआ.......मेरा ख्याल है, यह तुमसे ईप करता है। कह रहा था--- हरीश का काम अब केवल सिगरेट पीना, लम्बी-लम्बी बातें करना और लड़कियां की पार्टी बनाना रह गया है।

दाँत से अँगूठा काटते हुए हरीश कुछ देर सिर झुकाये रहा। फिर उसने पूछा 'तुम्हें उसका क्या व्यवहार ठीक नहीं लगा १ सिर झुका रोल ने उत्तर दिया- 'ऐसे ही" ऐसे ही क्या........ 'बोलती क्यों नहीं ?' 'तुम तो काटने को आते हो"

चाहते हैं, स्त्री को निगल जायें ।'

भलाकर हरीश ने पूछा।

"अब लास क्या बताऊँ पुरुष तो

क्या मैं भी यही चाहता हूँ -इरीश ने

पूछते हो

निकालकर पूछा ।

'अपनी बाबत तुम स्वयं नहीं जानते, क्या चाहते हो मुझसे क्यों उसकी आँखों में मुस्कराहट से देखते हुए शैल ने उत्तर दिया। लेकिन बी० एम० से तुम्हारा परिचय पुराना है यदि तुम्हारे यहाँ मेरे होता है, मैं न खाऊँगा। सिर छिपाने को कोई दूसरी जगह

आने से मिल जायगी

.

हरीश चुप-चाप सोचने लगा ।

गम्भीर हो रोल ने कहा 'क्या मुझे बी० एम० की आशा अनुसार हो चलना चाहिये स्वयं मेरी अपनी समझ कुछ नहीं

"यह तुम किस संकट में पड़ रही हो शेल ? 'इरीश ने ज्ञान् स्वर में तुम्हारा लड़की होना ही सब संकट का कारण है और तुम्हारे विवाद की बात चल रही थी, उसका क्या हुआ.

पूछा

'तुम सोचते हो इसका विवाह हो जाय और संकट कट जाय ।' शैल ने उपालम्भ के स्वर में कहा । परन्तु अपनी बात से स्वयम् ही संकुचित हो मात बदलने के लिये बोली-'तुम्हारा भी समाल हैन, स्त्री को किसी न किसी व्यक्ति की सम्पत्ति बन ही जाना चाहिये और पुरुष उदारता से एक दूसरे को अपनी-अपनी सम्पति की स्त्री पर पूर्ण अधिकार भोगने का अवसर देते रहें! बी० एम० मी तो मुझे यही सुनाता है— हो रहो किसी के या कर लो किसी को अपना तुम्हीं बताओ, किसी की हो रहने या किसी को अपना बना लेने का मतलब क्या ? किसी को अपना बना लेने का मतलब भी तो किसी की हो


जाना ही है। वहाँ खो का अपना कुछ शेप नहीं रह जाता। यदि श्री को किसी न किसी की बनकर ही रहना है तो उसकी स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या हुआ स्वतंत्रता शायद इसी बात की है कि स्त्री एक बार अपना मालिक सुन ले परन्तु गुलाम उसे जरूर बनना है।'

कुर्सी पर करवट लेते हुये हरीश ने पूछा—'क्यों, पति का अर्थ मालिक न होकर साथी भी तो हो सकता है ?'

'खाऊ हो सकता है। जब स्त्री को एक आदमी से बंध जाना है और सामाजिक अवस्थाओं के अनुसार उसके आधीन रहना है, उस पर निर्भर करना है; उस सम्बन्ध को चाहे जो नाम दिया जाय, वह है खी की गुलामो

ही अच्छा साथी तो एक व्यक्ति के कई हो सकते हैं

"

होना तुम्हें सहन हो सकता है ? –शैल ने पूछा।

के कई पति

हरीश ने उसकर उत्तर दिया- 'मुझे तो सहन करना नहीं, जिसे सहन

करना हो, यही कि करे !'


पुरुष कभी स्त्री के दृष्टिकोण

मुंह बनाकर शैल बोली यही तो बात है से समस्या को देख नहीं सकता स्त्री की सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि उसे सन्तान पैदा करनी है। इसलिये पुरुष ज़मीन के टुकड़े की तरह उस पर मिल्कीयत जमाने के लिये व्याकुल रहता है।'

उसे और अधिक सिमाने के लिये उपेक्षा से हरीश ने कहा- 'जिसे अपने वंश की परम्परा बनाने की चिन्ता हो, इन झगड़ों में पड़े। यारों को तो इन सब बातों से छुट्टी है।

सन्तान और वंश रक्षा के इलावा और भी बहुत कुछ जीवन में है'- शैलवासा ने दूसरी ओर मुख फिराकर कहा।

.

हरीश ने बिना किसके उत्तर दिया- 'परन्तु यह तो स्त्री पुरुष दोनों के लिये समान है।'

'है तो, परन्तु श्री मयत को तो तुरन्त सा जो मिल जाती है।'- कहने को शैल सहसा कह गई परन्तु संस्कार के संकोच ने उसे आ दयाया । उस और से हरीश का ध्यान बदलने के लिये तुरन्त ही उसने पूछा-'अभी तो तुम्हें आने में देर है न ?'

"है तो, परन्तु यहाँ ऐसे मैं कितनी देर उतार सकता हूँ? तुम्हारे घर के लोग ही क्या कहेंगे वो तो मुझे रात में दो बजे की गाड़ी पकड़नी है- अनिच्छा से उठने की तैयारी करते हुये हरीश ने कहा ।

अपनी कलाई को पड़ी की धोर देव, शैल बोली- अमीत साढ़े चा बज रहे हैं। दो बजे रात तक इस सदीं में कहाँ मटकते फिरोगे;" "यह ठीक नहीं चलो तुम खाना खालो, फिर तुम्हे दरवाजे तक छोड़ भाऊँगी। पिता जी से नमस्ते कहते जाना। इधर मैं गैराज (मोटरसाने का दरवाजा लाल दूँगी। तुम उधर से ऊपर ना जाना गाड़ी के समय तुम जा सकते हो।'

हरीश विस्मय से उसको देखने लगा। सिर झुकाकर शेल ने कहा “तुम अपनी अवस्था नहीं समझते कदम-कदम पर तुम्हारे लिये कितना मय है ' 'और तुम्हारे लिये नहीं हरीश ने पूछा।

मेरा क्या है; बहुत होगा, दो बातें और सुन लूँगी। जहाँ इतना सुनती हूँ, वहाँ थोड़ा और सही। आओ उठी, खाने के कमरे में आओ, वहाँ पिता जी के सिया इस समय और कोई न होगा। क्या है, एक द फिर इंजीनियर बन जाना। या है तुम्हारी उस फर्म का नाम जिरेमी एण्ड जोन्सन .....जानते हो उस रोज़ बुद्धा जी क्या कह रहीं थीं बड़ा शाल लड़का है। मैंने सोचा मालूम हो जाय कैसा सुशील है, तो अभी प्राण निकल 'रोल ने कहा।

हरीश हँस दिया तो मैं बुआजी को पसन्द हूँ बुधाजी मुझसे तुम्हारा विवाह कर देंगी क्यों ?'

'हाँ, ऐसे ही तुम सुन्दर हो न उठो, यहाँ छिपे बैठे हो। नौकर या दूसरे लोग क्या कहेंगे? शैल ने हरीश के कंधे पर बोझ देकर कहा ।

हरीश एक नई बात अपने शरीर और मस्तिष्क में अनुभव कर रहा था। एक बार क्रान्तिकारी का जीवन ग्रहण करने के बाद स्त्री को उसने अपने मार्ग से परे की वस्तु समभा था। इधर अनेक बार शैल के समीप आने पर उसने उसे भी युवती न समझ केवल पार्टी का सहायक सदस्य ही समझा था। जो केवल रूप वेश में उसके दूसरे साथियों से भिन्न है। परन्तु आज बार-बार उसका मन उसे सचेत कर रहा था यह युवती है, जीवन की मृदुता, सहृदयता और तुष्टि का मोत लिये तू क्या उसे नहीं पहचानता। उसका मन कह रहा था केवल क्रान्ति की मशीन ही नहीं, मनुष्य है। भोजन के कमरे में रोल के पिता मेज पर अकेले बैठे थे। कमरे में प्रवेश कर रोल पोली- 'पिता जी मि० शु चले जा रहे थे।' मैंने कहा- 'पिताजी से मिले बिना क्यों जा रहे हो हो ही गया है।'

?

खाना भी खा जाओो, समय ता


'आओ, आओ ?'---वातल्प और आदर से पिता ने पुकारा-'तुम तो उसी फर्म में हो न बो

जी हाँ, जिरेमी एण्ड जानसन !"

'तुम्हारी कंम्पनी के बैंकर कौन हैं; सेन्ट्रल बैंक १

'जी नहीं इम्पीरियल और लायन देशी बैंकों से यह कम्पनियाँ वास्ता कहाँ रखती हैं। अभी हमारी शाखायें इधर कम हैं। यू०पी० सी० पी० और बम्बई में ही हमारा काम अधिक है।

लाप्यानचन्द जी को प्रश्न का अवसर न देने के लिये हरीश स्वयम् ही सब कुछ कह गया। विलायती कम्पनियाँ किस प्रकार देश के व्यापार को समेटे जा रही है, इसी बात की चर्चा में भोजन समाप्त हो गया।

हरीश को दरवाजे से बाहर पहुॅचा रोल तुरन्त गैराज में गई। हरीश आ पहुँचा था कि मुमाजी ने अपने कमरे से रोल को किसी दवाई की गोलियां के लिये पुकार लिया। हरीश को वहीं चुपचाप मोटर में ही बैठ जाने का संकेत कर वह ऊपर चली गई। प्रायः बीस मिनट तक दे और उनसे बात कर अपने कमरे की बिजली हुन्छ नीली बत्ती जलाने के बाद, शनैः शनैः सीढ़ियाँ उतर कमरे में ले गई।

बुआजी को दवाई उसमें जीरो पावर की नह हरीश को अपने

कायदे से लगे पलंग की ओर संकेत कर उसने हरीश को लेट जाने लिये कहा और स्वयम् समीप ही सो कुर्सी पर बैठ गई। उसके समीप श्री हरीश ने कहा मैं तुम्हारी नींद खराब करने नहीं आया हूँ। तुम सो जाओ, मुझे तो जाना ही है, यदि सो गया और नींद न खुली

मैं जो जगती रहूंगी !शेल ने उत्तर दिया।

'तुम्हें जानने का अभ्यास कहाँ ?

तुम्हें क्या मालूम कितनी राते जागते मैंने इस कमरे में काटी है, उत टाइमपीस की ओर देख-देखकर

क्या प्रेम साधना में 'हो सकता है

"एक साधना का मार्ग इस ने देखा है, दूसरी का मैंने देखा हो ! उन बातों की याद न दिलाओ तुम लेटते क्यों नहीं

रोल के स्वर में ममता और अधिकार का पुट अनुभव कर हरीश ने

उसकी सोफा कुर्सी की बाँह पर बैठ कर पूछा- यहाँ तुम्हारे पास बैठ सकता हूँ ?' शैल ने एक और सिसक उसके लिये स्थान कर दिया।

1

कुछ देर दोनों चुप बैठे रहे, बिलकुल मौन परिधान की मेज़ (Dofessing Table) पर ही टाइमपीस की ओर देख हरीश ने पूछा- 'यही क्या बन्द है ।'

'नहीं तो वह चलती है परन्तु बोलती नहीं, स्त्रियों की तरह!' हॉट दबाकर रोल हँस दी।

हरीश ने सिर झुकाकर कुछ शंकित स्वर में कहा 'तुम्हारे ढंग से मालूम होता है, तुम दुख का कोई शहरा बोझ मन पर लिये हो उसी को छिपाने के लिये तुम सदा बाहर से हँसते रहने की कोशिश करती हो, बेपरवाही दिलाती हो, तुम्हारे व्यवहार में जो असाधारणता है, शायद उसी की बजाई से तुम्हारी इतनी आलोचना होती है। लोग समझते हैं, तुम समाज पर प्रहार करती हो परन्तु मुझे जान पड़ता है, तुम स्वयम् पीड़ित हो । विस्मय मुझे यह होता है कि तुम क्रान्ति के संकट को भी सिर पर लेती हो और भावुकता के संसार में प्रेम जगत के खप्न मी देखती हो। मेरी अपनी अवस्था तो तुम जानती हो, प्रेम और स्वप्न के संसार की रचना करना मेरे भाग्य में नहीं। परन्तु एक साथी के नाते यदि मैं तुम्हारे दुःख की अनुभूति को बँटाना चाहूँ इससे मैं तुम्हारा कुछ भला नहीं कर सकूंगा परन्तु तुमने मेरे लिये इतना कुछ किया है कि तुम्हारे बिलकुल निकट था तुम्हारे हृदय में झाँकने की प्रवृत्ति होती है। मेरा जीवन तुम जानती हो, बहुत संक्षिप्त सा होगा; लेकिन जीवन की चाह मेरे हृदय में भी है और शायद क्योंकि उसके लिये समय बहुत कम है-वह कभी-कभी अत्यन्त तीव्र और विकट रूप में उठकर रद्द जाती है। मेरे जीवन में तृप्ति केवल दूसरों की तृप्ति के अनुभव से हो सकती है। यही चीन अगर मैं तुमसे माँगें तो क्या बहुत अधिक होगा ? तुम जानती हो मेरा जीवन एक बन्द पात्र के समान है जिसे एक दिन, बन्द ही नदी में बहा दिया जायगा

बस रहने दो'रो ने टोककर कहा-'ऐसी बातें नहीं कहते। देखो, सर्दी अधिक है। तुम्हें कहीं कुछ हो जायगा तो और संकट होगा।" शैल की इस ममता ने हरीश के साहस को और बढ़ा दिया। आग्रह से उसने कहा- यह कि तुम रहने दो मुझे कुछ न होगा। तुम बात कहो ।' दली पर ठोड़ी रख शेल ने पूछा उससे लाभ या तो तुम मुझे

बेवकूफ समझोगे या धन्या करने लगोगे तुम्हारी सहानुभूति से भी मै हाम बैहूँगी।

'मेरी सहानुभूति का भी कुछ मूल्य है तुम्हारी दृष्टि में धुंधले प्रकाश में उसकी ओर देख हरीश ने पूछा “शो फिर जितना अधिक तुम्हें जाना ऊँगा, उतनी ही अधिक वह होगी।

'तुम्हें क्या लाभ होगा

जान पाना भी एक लाभ है। दूसरों के अनुभव जान लेना भी एक अनुभव है।'

'दूसरे लोग क्या अनुभव करते हैं, में नहीं जानती' रोल ने कहना आरम्भ किया परन्तु मेरे तो होश संभालने के दिन से ही जीवन में प्रेम रहा है और शायद जीवन रहते उससे छुटकारा भी न होगा जब छोटी थी, अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रेम करती थी। समझ आने पर प्रेम का क्षेत्र भी बढ़ा। अर्थात् प्रेम को अधिक देने और उससे अधिक पने की इच्छा होने खयी। जब वह पूरी नहीं हो पाती, निराश और फ्रेश होने लगता है। असफल हो मुँह के बल गिरने पर अपमानित होने पर मर जाने की इच्छा भी होने लगती है। कुछ व्यक्ति प्रेम निराश हो मर भी जाते हैं परन्तु मैं मर नहीं सकी। धागे के लिये सोचती हूँ, आशा को इतना ऊँचा उठाऊँगी ही नहीं कि गिरने पर मृत्यु का भय हो पर अपने को सेक्स पाती हूँ। हरीश की आस्तीन का बटन खींचती हुई शैवाला कह रही थी। उसे चुप होते देख श्रीश ने पूछा- यह तो भविष्य की बात है। मैं तो बीती पूछ रहा हूँ। उसकी बाँह पर हाथ रख उसकी आँखो में करोल ने पूछा- तुम क्यों पूछ रहे हो ? यह सब तो वे लोग पूछते हैं, जिन्हें यह निश्चय करना होता है कि मैं उनके योग्य हूँ या नहीं ? तुम्हारे सामने तो मुझे स्वीकार- अस्वीकार करने का सवाल है नहीं ।'

दबी मुस्कराहट से हरीश ने उत्तर दिया इसीलिये तो तुम मुझमे निस्संकोच कह सकती हो। अपनी आवश्यकता के अनुसार मुझे तुम्हारा मूल्य निश्चित नहीं करना, समाज के एक व्यक्ति के नाते तुम क्या हो, यही मैं देख सकता हूँ। तुम्हारे व्यक्तित्व के रूप में, जो देखने में खुशहाल है, समाज कितनी गुप्त यंत्रणा भोग रहा है, यह मैं जानना चाहता है। यदि मैं समाज की अवस्था जानना चाहता हूँ तो उसकी नज़ से या खुर्दबीन के सहारे तो

ऐसा कर नहीं सकता। समाज के अनुभव से ही हमें समाज का ज्ञान हो

सकता है। यह मेरा विशेष सौभाग्य है कि मुझे तुम्हारे इतने निकट श्राने का अवसर मिला है। यदि स्पष्ट रूप से कहूँ तो मुझे तुम्हारे सुख-दुख से एक सम्बन्ध अनुभव होता है। चुप क्यों हो, दस बज चुके है..... केवल चार घण्टे में यहाँ हूँ आशा नहीं, ऐसी आन्तरिकत अनुभव करने का समय हमारे जीवन में फिर कमी आयेगा। बोलो.......|

'अच्छा सुनो !' शैल ने कहा उस समय मेरी आयु बारह-तेरह बरस की रही होगी, मैं छठी-सातवीं श्रेणी में पढ़ती थी हमारे पड़ोस में एक लड़का रहता था, देखने में बहुत सुन्दर था। उसने एक पत्र लिख मुके स्कूल जाते समय दे दिया। ऐसे पत्र मिलने पर लड़कियाँ नारान हुआ करती हैं परन्तु मैं समझ न सकी। यदि मैं किसी की दृष्टि में मनी जँचती हूँ, कोई मुझे चाहता है तो उसे क्रोम क्यों दिखाऊँ उसने कई पत्र लिखे। उसके पत्र पढ़ने से सुख होता था। तुम्हीं बताओ चौदह-पन्द्रह बरस का लड़का क्या पत्र लिखेगा परन्तु उसके पत्र लिखने का अर्थ था, वह मुझे प्यार करता है, और परस्पर पत्र लिखकर हम दोनों एक ऐसा काम कर रहे हैं, जिसे कोई नहीं जानता । या तुम कह सकते हो, इस मामूली से काम द्वारा हमें अनुभव होता था, हम भी कुछ है अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व को अनुभव करने से सुख और आत्माभिमान की पूर्ति होती है, संतोष होता है ! तुम कहोगे मैं तुम्हें मनोविज्ञान पढ़ाने लगी। पर क्या करूँ, यदि एम० ए० की परीक्षा के लिये निबन्ध में लिख सकी तो यह मुझे इसी विषय पर लिखना है।

मैं

'हाँ पिता जी के दोस्तों मित्रों के दूसरे लड़के भी हमारे यहाँ आते थे। पिता जी ने मुझे सदा स्वतंत्र रक्ता है। माँ के न रहने के कारण सदा उनके ही पास रही हूँ। मैं सभी से बोलती चालती थी। एक दिन एक दूसरा लड़का मुझे हारमोनियम पर कोई स्वर सिखा रहा था। हम खूब हँस रहे थे। इतने में मुझे पत्र लिखने वाला लड़का आ गया। उसे यह अच्छा नहीं लगा। बाद में उसने मुझे इस बात पर डॉटा उसके बाद मैं उससे ती ही नहीं, प्रेम समाप्त हो गया। मैं सोचने लगी हम क्यों लड़ पड़े १ उत्तर मिला प्रेम द्वारा में अपने जीवन का विस्तार चाहती थी और यह मुझ पर बंधन लगा कर मेरे जीवन का अपने लिये संकुचित कर देना चाहता था। देखो, चीदह पन्द्रह बरस का लड़का भी मुझे अपनी सम्पत्ति समझना चाहता था

इसके बाद कई लड़के नजरों में आये। तुम बताओ, जो अच्छा हो यह अच्छा कैसे न लगे उसके लिये वाह या प्यार केसे न हो जिस! 


समय जो लड़का नहरों में रहा उस समय वही मुझे आदर्श जंचता रहा। दसवीं श्रेणी और कालिज के प्रथम दो वर्षों में अनेक उपन्यास पढ़े जीवन के अनेक चित्र आँखों के सामने आने लगे । उस समय एक और लड़के से परिश्चम हुआ। वह मेरी एक सहेली का भाई था। बहुत ही सुन्दर स्वभाव का बहुत ही अच्छा उसे न पाने पर चैन न पड़ती। दोपहर में कालिज से लौटती तो सहेली को उसके घर छोड़ने जाती ताकि उसके भाई को एक नज़र देख पाऊँ। मौका मिलता तो संध्या को भी जाती। उसका पत्र आता तो उसे दस-दस बीस-बीस चक्रे पढ़ती। आधी-आधी रात तक बैठ उसे खात लिखती। मेरी स्वतंत्रता और अभिमान सब न जाने कहाँ चला गया १ उस समय और बीसियों लड़के मेरी आँखों के सामने आये, उन्होंने मेरे निकट खाने का पक्ष किया परन्तु मैंने उन्हें देखा ही नहीं। हम दोनों ने कर लिया था कि हम जीवन भर के साथी होंगे ।


निश्चय

'वह हमारे यहाँ आता। कई-कई घण्टे हम साथ रहते। तब हम अपने दूसरे मकान में में जीने पर उसके क़दमों की आहट पा मैं तड़प उठती। जितनी देर वह हमारे यहाँ रहता, मैं जीवित रहती, उसके चले जाने पर मर जाती ! उन दिनों कांग्रेस का बहुत ज़ोर था। मैं धरना देने जाने वाली और गुलूस में भाग लेने वाली लड़कियों की पहलो टोली में थी इसलिये देशभक्त नौजवानों का जमघट मेरे वहाँ जमा रहने लगा। उसके जाने पर कटाक्ष होते, ताने दिये जाते क्योंकि उसका पिता सरकारी अतर है। उसका अपमान में न तह सकती। उसे मैंने कहा मैं तुमसे स्वयम मिल जाया करूँगी, तुम यहाँ न आया करो। आओ तो ऐसे समय, जब यह लोग न हो।'

मैं उसके यहाँ जाती और उसके सीने पर सिर रख रो आती। वह मुझे ती देता। एक दिन वह बहुत दुखी हो मेरे यहाँ आया। उसके घर दूसरा झगड़ा चल रहा था। एक पुत्रहीन, एकलौती लड़की के पिता बड़े जमीन्दार के यहाँ उसके विवाह की बात चल रही थी। घर भर उसका विरोधी था । उसे दुखी और व्याकुल देख सांत्वना देने के लिये उसे मैंने माहों में ले लिया। रात भर वह मेरे कमरे में रहा पर मैं बहुत रोई। उसने कहा हम कहीं चले जायेंगे परन्तु मैं तैयार न हुई...... पिताजी को और फिर मेरी अपनी भी सी स्थिति थी। कांग्रेस में और बाहर भी लोग मुझे जानते हैं। उसने कहा--- फिर भय की आशंका से बचने के लिये दवाई खालो ! एक पुड़िया ला उसने मुझे दी। और जो कुछ उससे हुआ हो पर मुझे जो बुखार चढ़ा

हम अपने आपको भूल गये होश आने

पचराओ नहीं,

कैसे छोड़ जाती

'एक के बाद दूसरा डाक्टर आने लगा और दवाइयों की शीशियों पहले कुछ दिन मैंने दवाई नहीं खाई। बाद में खानी शुरू की परन्तु कुछ न बना यह प्रायः आता और मेरे पास बैठ, मेरा हाथ अपने हाथों में ले आँसू बहाता वह कहता, सब कर उसी का है। परन्तु मुझे एक दिन मी उस पर क्रोध न खाया। हाँ, उसके न आने से दुःख होता था। कुछ दिन ऐसी अवस्था रही कि डाक्टरों को मेरे बच सकने में सन्देह था ।'


'मुझ पर कृपा दृष्टि रखने वाले युवकों की कमी न थी तुम्हारे बी० एम० भी उनमें से एक ये नौजवानों के एक और नेता थे, उन्हें तुम जानते होना' ! उनके प्रति न जाने क्यों मेरे मन में सदा प्राध 1 बनी रहती। परन्तु उनके दो दफ़ जेल हो जाने से मुझे उनके सामने नया से सिर झुकाना पड़ता। उन्हें आरम्भ से ही महेन्द्र से ईर्षा थी। मेरे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही वे मुझे जीवन की संगिनी बनाने के लिये आतुर हो उठे । मुझे उनकी बातों से क्लेश होता था परन्तु उनके खादर को दुकान पाती। बीमारी में मेरे पैर चूमकर वह कहते तुम कितनी महान हो । परन्तु इसके साथ ही महेन्द्र की निन्दा के स्तोत्र भी मुझे उससे सुनने पड़ते। उस शारीरिक कष्ट में यह मानसिक कह मुझे पागल किये दे रहा था में चेष्टा करती उन दोनों का सामना न हो। मेरे हृदय में दोनों के लिये ही आदर था, यही मेरी मुसीबत थी। महेन्द्र के घर उसके विवाद के प्रश्न के कारण स्थिति असह्य हो रही थी। वह मुझे पर बीती सुना जाता। मैं उसे कहती, तुम दिवाह कर लो ! मैं चाहती थी, वह किसी प्रकार सुखी हो परन्तु उसके इनकार से शान्ति मिलती।


बहुत दिन तक वह नहीं आया। एक दिन आकर उसका विवाह होने जा रहा है। मेरे मुख से केवल है' इसके बाद जब मुझे होश आया, वह न था।

उसने बताया- ही निकल सका।

कुछ दिन बाद उसका एक पत्र मिला, उसका विवाह हो गया है और यह मुझे मुंह नहीं दिला सकता। मेरी अवस्था और खराब हो गई। मन चाहता था, एक दफे जा उसे देख आने को परन्तु शरीर में इतनी शक्ति न थी। इस बीच में खन्ना ने मुझे अनेक दफे समझाया कि अपने जीवन का साथी उन्होंने मुझ में पाया है। हम दोनों राजनीति और समाज के क्षेत्र में एक साथ चल सकेंगे। मेरे चुप रहने पर मेरे सिरहाने बैठ उन्होंने मेरे माये पर आँसुओं की बूंदे बहाई। उनके सामने मुझे हार माननी पड़ी। उसके हृदय को अपने सिर पर रख रोने लगती। डाक्टर मेरी बीमारी का


इलाज कर मुझे बचाने की कोशिश करते थे और मैं हृदय के रोग लगा

उसे बढ़ाने की।

'पिता जी की भीगी देख कई दफ़ मैने निश्चय किया हृदय को पत्थर बना लूँ और चुपचाप बीमारी का इलाज करूँ परन्तु कर न पाई । अन्त में लक्षा के लिये अपने जीवन को बचाने का प्रण कर मैंने सेहत पाने का निश्चय किया। छः मास की कठोर तपस्या के बाद में उठने-बैठने लायक 'हो गई। मेरा जीवन 'सलाम' हो गया परन्तु देख एक छाया की तरह फिर भी साथ था। आज तक भी उसे भूल नहीं पाई हूँ और भूलूँगी भी नहीं। प्रत्येक संध्या खना की गोद में सिर रख मैं भविष्य जीवन के स्वप्न देखने लगी। सभा ने मुझे कम से खींच लिया था। मैं उसी की बन गई परन्तु जिस समय खन्ना के कैबे पर बाँह रखे आँखें मूदे रहती, उसी समय यह पूछ बैठा क्या अब भी महेन्द्र की बाद जाती है ! 'झूठ कैसे बोलती 'एक दिन, जो बात अस्पष्ट थी, उसने उसे स्पष्ट कर दिया। उसने पूछा मुझपे विवाह करोगी १ मैंने उत्तर दिया।

उसने फिर पूछा-महेन्द्र को तो तुमने केवल मन ही दिया था, शरीर तो नहीं

'मेरा श्वास रहने लगा। कुछ उत्तर न दे सकी। उसका उपय-तीन श्वास मेरे माथे पर अनुभव हो रहा था। कुछ रुक कर शक्ति स्वर में उसने पूछा- 'शरीर भी '

'मेरा शरीर काँप उठा परन्तु झूठ बोलने का साहस न हुआ सिर झुका कर मैंने हामी भरी। उस समय मैं अर्द्ध चेतनावस्था में थी परन्तु खन्ना की बाई के सहसा ढीले पड़ जाने से चीक उठी। वे खोल देखा उसका गोरा चेहरा गया था सँल पर बैठने का पक्ष किया परन्तु सँग न सकी। '''''''मन की अपवित्रता जमा हो सकती है शरीर की नहीं "और) वही खना कहते थे, वे मुझसे आध्यत्मिक प्रेम करते थे परन्तु शरीर पर भी एकाधिकार चाहते थे।

शैल ने खाँले उठा हरीश की ओर देखा और मुस्कराने का मन करते हुए पूछा- 'मैं बड़ी बदमाश हूँ ?'

दोनों हाथ उसके कंधों पर रख हरीश ने उत्तर दिया क्या कहती जिस व्यक्ति में इतना साहस हो, यह कभी नीच नहीं हो सकता दाँतों से होंड दया शैल सामने की दीवार पर देखने लगी। कुछ क्षण

बाद हरीश को सम्बोधन कर उसने कहा- 'और यह खमा साहम ही मेरी बदनामी का कारण है। वी० एम० चाहते हैं, मैं उनके सिवा, न किसी से बोलू न मिलू ।'

विस्मय से हरीश ने पूछा

'

यही तो समझ नहीं सकी। ...... समझने की बात ही क्या है पुरुष और पूर्ण अधिकार का संस्कार ! चाहते थे पर कर

काली पर एक उनके साथ चली

...

सहसा दोनों हाथों में मुँह ढंक कर रोल झुक गई। उसके सिर के कम्पन से हरीश ने झुककर बेला– 'अरे, पागल, क्या रो रही हो ? यही तुम्हारी वीरता और आत्म-श्रमिमान है जहाँ इतना साहस किया है, यहाँ इस रोने का क्या मतलब है

आँखों से भीगे उसके गालों को अपने हाथों से पोछ हरीश ने उसके सिर को अपने सीने पर रख लिया । स्वयम् उसके अपने स्वर में अस्थिरता आ गई। बोला तो मेरी कसम

कुछ क्षण वे उसी

प्रकार बैठे रहे। टाइमपीस की रेडियम की सुइयों की ओर देख उसने कहा 'शैल, डेढ़ बज गया मैं जा रहा हूँ। तुम नीचे गैराज बन्द कर तो !

शैल के सिर को अपने सीने पर विदा की सूचना में एक बार दवा उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना यह चुपचाप चला गया।

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रचनाएँ
दादा कामरेड
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दादा कामरेड पहली बार 1941 में प्रकाशित हुआ था। इसे हिंदी साहित्य में एक अग्रणी राजनीतिक उपन्यास माना जाता है। उपन्यास अर्ध-आत्मकथात्मक है, और हरीश नाम के एक युवक की कहानी कहता है जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो जाता है। उपन्यास स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के विषयों की पड़ताल करता है, और क्रांतिकारी संघर्ष के शक्तिशाली और मार्मिक चित्रण के लिए इसकी प्रशंसा की गई है। यह उपन्यास 20वीं सदी की शुरुआत पर आधारित है और इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में हरीश के बचपन से होती है। हरीश एक प्रतिभाशाली और जिज्ञासु लड़का है, और वह स्वतंत्रता और समानता के उन विचारों की ओर आकर्षित होता है जो उसने अपने पिता, एक गांधीवादी राष्ट्रवादी से सुने थे। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, हरीश स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया और अंततः उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। जेल में, हरीश की मुलाकात अनुभवी क्रांतिकारी दादा से होती है, जो उसके गुरु बन जाते हैं। दादा हरीश को वर्ग संघर्ष के महत्व के बारे में सिखाते हैं, और वह हरीश को एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष जारी रखने के लिए प्रेरित करते हैं। जेल से रिहा होने के बाद, हरीश एक पूर्णकालिक क्रांतिकारी बन गया, और उसने अपना जीवन स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के संघर्ष में समर्पित कर दिया। दादा कामरेड एक शक्तिशाली और मार्मिक उपन्यास है जो स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के विषयों की पड़ताल करता है। यह उपन्यास हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर है और क्रांतिकारी संघर्ष के यथार्थवादी चित्रण के लिए इसकी सराहना की गई है।
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 दुविधा की रात

11 सितम्बर 2023
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  यशोदा के पति अमरनाथ बिस्तर में लेटे अलवार देखते हुए नींद की प्रतीक्षा कर रहे थे। नोकर भी सोने चला गया था। नीचे रसोईघर से कुछ खटके की थापालाई कुँमलाकर यशोदा ने सोचा- 'विशन नालायक जरूर कुछ नंगा

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 नये ढंग की लड़की

11 सितम्बर 2023
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 मध्यम रही अनिथित स्थिति के लोगों की एक अद्भुत चमेली है। कुछ लोग मोटरों और शानदार बंगलों का व्यवहार कर विनय से अपने आपको इस श्रेणी का अंग बताते है। दूसरे लोग मज़दूरी की सी असहाय स्थिति में रहकर भी

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 नये ढंग की लड़की

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 केन्द्रीय सभा

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 कानपुर शहर के उस संग मोहल्ले में आबादी अधिकतर निम्न श्रेणी के लोगों की ही है। पुराने ढंग के उस मकान में, जिसमे सन् २० तक भी बिजली का तार न पहुँच सका था, किवाड़ विज्ञायों के नहीं कंदरी और देखा के

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 मज़दूर का घर

11 सितम्बर 2023
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 हरिद्वार पैसेंजर लाहौर स्टेशन पर आकर रुकी। मुसाफिर प्लेटफार्म पर उत्तरने लगे। रेलवे वर्कशाप का एक कुली, कम्बल ओ और हाथ में दं ओज़ार लिये, लाइन की तरफ़ उतर गया। राक्षत रास्ते से आदमी को जाते देख ए

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 तीन रूप

11 सितम्बर 2023
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 शैलपाला अपने कमरे में बैठी जरूरी पत्र लिख दी थी। नौकर ने जबर दी, दो आदमी उससे मिलने आये हैं। लिखते-लिखते उसने कहा- नाम पूछकर श्रो लोटकर बोकर ने उसे एक चिट दियां चिट देखते ही वह तुरन्त बाहर आई। ह

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मनुष्य

11 सितम्बर 2023
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 दिन-रात और अगले दिन संध्या तक बरफ गिरती रहने के बाद रात में बादल पढ़ कर उस पर पाला पड़ गया। सुबह से स्वच्छ नीले आकाश में सूर्य चमक रहा था। नीचे विछे अनंत श्वेत से प्रतिबिम्बत धूप की कई गुणा मढ़ी

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गृहस्थ

13 सितम्बर 2023
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 ० आर०' और 'हरीश' वह दो नाम अमरनाथ के मस्तिष्क में बारी-बारी से चमकते अपनी शक्ति पर सन्देह करने की कोई गुंजाइश न थी "ठीक बाद था ठीक उसने अपना नाम ० कारखाना और पद उसका नाम बताती है, 'परी' ये सोचते

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 पहेली

13 सितम्बर 2023
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 मंग के सामने कुराड़ी में बेत के काउच पर राबर्ट और शैल बैठे दुबे थे। राबर्ट के एक हाथ में सिगरेट था और दूसरे हाथ में एक पर अनेक दिन के बाद प्रतोरा का पत्र आया था राम पत्र पढ़कर रोल को सुना रहा था-

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 सुलतान १

13 सितम्बर 2023
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पंजाब-मिल, सितारा-मिल, डाल्टन मिल आदि कपड़ा मिलों में डेढ़ मास ताल जारी थी। हड़ताल समाप्त होने के आसार नज़र न आते थे। जून की गरमी में जब लू धूल उड़ा-उड़ा कर राह चलने वालों के चेहरे झुलसा देती थी राबर्

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दादा

13 सितम्बर 2023
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 लाहौर की बड़ी नहर के दाँवे किनारे की सड़क पर दादा साइकल पर चले जा रहे थे। उनसे प्रायः बीस क़दम पीछे-पीछे दूसरी साइकल पर श्रा रहा था जीवन । माडलटाउन जाने वाला पुल लाँघ वे नहर के दूसरे किनारे हो गय

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 न्याय !

13 सितम्बर 2023
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 दकताल में माज़दूरों की जीत होगई। उत्साहित हो कर दूसरों मिलों और कारखाना के मज़दूरों ने भी मज़दूर समायें बनानी शुरू कर दीं। कई मिलों में और कारखानों के क्वार्टरों में रात्रि पाठशालायें जारी हो गई।

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 दादा और कामरेड

13 सितम्बर 2023
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 अदालत से लोड कर शैक्ष ज्वर में पलंग पर लेट गई। ज्वर मूर्छा में परिणित हो गया। उसे कुछ देर के लिये होश आता तो वह अपने इधर-उधर देख कर कुछ सोचने लगती और फिर बेहोश हो जाती। मुआजी उसके सिराहने बैठीं ब

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