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मनुष्य

11 सितम्बर 2023

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दिन-रात और अगले दिन संध्या तक बरफ गिरती रहने के बाद रात में बादल पढ़ कर उस पर पाला पड़ गया। सुबह से स्वच्छ नीले आकाश में सूर्य चमक रहा था। नीचे विछे अनंत श्वेत से प्रतिबिम्बत धूप की कई गुणा मढ़ी उपलता आँखों को चकाचौंध कर रही थी। शाह को चोटी पर मनो उस कोठी से आँख उठा देखने पर सब ओर श्वेत दिखाई देता था। एक विचित्र श्वेत दूध की सफेदी और चाँदी की उज्ज्वलता का मिश्रण ! मामूली लुप्त हो गई। केवल बहुत नीचे, बीच से उनकी ढलवानों पर खड़े

ऊँचाई नीचाई उस श्वेत के विस्तार में गहरी तराई में, बरफ से लये वृद्धों के दिखाई दे जाती। पहाड़ की ऊँची टहनियाँ बरक के बोझ से झुक गई। श्वेत पंजर के समान जान पड़ते थे। जाने वाली उनकी हरियाली ही उनके याद दिला देती थी। बाँझ ( Oak ) के पत्ते भी बरफ का आवरण चढ़ श्वेत हो गये। जिन के पते हेमन्त में भह चुके ये उनके तने और हनियाँ सब सफेद म्यानो में ढक गये। द्वारा किये गये सब प्रयत्न लोप हो गये

हरियाली को छाया विशाल देवदारी की ये अस्थि अवशिष्ट महाकाय दानवों के बरऊ के बीच से कहीं कहीं दिखाई दे अदृश्य हो गये वनस्पति जीवन की

विराट प्रकृति के इस खेल में मनुष्य मानो मनुष्य बालक की शक्ति का

उपहास पर प्रकृति ने अपने श्वेत आँचल में उसके तैयार किये सब धरोन्दों

को छिपा लिया।

राबर्ट, शैल, नैनसी और हरीश कोठी के विस्मय से उस दृश्य को देख रहे थे। रात में सतह कड़ी पड़ गई थी

हो अपने चारों ओर के

बरामदे तक चढ़ी बरऊ पर खड़े पाला पड़ जाने से परक की इसलिये बिना विशेष कठिनाई के वे उस पर सड़े दृश्य को देख रहे थे। धूप में पिवलती कोठी के

छत की बरफ जल बनकर छत के किनारे से सहसों धाराओ में उप-टप कर


उपक रही थी और जल उपकने के स्थानों पर काँच के बड़े-बड़े सींगों की कालरें बन गई। हीरे की कथियों से छितराया श्वेत का वह विस्तार उनके क़दमों के नीचे से चलकर सुदूर चितिज पर हिमालय की निरंतर बनी रहने बाली हिम की दीवार तक पहुँच रहा था, जिसके कंगूरे नीले आकाश में चाँदी के उज्वल टीलों के सामन खड़े थे। उसमें कहीं व्यवधान था तो अनेक पर्वत मेदियों के अन्तर में दिखाई पड़ने वाली भाटियों की सुन्दरेला या समीप की घाटियों की तलेठी की मोनी हरियाली ।

गरमी और बरसात के मौलिम की घनी हरियायत को बैंगलों की लाल छत से चित्रित करने वाली कलरव पूर्या मंसूरी और उनलो बई से ढंकी इस नीरव मंसूरी में कोई समानता और सादृश्य शेष न था। बरफ़ की उस सफेदी में बरफ से ढंके बंगला और कोठियों को दूर से पहचानना कठिन हो गया। चकाचीच होती, आँखों पर छाया के लिये हाथ रखे नैनसी उस पहेली सो अनुभ मंसूरी में बाँह फैला कर उँगली से दिला रही थी, 'वहाँ चाहती है, वहाँ मैलाका ! वहाँ उपर, हाइलैवट ताली बजा पुलक और विस्मय से उसने कहा 'रूबी, देखो ! वहाँ डिरो की पहाड़ी पर तो कुछ पहचाना ही नहीं जाता !" इतनी गहरी बरफ़ पर भी तीखी धूप होने और वायु यमी रहने के कारण बाहर घूमने में सर्दी अनुभव न हो रही थी बल्कि पैरों के नीचे बरफ़ की पपड़ी टूटने और पैरों के कुछ दूर तक स्वच्छ श्वेत वरफ में धंसने से चलने में मला जान पड़ता था। कोठी के समीप एक टीले पर चढ़कर वे दूर-दूर का दृश्य देखने लगे। चढ़ाई चढ़ते समय पैर पेंसने से रोल और नैनवी दोनों होने

लगीं। राबर्ट शैल को सहारा दिये ऊपर लेजा रहा था। शैल कभी उसकी बाँद और कभी कंधे का सहारा ले लेती। हरीश की ओर देख नेनसी ने नित्संकोच स्वर से पुकारा 'मिस्टर मिराजकर, आप मुझे हेल्प (सहायता) नहीं देंगे

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'क्यों नहीं हरीश पीछे लीड आया। राबर्ट और ऐल की ओर देख वह सोच रहा था, कि किस सीमा तक वह नैनसी को सहायता दे सकता है ?

कुछ ही पटों में उस वैचित्रय को उम्रता धीमी पड़ गई। उत्तर-पूर्व की बायु तेल हो जाने से धूप में भी कंपकपी छूटने लगी। माटे-मोटे कपड़ों को छेद कर वह वायु तीखी नहीं का तरह शरीर में चुभो जातो थो वे लोग भीतर जा बैठे। आग जलाई गई। कैंपकपी बन्द ही न होती थी। कमरे में आग जला लेने पर भी उसके समीप ही बैठने में ही शान्ति अनुभव होती । शेष कमरा खूब सर्द था इसलिए सोका और कुर्तियों को आग के बिलकुल समीप खींचकर वे एक साथ ही बैठे।

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सदीं सबसे अधिक नैनसी को अनुभव हो रही थी परन्तु उससे अधिक असुविधा वह अनुभव कर रही थी तब के समीप बैठने में उसका मन उच्चाट हो रहा था एक प्रकार की अशान्ति सी जिसका कारण यह स्वयम न समझ पा रही थी। राबर्ट और रोल आल्हाद की चात्मविस्तृति में खोये थे मिराकर अपने ध्यान में यो मग्न था कि दूसरों की उपस्थिति से उसे कुछ प्रयोजन ही नहीं। कभी किसी बात की ओर संकेत पा या शेल से लें मिल जाने पर अपने पास से जाग कर यह मुस्करा देता उसकी चाँलें चमक उठतीं और फिर दूसरे ही क्षण उसका ध्यान लोट जाता ।

नैनसी ने कई बेर उसकी ओर देखा परन्तु उसे अपने ध्यान में मग्न पाया। सब छोर से उपेक्षा की चोट खाकर वह कहीं दूर भाग जाना चाहती थी। उस अद्भुत दृश्य और यात्रा की उमंग से हृदय की नदी में आयी आल्हाद की बाढ़ का जल कम होकर तली में बैठे टीलों और कगारों के सिरे प्रकट होने लगे। यह थे, उसके जीवन न्यूनता और कमी के चिन्ह यह देख रही थी कि राबर्ट और शैक्ष नशे की सी अवस्था में हैं। उनके ध्यान में किसी तीसरे के लिए स्थान न था और मिराजकर १ उसकी दृष्टि में तो सब लोग जढ़ 1 प्रकृति के ही अंग थे। नैनसी ने अनेक बार उसकी ओर देखा, मतलब ये मतलब उससे बात की। उत्तर में अत्यन्त भद्रता से, आवश्यकता से अधिक विनय से, मिराजकर ने उत्तर दे दिया। जैसे उसका पहिले कुछ परिचय नहीं और यह भरी महफिल में उससे बात कर रहा हो। अशात कारण से पैदा होने वाली उस उदासी से नैनसी का दिल मुंह को जाने लगा। एक अत अभाव की अनुभूति से मन बेचैन हो रहा था, जिसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा नहीं बतायी जा सकती थी।

हरीश अपने खेल या चिन्ताओं में होये बालक के समान था जिसे अपनो स्थिति या अवस्था की भी परवाह न थी। शैल की ममता भरी दृष्टि निरन्तर उसकी ओर थी। राबर्ट के अधिकार को कृतश्ता पूर्वक स्वीकार करके भी वह हरीश की उपेक्षा कैसे करे वह जो एक घायल बालक के समान था। लड़की का पर्दा हसनैनसी उत्तर पूर्व की हिमश्रेणी की ओर देखने

बरफ़ानी चोटियों पर अस्तोन्मुख सूर्य की विदा होती हुई किरयों फैल रही थीं। वे उज्ज्वल सिंदूरी रंग लिए अग्नि की स्थिर लपटों की भाँति नीले आकाश में सिर उठाये खड़ी थीं। कुछ भाग जो सूर्य की किरणों ओट में थे, 'नीले हरे कुहासे में ढँके थे। उनकी ओर देख कर रोल को सम्बोधन कर राबर्ट ने कहा- 'ओफ़ क्या शान है?'


नैनसी को जान पड़ा कि उसके मन की व्यवस्था को उकसाने के लिए ही यह बात कही गई है। खिड़की का पर्दा छोड़ वह हट गयी। शैल ने अनुरोध किमा 'नैना, कुछ सुनाओ!' नैनती को रोज का यह अनुरोध दुखते अंग पर उस के समान आन पड़ा। कुछ उत्तरं न देकर कोट की दोनों जेबों में हाथ डाले वह दीवार की ओर देखने लगी।

शैल ने हरीश से पूछा—'मिराजकर, कुछ सुनोगे तो विचार तन्द्रा से जाग उसने उत्तर दिया- 'जरूर! और इस्कराकर नेती की ओर देख पर दोहरा दिया जरूर सुनाइये

हरीश की इस मुस्कराहट से पचा की गहराई में गिरती हुई नैमसी को सहसा सहारा मिल गया। जेब में हाथों को और गहरा गढ़ा उसने हरीश से ही पूछा- 'क्या सुनाऊँ !"

नैनी के स्वर से निराशा दूर हो गई। उत्तर दिया रोल ने दियी के यहाँ जो तुमने उस रोज़ सुनाया था। क्यों मूनलाइट सोनाटा वही सुनाओ" याई सुनाओ।' राबर्ट से समर्थन किया।

मुस्कराहट से नैनसी बोली — "मिराजकर तो भारतीय राग के पारखी है। इन्हें कोई देशीची ही सुनाऊँ विहान सुनियेगा '

'सर, सर !' मिराजकर ने समर्थन किया।

वायलिन निकाल कर नैनसी ने उसके तारों पर कमान चलानी शुरू की। उसका हाथ और वायलिन की कमान तरंगित गति से हिलने लगे। वायलिन के तारों से स्वर की लहरें छूटने लगीं। कुछ देर में उसका सिर भी हिलने लगा। उसके चेहरे पर लाली आ गई। उसका श्वास अपनी स्वाभाविक गति छोड़ विहाग की लहरों पर चलने लगा। आठ-दस मिनिट बजाने के बाद वह उठ खड़ी हुई और विशम्बित के बाद द्रुत बजाने लगी। कमर से ऊपर उसके शरीर का भाग राग की गति पर डोलने लगा। तीनों ने एक टक उसकी ओर देख रहे थे। राबर्ट का सिर हिलने लगा। नेत्र मूँद वह तन्मय हो गया। एक दफे उसके मुख से निकला बहुत खूब

रोल भी मंत्र मुग्ध-सी उसकी

ओर देख रही थी। राय समाप्त कर पकाव से साँस लेते हुए हरीश की और देस नैनसी ने पूछा- कहिये, पसन्द आया १

'बहुत ही अच्छा आप को सून अभ्यास है।रीश ने मुस्कराकर प्रशंसा की।

'और सुनिये १' उत्साहित हो नी ने कहा और वायलिन ले उसने श्यामकल्यास बजाना शुरू किया। गत सखाप्त होने पर तीनों ने उसकी भर- पूर प्रशंसा की। नैनसी अपनी शिथिलता भूल गई। शैल ने अनुरोध किया- 'मैना गा के सुनाओ कुछ

दोनों हाथ फैला कर नैनसी ने उत्तर दिया- 'बिना साज के गाना कैसे ? यहाँ क्लासिकल म्यूज़िक के महाराष्ट्र परिचत बैठे हैं झट गलती निकाल देंगे।

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हँसकर हरीश बोला- महाराष्ट्रीय होने से हो तो संगीत नहीं था जाता। मैं ग़लती समकूँगा ही नहीं, निकालूँगा क्या ?' 'नैनसी ने आंख का कोना रोत की और दबाया कुछ न समझने में ही रहती है। हाँ, तो क्या सुनाऊँ 'कोई मौके की चीज़' राबर्ट ने उत्तर दिया।

कुछ लोगों की वीरता हरीश से उसने पूछा।

नैनसी ने रोल की और दुबारा आँल का कोना दबाकर ताना दिया- 'मौका तुम्हारा है; सब का तो नहीं ?'

शेल और राबर्ट एक दूसरे की ओर देख हँस दिये। कुछ गुनगुना कर नैनसी ने गाना शुरू किया-

नैनसी

लगता नहीं है दिल मेरा उनके दयार में............

कह दो ये हसरतों से कहीं और जा बसें ।

इतनी जगह कहाँ है दिले बेकरार में

बुलबुल को बाग़बाँ से न सेयाद से गिला। किस्मत में कंद भी लिखी फस्ले महार में |

उम्रदराज भाँग कर लाया था चार दिन

यो आरजू में कट गये दो इन्तज़ार में ||

छत की ओर उठाये खूब ऊँचे स्वर में खुले दिल से था

रही थी। कमरा उसके स्वर से गूँज उठा। गनत समाप्त होने पर उस जनहीन प्रवेश का सुनसान और भी बोझल जान पड़ने लगा। शेल ने उसे कुछ और सुनाने के लिए कहा चाह, माने पर आई हूँ 'उलाहने से नैनसी ने उत्तर दिया- 'तुम भी गायो ।' अपने गले और कक्षा के चमत्कार के गर्व से उसका हृदय इस समय उत्साह की हिलोरें ले रहा था।


'अरे, इतना जानते तो तुम्हें कहने की जरूरत होती शैल ने अनुरोध किया। 'आओ दोनों मिलकर पंजाबी ढोलक का गीत गायें नैनसी ने प्रस्ताय किया; शैल तैयार हो गई। उसी समय नैनसी ने मिराजकर की ओर देखकर पूछा- यह क्या सकेंगे

मैं समझता हूँ, काफ़ी समझता हूँ- हरीश ने उत्तर दिया- 'आप 'चलिए, नहीं स्वर तो सुनूँगा ।'

नैनसी राबर्ट का हेटस उठा लाई और उसे ढोलक की तरह घुटनों में दवा बजाना और गाना शुरू किया-

मैं तेरी से तू मेरी वेचावे

"गाते-गाते रुक कर हरीश की

और देख उसने पूछा- क्या मतलब उसने आप हरीश ने कहा समझ गया मैं तेरी हैं, तू मेरा है, तू फूल है '

1

शैल को सम्बोधन कर नैनसी ने कहा ठीक है, लेकिन ग्रामर (व्याकर) रा कम जानते हैं। तीनों बने हँस पड़े हरीश ने भी शर्माकर मुस्करा दिया। नैनसी पर उत्साह का ना चढ़ रहा था। एक गाना समास कर शैक्ष के साथ उसने दूसरा गाना शुरू किया- 'यीची बाला चल्ला न दे जानिनी---.....

इस बीच में हरीश का ध्यान दूसरी जगह पहुँच गया था। वह सोच रहा था कि साहबी ढंग से रहने वाली, अंग्रेजी बोलने वाली यह मिस साहब, सिलवार पहने और घुटनों में ढोलक दबाये पंजाबी गीत गा रही है। पश्चिम की सभ्यता का इतना मुलम्मा होने पर भी इसकी भारतीयता और पंजाबीपन उसके खून में वैसे ही मौजूद है।

सहसा पककर नैनसी ने फिर हरीश से पूछा इसका मतलब बतलाइये, समझे

'हाँ-हाँ हरीश ने हामी भरी अंगूठी माँगती है; निनी'

चीची का क्या महा 'अगर आप यह बता दें तो जोधप चाई दे दूँ।'

शैल ने कहा 'मौका है मिराजकर, इसी को मांग लो

राबर्ट ने हंसकर कहा-'प्राचीन भारत में ऐसे ही हो स्वयम्बर हुआ करते थे

नैनसी ने बिना पे ललकारा यह बताये तो क्या मतलब है साइब चीची का क्या चाची उसने उँगली ढोड़ी पर रखते हुए पूछा।

चिन्ता का भाव दिला हरीश ने उत्तर दिया- देखिये, इसका मतताय नग, नगवाली अँगूठी नहीं क्या

नैनसी ने शैल और रावर्ट की तरफ देखकर कहा-'पस जीत शि स्वयम्बर १'

"

शेल हंसी से लोटपोट हो गई। उससे रहा न गया। राबर्ट के पास से उठ हरीश का हाथ पकड़ उसे खींच वह दीवार के पास ले गई और शाहिस्ता से कहा-'खूब बनते हो, कमाल कर दिया ?'

उसी तरह ग्राहिता से हरीश ने हँसकर उत्तर दिया-न बनू तो गी भेद खुल जाय !

हँसते-हँसते रोल वापिस या बैठ गई और मिराजफर कुछ म दिखाते हुए आकर बैठा ही था कि नैनसी ने उसे सम्बोधन कर का हजरत ! चीची का मतलब चाची नहीं और न नगवाली अंगूठी । इसका मतलब है, यह उँगली !' अपनी छोटी उंगली हिलाते हुए दिखा उसने कहा- 'समझे अरे कुछ भी तो नहीं समझते !'

राबर्ट और रोल आपस में बात कर रहे थे। उस ओर संकेत कर नैनसी ने मिराजकर से कहा- 'कुछ समझा कीजिये इन्हें बात करने दीजिये, समझे ! आइये आपको चाँद दिखाऊं १ सर्दी लगती है श्रोवरकोट जो नहीं हैं। यह लीजिये इसे पहन लीजिये अपना श्रोवरकोट उठने उतार दिया। दीश के मना करने पर उसने एक शाल उठा ओढ़ लिया और फिर हरीश की ओर देखकर बोली 'बाद कैसे अच्छे जंचते हैं १ एक साड़ी और निकाल चलिये अब तो ! हँसने लगी। वे दोनों बरामदे के काँच से बरफ़ पर चाँद की रोशनी देख रहे थे। हरीश ने कहा 'कितनी शान्ति है !' नैनसी ने उत्तर दिया भयंकर सुनसान सर्दी

दू'

लगभग दस मिनट तक

दोनो उस शान्ति, सुनसान और उम्र को सहते शून्य का अनुभव कर रहा था। नैनसी शत्य का

रहे । हरीश मस्तिष्क में एक अनुभव कर रही थी हृदय में बरामदे में छोड़ वह लेटने के लिए चली गई।

X "

निराशा ने उसे फिर आ घेरा मिराजकर को

X

X

'बी, जब जीवन में कोई रुकावट अनुभव नहीं होती, जिन्दगी उत

पर बहते जल की तरह महती चली जाती है। कभी अनुभव भी नहीं होता, हम


अपनी

जी रहे हैं, जीवन की कोई समस्या या अधिकारों का भी कोई प्रश्न है और जय जीवन में चाह और इच्छा पूरी नहीं होती तब सब बातों की ओर ध्यान जाने लगता है। समाज में अव्यवस्था दिखाई देने लगती है। अंधी आँखों के सामने कल्पना में न जाने क्या-क्या देखते हुए बोली। अपनी दाई बाँह शैल के कंधे पर रख राबर्ट ने शांत तटस्थ भाव से सम्बा स्वास से उत्तर दिया- 'समाज और संवार का आरम्भ होता है व्यक्ति से। जब व्यक्ति अपने जीवन में स्कावट अनुभव करता है सभी यह समाज में संकट के प्रतिकूल सहानुभूति अनुभव करने लगता है। व्यक्तिगत और सामाजिक अधिकार की बात सोचने लगता है

पर यह बात हरीश, मेरा मतलब मिराजकर के जीवन में कहाँ है? मेरा मतलब, उसका अपना जीवन है ही क्या, वह जीवन में कुछ पाने की आशा कर ही नहीं सकता | शैल ने पूछा।

"यह बात नहीं.... राबर्ट ने मुस्कराकर शैल की ओर देखा जो आदमी देश और समाज के लिये अपने आपको मिय देना चाहता है वह भी स्वार्थी ही है। फरक इतना ही है कि वह सन्तान से मोह करने वाली माँ की तरह है जो यह अनुभव करती है कि अपनी सन्तान के बिना वह जी नहीं सकती। परन्तु दूसरे की सन्तान के लिये कौन मर जाना चाहता है कुछ लोग ऐसे भी है जो मनुष्य मात्र के लिये मर जाना चाहेंगे वास्तव में उन्हें निस्वार्थ न कह कर समझदार ही कहना चाहिये क्योंकि वे समझते हैं कि उनका स्वार्थ केवल निजी संकट दूर करने के प्रयत्न से हल नहीं हो सकता। मैंने तो अपने जीवन में नही देखा है।

राव की बाँह पर हाथ रख शैक्ष ने दरवाजे के कांच से बरामदे में झाँक कर पूछा- रूबी, मिराजकर को भी बुला हूँ। यह देखो, यह पागल की ह सिर उठाये अपेक्षा कोल्हू के बैल की तरह चकर काट रहा है

राबर्ट ने सिर हिला कर अनुमति दे दी। शैल ने मिराजकर को भीतर पुकार लिया। भीतर आकर मिराजकर ने पूछा- क्यों, क्या है ?'

'होने को क्या है, यहाँ आदमियों में बैठो | क्या कठघरे में बन्द जानवर की तरह चक्कर काट रहे हो तुम कान्ति कान्ति चिलाते फिरते हो। व्यक्ति के मार्ग में आने वाला सामाजिक अत्याचार तुम्हें नहीं दिखाई देता जीवन के सब मार्ग समाज में बन्द पाकर मुझे तो सबसे अधिक लिजलाहट समाज के प्रति ही होती है

राबर्ट ने सहयोग दिया जैसे ईटों के बिना इमारत नहीं बन सकती उसी तरह बिना व्यक्तियां के समाज भी नहीं बन सकता। समाज अपनी रक्षा या व्यक्तियों के विकास के लिये ही व्यवस्था करता। । परन्तु मनुष्य के जीवन में परिवर्तन या जाता है, उसकी आवश्यकतायें बदल जाती हैं और पुरानी व्यवस्था में उसे रुकावट अनुभव होने लगती है। जैसे बचपन में कोई कपड़ा शरीर पर सी दिया जाय तो उम्र बढ़ने पर दम घोंटने लगेगा, वही हालत हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं की भी है ।'' 'स्वयम् अपने अनुभव की यात देखिये। मैं अपनी पत्नी को ही क्या दोष यूँ १ जिस समय कालेज से एम० ए० पास किया, मुझ पर बाईबिल का रंग इतना गहरा था कि संसार को प्रभु मसीह के चरणों में से आने के सिवा और कोई चिन्ता नहीं। मेरी धर्मनिहा देख मेरे विशेष चिन्ता न करने पर भी मिशन कालेज में मुझे प्रोशेसरी दे दी गई! मेरा यह हाल कि सब काम छोड़ सुबह शाम मजदूरी और भंगियों में जा मसीह के भजन गाये बिना, उन्हें मसीह का उपदेश सुनाये बिना चैन न था। उन्ही दिनां प्रतोरा से मेरा परिचय हुआ। मेरे धर्मोपदेश में उसे अमृत बरसता जान पड़ता । वह प्रायः मेरे साथ भजन गाने जाती, मेरे व्याख्यानों में हाजिर रहती। धर्म के प्रति उसके प्रेम से मैं उसका आदर करने लगा। मुके मालूम नहीं हुआ किस दिन उस आदर ने प्रेम का रूप धारण कर लिया। मानसिक प्रेम और शारीरिक आकर्षण की सीमा एक दूसरे से मिली ही रहती है। इस पार अया, प्रेम और मक्ति है, दूसरी और तृप्ति की चेष्ठा और फिर यह सीमा कोई ठोस पदार्थ नहीं भावना और विचारों में ही यह सीमा रहती है इसीलिये भावना, विचार या इच्छा की तरंग इसे कहीं पहुँचा सकती है, मिटा भी सकती है।

'मैंने स्वयम ही फ़्लोरा से विवाह का प्रस्ताव किया। मेरे प्रति उनकी भद्रा और प्रेम जो केवल चाह और पसंद का दूसरा नाम है इतना प्रबल था कि इनकार कर सकना उसके लिये सम्भव न था । मेरा ख्याल है, उस समय यदि हम दोनों में से कोई एक मर जाता तो दूसरा मी, जीवन असंभव समझ, मर जाता या मरने की चेष्टा करता। परन्तु जब प्रेम और आकर्षण का कारण न रहा, प्रेम और आकर्षण भी न रहा।

तोरा ने मुझे जो कुछ समझकर प्रेम किया था, उसकी दृष्टि में, मैं वह नहीं रह गया तो फिर क्यों न वह मेरे प्रति विरक्त हो जाती है उन दिनों उसे गांधीवाद का चस्का लगा। गांधी मुझे ईसा के सबसे बड़े क्रियात्मक भक्त जान पड़ते थे। कई दफ े गांधी जी को ईसाई बनाने की धुन सवार हुई।


उनका आचरण ईसाई धर्म के अनुसार आदर्श है; केवल भगवान के पुत्र मसीह में विश्वास न होने के कारण वे स्वर्ग और मुक्ति न पा सकेंगे, यह सोच मुझे दुख होता था। राम, कृष्ण आदि मिथ्या अवतारों में मुझे उनकी भया स न थी । अहिंसा और प्रेम में ही मुझे सब धर्मों का सार दिखाई देता था और अहिंसा और प्रेम का सार मुझे दिखाई देता था भगवान के पुत्र मसीह

में उन्हीं दिनों, मला हो एक मेरे मोकेसर मित्र का, उसने मुझे एक पुस्तक 'हिस्टोरिकल मैटिरियलिम्म, बुखारिन को पढ़ने के लिए दी। उस पुस्तक को दो बजे पढ़ा। उसके बाद हैगल की पुस्तक 'रिडल चाऊ दी यूनियत पढ़ी। फिर यह करने पर भी मैं बाईचित छू न सका ।

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'मेरी यह नास्तिकता तोरा के लिए साथी में उसे अपने विचार समन्धने का यन करता परन्तु धर्म के विषय में तर्क करना ही उसकी दृष्टि में पाप या एक नास्तिक के साथ पति रूप में एक मेज पर भोजन करना उसे नागवार था। मेरे गिरवा न जाने पर वह हुआ से उपवास करती। कई दिन तक उसे प्रसन्न करने के लिए मैं पाक्षात् कुते की तरह उसके साथ गिरमा गया भी परन्तु इससे मन में हानि होती थी। मुझे यह कायरता जान पड़ती थी।

एक दिन हद हो गई। मेरी मेज़ के

नीचे एक पुस्तक काले चमड़े की जिल्द की पड़ी थी। नज़र पड़ने पर उसे उठा तोरा ने पुस्तक को उठा कर चूमा, सिर से लगाया और मुझे क्रोम में सम्बोधन कर कहा- 'अब पतन इस सीमा तक पहुँच गया है कि नाईमि पैरों तले डुकराई जाती है !'

'उसकी आँखों में आँसू देख मैंने हँसकर उत्तर दिया- 'यह मान नहीं। यह वह चीज है जिसका सत्य दलों को ठोकरों से भी अपवित्र नहीं हो सकता। यह कार्ल मार्क्सका 'कैपिटल है ! कोच में उसके होठ फड़फड़ाने लगे। वह नास्तिक मार्क्स ! उसने कहा और मैंने इसे सिर से लगाया, चूमा तुम्हारे भगवान की ऐसी ही इच्छा थी। सिलसिलाकर मैंने उत्तर दिया।

'भगवान की नहीं, शैतान को तुम शैतान हो

भगवान मसीह

कोर से

के भोटो मेमने का रूप धारणकर तुमने मुझे बोला दिया है। पैर पटकती हुई पुस्तक लिए रसोई-घर की ओर चली गई। वहाँ से पुकारकर उसने कहा यह देखो !'

मैंने जाकर देखा कि ममकती हुई अँगीठी पर से देगची उठा वह पुस्तक रख दी गई है और उसमें से लपटें उठ रही है मेरी ओर

देखो

ने ललकारा यह देखो, तुम्हारे मार्क्स की आत्मा दोल की आग में जल रही है।

'लोरा की असहिष्णुता और कट्टरपना दिन-प्रतिदिन असा होता गया। मैं कुछ कह न सकता। कुछ दिन पूर्व की अपनी धर्मान्धता मेरी स्मृति में आ खड़ी होती उस दिन इस घटना से मुझे क्रोध आ गया। कोशिश की कि चुप रहूँ, पर रह न सका, कहा- 'तुम्हारे भगवान की इच्छा से एक दिन नीरो के दरबार में ईसाई सत्तों को इसी तरह जलाया जाता था। मुहम्मद गौरी ने भी इस देश में वेदों को इसी प्रकार जलाया था परन्तु वे दोनों आज भी जीवित हैं और मार्क्स के विचार भी जीवित रहेंगे। आज जल गई केवल हमारी आपस की सहानुभूति | अब हम दोनों एक साथ नहीं रह सकते उस दिन वह कपड़े सम्भाल पर से चली गई।

खबर मिली कि वह काँगड़ा जिला में अछूतों को ईसाई बनाने वाले मिशन मैं चली गई है। इस्पताल में नर्स का काम करके संकट से जीवन बिता रही है। सोचा, अपने गुरूर की बजह से यदि यह कष्ट उठाती है तो मेरा क्या कुसूर! फिर ख्याल आया कि रोटी कपड़े के लिए मेरी मुँह देखी कहती रहती तमी क्या मुझे उसका आदर करना चाहिए था उसे मैंने एक पत्र लिखा- कानूनन तुम्हें मेरी आमदनी पर अधिकार है। अनावश्यक आर्थिक कष्ट सहने की तुम्हें जरूरत नहीं। परन्तु मेरा सौ रुपये का मनीआर्डर इस उत्तर के साथ लौटाया नास्तिकों के पैसे पर मुझे अद्धा नहीं।

'उन दिन ईसाई समाज में मेरी खूब निन्दा हुई। लोगों ने कहना शुरू किया, नौकरी और बीबी के लिए मैंने धर्मात्मापन का ढोंग किया था। उस निन्द्रा से डरकर नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। शायद न देता, परन्तु जानता था कि गुजारा चल ही जायगा। पिता ठेकेदारी कर कई मकान बना गये हैं। समाज का यह माना हुआ कायदा है, कि बाप के या स्वयम हमारे सम्पत्ति जमा कर रख लेने से हम बिना हाथ पैर हिलाये भी मने में जिन्दगी गुजार सकते है। किसी समय यदि यह कायदा न बनाया जाता तो लोग न सम्पत्ति इकडी करते और न पैदावार के बड़े-बड़े साधनों का विकास हो पाता। लेकिन आज भी वह कायदा चला था रहा है। व्यक्तिगत रूप से मैं उससे काम उठा रहा हूँ। लेकिन यह भी देखता हूँ कि जब अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिये सम्पति या पैदावार के अधिक से अधिक साधन व्यक्तिगत रूप से जमा किये आते हैं तो लाखों करोड़ों लोग बिना किसी साधन के ही रह जाते हैं और फिर ऐसे लोग साधनों के मालिकों या सम्पत्तिशालियों के उपयोग की वस्तु


मात्र ही बन सकते हैं

तुम हमारे इन दो नौकरों को ही देख लो ! यदि अपने आराम के लिये हमें इनकी ज़रूरत न हो और पैसे वाले दूसरे आदमी भी हमारी तरह साचै तो इस श्रेणी के लोग जीवित केते रहेंगे

जीवित

रहने का कोई साधन इनके हाथ में नहीं, यदि इनकी सेवा की हमें आवश्यकता

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न हो लेकिन जनाब यह न समझ लीजिये कि मैं मार्क्सवाद का प्रचार करने चल दूँगा ! अब तो मैं बहुत सुविधा और आराम से जीवन बि

देना चाहता हूँ....

'हाँ, तो श्लोरा का यह हुआ कि पिछले अगस्त में उसका एक रजिस्टर्ड पत्र आया। वह चाहती है कि मैं हिन्दू धर्म ग्रहण कर लूं ताके उसका और मेरा विवाह सम्बन्ध टूट जाय। आज डेढ़ सरस से हम दोनों एक दूसरे से अलग हैं। उसे मैंने लिख दिया कि वह मुझे अदालत में तलाक दे सकती है। इसमें उसे अपमान जान पड़ता है। वह मुझसे पीछा छुड़ाना चाहती है परन्तु सम्मानजनक उपाय से | समाज का यह दूसरा नियम है कि स्त्री का सम्बन्ध जोवन भर एक पुरुष से रहे। बताइये अब यह नियम मेरे फ्लोरा और उस पुरुष जिससे फ़्लोरा विवाह करना चाहती है और उस स्त्री जिससे मैं विवाह करना चाहता हूँ, के जीवनों को मुसीबत में डाल रहा है या नहीं है जब तक स्त्री पुरुष की सम्पति समझी जाती थी, उसका एक पुरुष की बने रहना जरू या परन्तु चाज जब स्त्री को पुरुष के समान अधिकार देने की बात श्राप कहते हैं तो इस प्रकार के नियम या कानून की ज़रूरत सी पुरुषों का जीवन सुख शान्ति से बले, तभी तो समाज नियम कानून बनाता है आप इनकार नहीं कर सकते कि विवाह एक बन्धन है बन्धन उस समय लागू किया जाता है जब अव्यवस्था का डर रहता है। हैरान हूँ कि समाज में इस बन्धन का इतना आदर क्यों है? और बन्धनों की तरह इसे भी आजादी का शत्रु समझना चाहिये । तमाशा यह है कि लोग इस बन्धन में बँधने के लिये बेताब रहते हैं।

'न, न, विवाह बन्धन नहीं' बीच में टोककर हरीश ने कहा- 'विवाह एक लाइसेंस या परवचा है। बन्धन तो वास्तव में यह है कि समाज में कोई पुरुष किसी स्त्री से कोई सम्बन्ध नहीं रख सकता । परन्तु जब इस ढंग से काम नहीं चलता तब एक पुरुष को एक स्त्री के लिये परवन्ना या लाइसेंस दे दिया जाता है कि वे परस्पर सम्बन्ध पैदा कर सकते हैं।'

राबर्ट और शेल इस दिये। राबर्ट ने स्वीकार किया 'हाँ, आपने अधिक अच्छे ढंग से कहा या यो कहिये जिस तरह पराई सम्पत्ति लेना पाप है, उसी तरह दूसरे की औरत से बात करना भी पाप हैं परन्तु औरत ऐसी सम्पत्ति है।

जिसने अपने हाथ पैर और सिर है इसलिये उसे समझाया गया कि अपने मालिक से चिपके रहने में ही तेरा कल्याण है, तू पतिव्रता बनी रहना

शरीर को कुर्सी पर ढीला छोड़ एक सिगरेट सुलगाते हुये हरीश ने कहा-

' की पूर्ण स्वतन्त्रता का अर्थ है, विवाह की प्रथा को दूर कर देना वाह! तो फिर हो क्या शेल ने आशंका से चौंककर पूछा।

क्यों होने को क्या है 'उत्तेजित हो हरीश ने उत्तर दिया- तुम्हारे देश में यदि दमनकारी क़ानून दूर कर दिये जाँय तो क्या होगा ? इसी तरह विवाह का दमनकारी इन्धन दूर कर देने पर स्त्री-पुरुष अपनी स्वाभाविक अवस्था में रहेगी।'

'यह मैं नहीं मानी' ने विरोध किया एक सीमा तो होनी ही चाहिये।' 'मैं जानता हूँ, तुम क्यों नहीं मानती मुस्कराते हुये हरीश ने उत्तर दिया-बुरा मत मानना, तुम चाहती हो पति बनाकर पुरुष का शोर करना उससे काम निकालना। तुम चाहती हो कि पति कमाकर लाये और तुम उदाओ में पूछता हूँ कि यदि श्री संतन चाहती है तो उसके पालन की जिम्मेवारी से क्यों डरती है

'कैसा गुस्ताख़ है यह ?'

रोल ने कहा और फिर भी

राबर्ट को सम्बोधन कर बाल्सल्यपूर्ण स्वर में

टेही कर हरीश को सम्बोधन किया

सन्तान के प्रति पिता की जिम्मेवारी नहीं

क्यों नहीं, परन्तु उतनी ही तो जितनी कि माँ की १ पुरुष एक सन्तान पैदा करता है, इसका यह अर्थ नहीं कि वह उम्र भर थे और उसकी माँ का पेट भरा करे |दीश ने उत्तर दिया।

" जैसे कुछ करती ही नहीं १ शैल ने नया प्रश्न किया।

'स्त्रियाँ तीन तरह की होती है कुर्सी पर आगे बढ़ हरीश ने कहा- 'एक किसान-मजदूर श्रेणी की औरतें जो पति के बराबर ही काम करती है और पति की गुलामी करती हैं, पाते में दूसरी है, सफेदपोश लोगों की औरतें। यह लोग घर का वह काम करती है जिसे आठ दस रुपए माहवार नौकर बखूबी कर सकता है, हाँ सन्तान पैदा करने के काम को

रहने दीजिये.''

.

संकोच से मुह पर हाथ रख राबर्ट की ओर देख रोल ने पूछा वह कुछ काम ही नहीं


'काम है जरूर राबर्ट ने स्वीकार किया परन्तु सन्तान पाने के लिये ही हमारे समाज में आज दिन कितने लोग विवाह करते हैं सुन्तान हो जाती है, फिर प्राकृतिक मोह उसे पालने के लिये विवश कर देता है। इस देश में साधारणतः विवाह होता है इसलिये कि विवाह होना ही चाहिये। विवाह की ज़रूरत महसूस होने से पहले ही वह हो जाता है। जैसे आग लगने से पहले, आशंका के ख्याल से ही सरकारी इमारतों में आग बुझाने के लिये लाल रंग की माल्टियों लटका दी जाती हैं, या रात में सोने से पहले विरहाने पानी का गिलास रख दिया जाता है; उसी प्रकार समाज में विवाह हो जाता है और फिर लोग अपने प्रेम या आसक्ति को तृप्त करने के लिये जब अपने

आपको भूल जाते हैं उस समय भी उनके सामने पहने में चाँद से हँसते, खेलते बालक का चित्र नहीं होता। सन्तान तो बाद में था कूदती है। असल बात तो यह है कि आज का सभ्य समाज सन्तान से डरता है परन्तु प्रकृति उन्हें धोखा देती है, ठोक उसी तरह जैसे चिडिमार जाल में चारा फैला कर पक्षियो को धोखा देता है। प्रेमियों को दिखाई देता है, केवल शारीरिक आकर्पख का चारा, परन्तु इस चारे में छिपे रहते हैं सन्तान के आश के पदि ।' 'मुझे अपनी बात कह लेने दीजिये अपनी कुर्सी पर असंतोष से और धागे खिसकते हुए हरीश ने कहा- हाँ, तीसरी हैं अमीर श्रेणी की औरतें। पुरुष के मन बहलाव और संतान प्रसव करने के अतिरिक्त वे कुछ नहीं करतीं। अमीर लोग इन्हें बैठा-बैठा कर अपने शौक और शान के लिए खिलाया करते हैं जेंस तोता मैना या गोद के पालतू कुत्ते को खिलाया जाता है। आप बताइये ऐसी स्त्री समाज के उपयोग के लिये क्या करतीं हैं और समाज उसका पालन पोषण क्या करे वह समाज पर बोझ है इसलिये वह पुरुष की कृपा पर निर्भर रहती है, उसकी गुलामी करती है। इस समाज की स्त्रियाँ यदि इत और बटुआ हाथ में लेकर मनमानी साड़ियाँ और जेवर खरीदने की स्वतन्त्रता या जाती है तो अपने आपको स्वतन्त्र समझती है। परन्तु यदि ये स्वतन्त्रता से अपना घर बसाना हे या स्वतन्त्रता से सन्तान पैदा करना चाहे तो क्या ये स्वतन्त्र हैं'

यह तो मैं नहीं मान सकती कि भद्र श्रेणी की औरतें कुछ करती नहीं- शेल ने एतराज किया और फिर हँसकर कहा-'हाँ, तुम तो ऐसा कहोगे ही, समाजवादी जो बन रहे हो !'

अँगड़ाई लेते हुए राबर्ट ने मज़ाक किया करती क्यो नहीं नौकरो पर शासन करती हैं, पर सम्भालती हैं, पति से रूठती हैं और पति के दोस्तों

से हाथ मिलाती हैं। इस जमाने में तो औरत बनने में ही फ़ायदा है, शर्त इतनी है कि पति भद्र और अमीर हो और करा अपनी शक्ल अच्छी हो'- और आँख से शेल की ओर संकेत कर दिया।

राबर्ट के मजाक से बहस में बाती उच्च जना दूर हो गई। हँसकर हरीश ने कहा-अच्छा, आप ही बताइये, क्या यह उचित है कि एक आदमी की सेवा के लिये चार-पाँच आदमी रहें इसका अर्थ हो जाता है कि उस आदमी का जीवन सेवा करने वाले चार-पाँच आदमियों के जीवन से अधिक महत्व का है। यदि हमारे समाज में सब आदमियों के लिये शिक्षा और पढ़ाई का अवसर समान रूप से रहे तो केवल रोटी पर तमाम ज़िन्दगी बिताने के लिये कोई तैयार न होगा। ऐसी अवस्था में स्त्री की स्थिति क्या होगी क्यो न स्त्री मी पुरुष की योग्यता के समान ही काम करे और न्याइ कर साथ ही रहना हो तो कमाई कर अपना निर्वाह चलायें ।'

हरीश को निश्चर करने के लिये कुछ विद्रूप के स्वर में शैक्ष ने कहा- 'और खाना कहाँ लायें ।'

अरे चाहे जहाँ खाइये विद्रप की परवाह न कर हरीश ने उत्तर दिया 'होटल में लाइये या दोनों मिलकर पकाइये और बर्तन मलिये। मैं आप ही से पूछता हूँ; यदि कम से कम मजदूरी की खादमी दो रुपये रोज़ हो जाय तो आप किसने मौकर रख सकेंगी

ऐसा भी कहीं हो सकता है 'शेल ने बेपरवाही से कहा ।

हो क्यों नहीं सकता ? आप तो चाहती होगी न हो, पर हो खूब सकता फर्ज कीजिये, देश में बहुत से रोजगार बुल मजदूरी के ही हाथ रहने से उनकी आमदनी बढ़ लिये आपको नौकर कहाँ से मिलेंगे ? इंगलैण्ड में

है। हरीश ने उत्तर दिया जायें, रोजगार का सुना जाय तो फिर चोचलों के

ही कितने भले आदमियों के घर नौकर रहते हैं ?'

बाहरे तुम्हारा समाजवाद !'--शैल ने मुस्कराते हुये शाना दिया।

नींद को दूर भगाए रखने के लिये सिर सुजाते हुए राबर्ट ने कहा- 'समाजवाद दो तरह का होता है, एक तो यह कि बड़े आदमी गरीबों पर दया कर अपनी स्थिति कायम रखते हुए उनकी अवस्था सुधारने के बाद सोचें । दूसरा यह को गरीब आदमी अधिकार अपने हाथ में लेकर कायम करना चाहें। पहला हुआ गांधीवादी समाजवाद और दूसरा मार्क्सवादी-समाजवाद १ यह तुम्हारा 'दादा' अब 'कामरेड' बन रहा है, बचा सकती हो तो बच्चा हो '


'नो इरोश रखो। दो गोलियाँ

ने कहा- तुम अपनी पहले वाली क्रान्ति ही जारी

चलाओ, दो बम्ब उधर लोग तुम्हारे साहस की तारीफ़ करेंगे और शहादत के गीत गायेंगे और जो तुमने यह नई कान्ति चला कि नौकर को मालिक के खिलाफ, बी को पुरुष के खिलाफ भड़काना शुरू किया तो भले आदमियों में तुम्हारे लिये जगह नहीं।'

'हाँ, कांग्रेसी वा तुम्हारा साथ देने से रहे। इसकर राय ने समर्थन किया ? राबर्ट की बात से रोल का विद्रव और ताने का स्पर बदल गया। इसका भी क्या जीवन है सरकार इसे जंगली जानवर की तरह खोजी

फिरती है। साथी इसकी जान के पीछे पड़े हैं यह एकटक हरीश की ओर देखती रह गई।

हरीश कुलों से उठ खड़ा हुआ तो तुम्हें भी मुझ पर दया ही आती है, मेरे विचारों से कोई लहानुभूति नहीं

नहीं, नहीं' ने विरोध किया- 'दया नहीं मुझे तुम्हारे विचारों से पूरी सहानुभूति है परन्तु क्या करूँ मैं केमा सोचा करता हूँ, कर कुछ नहीं सकता।

हरीश ने मुस्कराकर शैल की ओर संकेत कर कहा- नहीं, मैं इनकी बा कह रहा था

यदि इतनी चैतन्य हो जायें तो फिर पुरुष उन्हें प्यार करना उनसे डरने लग जायें राबर्ट जोर से हँसकर उठ खड़ा हुआ।

'सुन लिया

कह हरीश अपने कमरे की ओर जा रहा था! पुकार कर सेल ने पूछा-खो जाओगे या खाजा पकी देकर

हरीश उत्तर देने के लिये लेट चाया विद्रयों का दला लेने के लिये उसने कहा जब तक स्त्रियाँ और किसी बोम्ब नहीं हो पाती तब तक अपना सम्मोहन उन्हें इसी प्रकार बनाये रखना चाहिये

रोल कोई उत्तर दे पाती, इससे पहले ही वह सम्बे कदम रखता हुआ चला गया परन्तु शयद बरामदे में पहुँच उसके कानों तक आ गई होगी। रोल राचसे कह रही थी— ली, तो कैसे चिड़चिड़ाकर काटने को दौड़ता है !! यदि हरीश ने इतना सुन मी पाया तो भी शैल के स्वर में बात की चिता उसे अनुभव नहीं हो सकती थी।

अपनी बात पूरी करते न करत शेल का मनोभाव विकुल बदल गया। राबर्ट के सन्मुख भी दूसरे युवक के प्रति अपने वालस्य का भाव प्रकट कर

सकने की स्वतंत्रता के कारण वह कृतकता में इसी गई। वह सोचने लगी, परन्तु क्या यह उचित होगा; समझदारी होगी विवाह के बाद भी

चौथे दिन तक बरफ़ बहुत कुछ पिप गई थी। मंसूरी के आस-पास के हरियावश से शून्य पहाड़ नीचे घाटी से ऊपर चोटी तक केवल चट्टानें और पाले से जली हुई पास का बिस्तर दिखाई पड़ने लगे। नैनसी लाहौर लौट चलने के लिये व्याकुल होने लगी। राबर्ट के कहने से वह दो दिन और ठहरी फिर राबर्ट को ही उसके कहने से चलने के लिये तैयार होना पड़ा। रोल को राबर्ट के इतनी जल्दी लौट जाने से दुःख हुआ परन्तु उसने हरीश के साथ कुछ दिन और ठहरने का निश्चय किया ।

उन्हें बंगले में छोड़ कुलियों के सिर पर बोझ सदया नैनसी और राबर्ट के चले जाने पर अब बहुत यत्न करने पर भी रोल के आँसू न तक सके तो हरीश उन्हें रुमाल से पोंछकर सुखाने का यत्न करने लगा। हरीश उसके

को जितना पड़ता उतना ही अधिक मात्रा में वे निकलते चले आते। सहसा हरीश को समझ आया इन आँखों को रोककर वह अन्याय कर रहा है। में एक गहरी वेदना अनुभव कर शैल को देवदार के राने के समीप अकेले छोड़ वह बँगले के दूसरी ओर जा एक पत्थर पर बैठ संध्या के इंगुर से रंगे पहाड़ के दलवानों में दूर गहरी खाईं की ओर नजर दौड़ाने लगा। कोई भी तक न पा उसकी दृष्टि अधर में ही रह गई। बेधी में वह सूखी लम्बी घास के तिनके तोड़ दाँतों से काट-काट कर फेंक रहा था।

मनुष्य का कोई श्रचरण निरर्थक नहीं होता। आचरण भाव का प्रकट रूप है। जैसे हरीश के दाँत पास के तिनकों को काट रहे थे, उसी तरह उसके हृदय को स्मृति के दाँत काट रहे थे। बरसों से दबा दी गई एक स्मृति उसके मन में जाग उठी थी। आखिर वह भी तो मनुष्य है। उसके मनुष्य शरीर में मी तो हृदय है। दबा देने से भी उसका अस्तित्व मिट नहीं गया है, उसकी गुली उस समय जद थीं परन्तु मन की आँखों के सामने गुलाई हुई स्मृति सी हो रही थी। जैसे राबर्ट चला गया, वैसे ही एक दिन वह भी अपने कंधे पर बोझ अनुभव कर उसने सुना 'उठो! यहाँ क्यों था "क्या सोच रहे हो ?'

बैठे !

'कुछ नहीं'

हरीश ने सिर हिला दिया।


"कैसे नहीं उसकी बाँह निकलते हुए शैल ने क्यों नहीं '

तुम क्या सोच रही थी इरोश ने उत्तर दिया- सोचने में ही तो मनुष्य स्वतन्य है और सब जगह तो परिस्थितियों के बन्धन है इसीलिये मैंने तुम्हारे सोचने में विघ्न डालना उचित न समा

"और आकर खुद भी सोचने लगे

क्या सोच रहे थे, सच बोलो "

'यहाँ श्री० एम०, दादा

काम कैसे होगा ?

धाने

"नहीं,"

"तुम क्या सोच रही थीं

एक गहरा स्वास से रोता ने कहा- सोच रही थीं पिछली ठोकरें और काव

मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था— हरीश ने उत्तर दिया।

बताओ, उठो शैल ने उसकी बाँह सींच आमह किया।

हरीश उठ कर टहलने लगा। शैल चुपचाप उसके साथ-साथ चल रही थी। कभी इस पहाड़ पर, कभी उस पहाड़ पर वह किसी वस्तु की और प्यान दिल्ली। हरीश देखकर केवल हूँ कर देता। शैल ने उपलम्भ के स्वर में कभी हो, बात का उत्तर भी नहीं देते।'

"देखो शैल, दुनिया के सामने अपने आपको छिपाकर जो वे चाहते हैं, वही मुझे बनना पड़ता है। आज तुम्हारे समीप अपने को छिराये रहने का कोई कारण न होने से मैं अपनी ही बात सोच रहा हूँ, पिना आडम्बर किये।

'शैल ने उसके हाथ को अपने दोनों हाथों में से पूछा।

यही व्यक्ति का जीवन भी एक चीज़ है? तुम तो जानती हो हरीया मेरा असली नाम नही

'हाँ, पहले तो तुम तिल थे। यह तो जेल से भागने के बाद का नाम बी० एम० ने मुझे बताया था।

देखो, सात बरस पहले ऐसे ही एक जाड़े की राह में गाँव का अपना चुपचाप छोड़ चला आया था। मेरा विवाह हुए दो बरस हुए थे और मेरा गौना अगले दिन होने जा रहा था।

'तुम बड़े निष्ठुर हो "

"मैं निष्ठुर शायद '

'तुम्हें उसकी याद आती है '

'यही तो मैं सोच रहा था। आाती भी है और नहीं भी जब सोचता हूँ पुरुष के जीवन स्त्री का एक प्राकृतिक स्थान है, तब याद आती है, मेरी भी एक थी। तब बहुत याद आती है वरना नहीं आती !"

अच्छा तुम उससे कैसा व्यवहार करते ?' कुछ सोच शैल ने पूछा। 'तुम पागल हो '

'नहाँ बताओ।'

'ठीक नहीं कह सकता...शायद मैं उसे देखता कि वह सुन्दर है

'और यदि वह सुन्दर न होती '

ऐसा भी होता है कि स्त्री सुन्दर न हो

'क्या सभी स्त्रियो सुन्दर होती हैं, इधर देखो ।'

'देख जो नहीं सकता।'

हरीश सूर्य की अंतिम किरणों में सुदूर हिम श्रेणी के शृंग की ओर देख रहा था। ओ अग्नि की स्थिर ज्याला की भाँति दीप्त थे। खूब उगडी हवा चल रही थी परन्तु उसे परवाह न थी।

शैल ने उससे भीतर चलने को कहा। उसकी ओर बिना देखे ही उसने जनाब दिया- 'तुम जाओ !

शैल उसके समीप ही खड़ी रही। देखते-देखते हिम शिखरों पर से सूर्य का प्रतिविम्ब विलीन हो गया और एक श्यामल नीलिमा छा गई। शैल ने फिर कहा- 'अब तो चलो ।'

क्या है वह शोभा तो गई

"हाँ, जिन वस्तुओं में आकर्षण नहीं रहता, वे उपेक्षित रहती हैं।' 'जे' 'स्वयम्'

कुछ देर चुप रह शैल ने दुहराया 'चलो आओ सर्दी लग जायगी, नौकर खाना लिये इन्सार कर रहा है।'


हरीश की चुप शैल के दिल का बोझ बन रही थी। वह सोचती थी, न जाने कौन दु:ख इसके दिल को कोंच रहा है। खाने के बाद कुछ देर चुपचाप बरामदे में चहल कदमी कर हरीश अपने बिस्तर पर जाना चाहता था परन्तु शैल उसे अपने ही कमरे में ले आई। उसने कहा- तुम्हें एक बात सुनाऊँ, तुमने नैनसी को नाराज कर दिया। वह कहती थी, बड़ा गरूर है। इतनी द इससे बोलने का पक्ष किया पर सदा ऐसे बात करता है, जैसे एहसान

कर रहा हो। मैं परक में फिसलने लगती तो ऐसे बाँह यामता था मानो मेरी बाँह में छूत का रोग हो ।

'अच्छा' हरीश ने उत्तर दिया- 'मैंने ख़ास स्पात नहीं किया। मेरा स्पात था, तुम्हारी तरफ '

हे

हैव ने उसकी आँखों में देख पूछा।

'हाँ'दीवार की ओर देख उसने कहा 'मुके राबर्ट से ईर्ष्या होती परन्तु द्वेष नहीं । तुम मेरा मतलब ग़लत तो नहीं समझों देसी शेत, तुमने जीवन में प्यार करके देखा है तुम्हें कोई अच्छा लगता है तो उसके लिए चाह होने लगती है और चाह होने पर उसे प्राप्त करने की चेष्ठा की जाती है। तुमने यह सब अनुभव किया है। इसमें जब बाधा आती है तो उस व्यथा को भी तुम जानती हो अच्छा अब मैं जाऊँगा

रोल ने उसका हाथ थाम बैठा लिया-नहीं, बैठो उसे चुप होते देख उसने आग्रह किया—'बोलो [आगे कहो ।'

'कुछ नहीं - हरीश ने कहा- मैं सोचता हूँ, क्या चाह जीवन का आवश्यक अंग है '

'शायद....... रोल ने जवाब दिया- 'देखो, पिछली दफ्रे ठोकर सा मैंने सोचा था, अब मन में चाह का अंकुर उगने न दूंगी। रावर्ट के कालिज से स्तीफा देने की बात पर सहानुभूति प्रकट करने गई थी । वहाँ फ़्लोरा की बात सुनी। राबर्ट की उदारता और महानता ने मन पर कुछ ऐसा प्रभाव डाला कि रोज़ जाने लगी। उसकी उदासी का ख्याल आते ही उसे देखे बिना मन न मानता जब सोचा क्यों जाती हूँ, उत्तर मिला इस शांत तटस्थ व्यक्ति की शान्त गति के साथ ही मेरे जीवन की यह शिकता गाड़ी चल सकेगी यह मेरे कलंकों की लिस्ट में एक और वृद्धि हुई। उसे ही मैंने अपना लक्ष बना लिया । और उसके बाद, फिल्मत का नारा पी० एम० जाने कहाँ से तुम्हें ले आया। तुम्हें पहचानने के बाद ऐसा जान पड़ा, मानो बहुत

दिन तुम्हारा प्रतीक्षा म

पूर्व जन्म का विचा

मिला। समझ नहीं सकी, भाई, मित्र, सन्तान या पति तुमसे कौन सम्बन्ध या बी० एम० की वह बात... 'कर लो किसी को अपना या हो रहा किसी के ' मैं तो सम्भव देख नहीं पाती। कपा संसार भर की अच्छाई एक ही व्यक्ति में समा सकती है और जगह अच्छाई दिखाई देने पर उसे कैसे अस्वीकार कर दिया जा सकता है? क्या मनुष्य हृदय का स्नेह केवल एक ही व्यक्ति पर समाप्त हो जाना जरूरी है हरि चुप हो गये, क्यों १ दुखी क्यों होते हो ?' उसके सिर पर गाल रख शेल ने पूछा

"तिर कुछ भारी जान पड़ रहा है' अपने सिर के बालों को पकड़ हरीश

ने कहा- 'तुम्हारी गोद में सिर रख कर ले गा ।'

'लेट जाओ न !' उसे लिटा शेल ने उसके माथे पर हाथ रख दिया।

'देखो, यदि सात बरस पूर्व उसकी जगह तुम होती और मैं तुम्हे यां पहचान पाता, तो क्या मैं तुम्हें छोड़कर जा सकता

हुए पूछा।

'जरूर, नहीं तो तुम 'तुम' न आँखें खोल हरीश ने देखा,

होते '

हरीश ने

दे

शैल की पलकों से दो बूँदें लटक रही थीं। 'तुम रो रही हो'—उसने पूछा। सिर हिला रोल ने इनकार किया। हरीश ने दोनों माँ उठा उसके गले में डाल उसका भाषा का अपने होठों पर रख लिया। शैल ने प्रतिकार न किया। अपने माथे पर शेल की की बूँदे

1

बहती अनुभव कर सिर उठा उसने कहा- 'यह क्या तुम तो रो रही हो ?' शैल ने फिर इनकार से सिर हिलाया। व्याकुल हो हरीश ने उसके होंठ चूम लिये शैल के शरीर में बिजली सी दौड़ गई, वह काँप उठी। भवराकर हरीश उठ खड़ा हुआ। शब्मा से लें झुका उसने कहा- 'दमा करना........ मुझसे ज्यादती हो गई मेरा अभिप्राय तुम्हें कष्ट देने का नहीं था।' शैल की असे मोठे-मोठे आँसू गिर रहे थे। उसकी गार्ले लाल हो रही थीं। उसकी ओर देखना से संकुचित हो हरीश अपने कमरे में चला गया।

क्षोभ और घबराहट की अवस्था में कपड़े पहने ही वह अपने बिस्तर पर जा लेटा वह बिजली के तीन प्रकाश में सामने की सफेद दीवार पर टकटकी लगाये पड़ा था। मीलों दूर तक के उस सुनसान में केवल अपने सिर की नाड़ियों के रक्त के वेग की साँय साँप ही सुनाई दे रही थी। बरामदे में शैल के कदमों की चाप भी उसे सुनाई न दी, दरवाजा खुलने की आहट से उसने उस


और देखा। शेख मुस्कराती हुई आरही थी । अव्यन्त मधुर स्वर में उसने पूछा 'नाराज़ होगये

मैं विस्मय से हरीश ने पूछा। उने अनुभव हुआ मानों प्रा

प्रवाह में डूबते हुए अचानक उसके पैर पृथ्वी पर था लगे हों।

'उठ क्यों आये

"तुम डर गई थीं

उसके बिस्तर पर बैठ गई ।

'पागल' तेल उसके बालों में उँगलियाँ चलाने लगी।

"स्त्रियों को पुरुषों से डर क्यों लगता है ' हरीश ने उसके गुल की र देख प्रश्न किया।

कौन कहता है डर लगता है और शायद लगवा भी हो, जब वे पशु रूप धारण कर लेते हैं ।'

'क्या मैं पशु बन गया था '

पागल इसीलिए मैं यहाँ आई हूँ?'

हरीश ने शान्ति का साँस लिया ऐसो शैल ऐसा जान पड़ता है, सात वर्ष पूर्व तुम्हें छोड़ आया था और अब फिर तुम्हारे पास आ पहुँचा मेरा अभिप्राय है नारी के रूप में शरमाकर उसने बात सम्भाली पति तुम पूछती थी, मुझे उसकी याद खाती

के रूप नहीं.. "साथी के रूप में

है परिपूर्ण सुन्दर नारी के रूप में जो अग्नि की सिन्दूरी लपट के समान मेरे सामने खड़ी है और मैं उसमें मा जाना चाहता हूँ। नारी शायद यही है और तुम उसका एक उत्कृष्ट रूप हो

शैल के गाल और

गुलाबी हो रही थी, मुख से शब्द निकलना

कठिन था। केवल एक मुस्कराती नज़र से हरीश की ओर देख उसने प्रकट किया कि वह नाराज़ नहीं।

भयंकर उन में से निकलने के लिये हरीश ने कहा-'सुनो, क्या स्त्री हमेशा ही पुरुषों को पीछे हटाती है १ करो यदि उन दोनों का मार्ग एक ही होउन दोनों का उद्देश्य एक ही हो ?'

क्यों:' भी ले जा सकती है-रोल ने उत्तर दिया।

को ती पुरुष के जीवन की पूर्ति करनी चाहिए उन दोनों को एक साथ आगे बढ़ना चाहिये नहीं क्या

'जरूर' शेल ने उत्तर दिया।

यदि पुरुष के जीवन विकास में श्री का आकर्षण विनाशकारी होता तो प्रकृति यह आकर्षण पैदा ही क्यों करती जिन वस्तुओं से मनुष्य के जीवन को भव है, उनसे वह डरता है, दूर भागता है परन्तु पुरुष स्त्री की ओर दौड़ता है, मानो उसके जीवन में कोई कमी है, जिसे वह पूर्ण करना चाहता है। क्या स्त्री भी पुरुष के प्रति ऐसा ही अनुमद नहीं करती १' हरीश ने पूछा। उसके स्वर से भावोद्रेक की तरलता दूर हो यथार्थ की धड़ता आती जा रही थी। उसका रुख व्यक्तिगत से साधारण की ओर होता जा रहा था। क्या मालूम झुकाकर शेल ने उत्तर दिया। रोल के इस उत्तर

मे हरीश को बधार्थ के वर्क से फिर व्यक्तिगत अनुभूति में बदल दिया । 'तुम नहीं अनुभव करती इसीलिए मैं सोचता हूँ मैं अच्छा आदमी नहीं हूँ निराशा से हरीश चुप हो गया।

नारी की स्वाभाविक अनुभूति से रोल को जहाँ शक्ति की प्रत्याश करनी चाहिये भी, यहाँ उदासी देख कस्था से अपना सम्पूर्ण साहस एकत्र कर कुका उसने कहा- शायद स्त्रियाँ कहती नहीं

डूबते हुए दूसी दफे सहारा पा हरीश ने कहा 'तुम्हें बुरा तो नहीं मालूम होगा यदि मैं एक बात कहूँ ?'

रोल के सिर हिलाकर इनकार करने पर काँपते हुए सर में उसने कहा- 'मुझे तुम्हारे प्रति आकर्षण अनुभव होता है नाराज़ तो नहीं हुई न !'''''

"बोलो।'

देश की आँखों में पिर आँसू पाना चाहते थे परन्तु ऐसे व्यक्ति के सामने जो क्रोध और संतोष के सुखों में अंतर नहीं समझता, ओठ दबाकर उसे कहना पड़ा 'आदर से भी कोई नाराज़ होता है।'

एकनकी भारी विजय के आह्लाद से हरीश के नेत्र चमक उठे शेत मेरी एक बात मानोगी

क्या '

पहले वायदा करो!'

शेल के सिर झुकाकर स्वीकार करने पर हरीश ने कहा- 'देखो शैल- उसके स्वर में कम्पन था मैं कुछ भी न करूँगा मैं केवल जानना चाहता हूँ, देखना चाहता हूँ, श्री कितनी सुन्दर होती है? मैं जी के आकर्षण को पूर्ण रूप से देखना चाहता हूँ।'


रोमांचित हो शैल ने पूछा- फैसे ?'

श्वास के वेग के कारण अटकते हुए हराश ने कहा- तुम्हें बिना कपड़ों देखना चाहता हूँ।'

शैल ने दोनों हाथों से मुल छिपा लिया। हरीश ने फिर कहा-जीवन में एक बार देखकर जान लेना चाहता हूँ, वह प्रबल आ

है क्या मेरे

जीवन में किसी और बी से यह प्रार्थना करने का न तो अवसर आयेगा और

न मुझे साहस ही होगा ' हरीश ने काँपते हुए स्वर में फिर पूछा - 'नाराज हो गई ?'

अब भी दोनों हाथो में मुल द्विराने भी

मुख को हाथों से दाँपे सिर हिला उसने फिर इनकार किया। हरीश आगे बढ़कर उसके मुख से हाथ हटाने लगा। रोल ने अपनी दोनों बाहें हरीश के गले में बाल दीं। हरीश ने अनुरोध किया—'नहीं कर सकतीं इतना मुख दूसरी ओर कर उसने पूछा कैसे करूँ और फिर हरीश की ओर देख वह बोली- 'ड़ा कठिन है" में नहीं कर सकूंगी ! निराश से सिर का हरीश ने कहा- 'तुम्हारी इच्छा

पर मैं कैसे करूँ ? गर्दन कुछ अपनी बाँहों को आपस में बल देते हुए उसने पूछा। उसी समय उसे स्मरण हो आई हरीश की वह बात जीवन मैं किसी और स्त्री से तो तुम तो सामने बैठे हो।' उसने बेबसी से कहा हरीश ने उत्तर दिया-बरामदे चला जाता हूँ तुम बुलाओगी दो

आ जाऊँगा |

उठ कर चला गया। हरीश के बरामदे में चले जाने के बाद शरीर से कपड़े उतारना शेता के लिए अपनी त्वचा उतारने के समान कठिन जान पड़ने लगा। परन्तु हरीश के निराशा से सिर का लेने की बात सोचकर वह स्वयम् अपने ऊपर जबरदस्ती करने के लिए विवश थी मृत्यु के मुख में फैला हुआ यह सबका जो बात कहता है, उसकी उपेक्षा कैसे की जाय एक-एक कर अपने कपड़े उतार शरीर को शाम में लपेट लिया परन्तु हरीश को बुलाये यह किस तरह । बिजली का विच दया उसने अँधेरा कर दिया।

संकेत समझ शनैः शनैः क़दम रखते हुए हरीश स्विच के पास पहुँचा। प्रकाश होने पर उसने देखा शैल के बस्त्र उसके बिस्तर पर पड़े हैं और वह सिर झुकाये, दीवार के सहारे शाल में लिपटी बैठी है।

दो कदम दूर ही खड़े हो हरीश ने कहा- यह शल काँच का तो बना नहीं है।' रोल की आँखें मुंदी थीं। शाल का एक छोर उसने छोड़ दिया ।

उसकी पीठ दिखाई देने लगी। हरीश ने पहाड़ी हो !' दरीश के दो द अनुरोध करने पर वह धुर्वे की बल खाती लट की तरह सीधी खड़ी हो गई। उसकी आँखें मुंदी हुई थीं। हरीश ने फिर कहा 'एक दफे सोलो!'

शैल ने अपसुंदी आँखों से हरीश की ओर देखा और फिर तुरन्त बैठ शाल ऊपर से बोली- 'जाओ बाहर '

हरीश चला गया। दो मिनट में पूरे कपड़े पहन रोश अपने कमरे की ओर जा रही थी। हरीश उसके पीछे गया। वह अपने बिस्तर पर लेट गई जैसे वह बहुत थक गई हो।

उसके तकिये के पास खड़े हो हरीश बोला- देखो शैल, मुझे ऐसा अनुभव होता है जैसे बहुत कुछ पा लिया एक पूर्याता सी जैसे तुम

मेरी हो और में तुम्हारा और इसी भरोसे मैं अपने बीहक मार्ग पर बढ़ता चला जाऊँगा। नहीं तो तुम्हारे सामने अपराधी होऊँगा ।'

उसका हाथ ग्राम अपने बिस्तर पर बैठा शैल ने उसकी गोद में सिर रख दिया।

हरीश ने कहा- 'अब यदि और कोई मुझे न समझ सके, तो तुम्हारी • सहानुभूति तो मेरे साथ रहेगी न

आत्मदृष्टी और संतोष में एक दूसरे की उपस्थिति अनुभव करते हुए के चुपचाप बैठे रहे। हरीश ने शैल के सिर पर हाथ रखकर पूछा मैंने जो पाया,

वह तो मैं जानता हूँ,

तुमने क्या पाया

क्या बताऊं हरीश,

"शायद सब कुछ, जो कुछ है..... अपने अस्तित्व को अनुभव करने की तुति

चाहा जा सकता

अवरुद्ध भावना

"इसे

के लिये मार्ग.....देखो तुम चाहते हो केवल शासन में क्रांति परन्तु समास की व्यवस्था के बन्धन में व्यक्ति के अवषयमा कैसे पटाते हैं, तुमने जाना..... क्या यक्ति को जीवन में कामना पूर्ति का अधिकार नहीं चाहिए. मैं तो सबसे समीप यही बन्धन अनुभव करता हूँ !'

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रचनाएँ
दादा कामरेड
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दादा कामरेड पहली बार 1941 में प्रकाशित हुआ था। इसे हिंदी साहित्य में एक अग्रणी राजनीतिक उपन्यास माना जाता है। उपन्यास अर्ध-आत्मकथात्मक है, और हरीश नाम के एक युवक की कहानी कहता है जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो जाता है। उपन्यास स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के विषयों की पड़ताल करता है, और क्रांतिकारी संघर्ष के शक्तिशाली और मार्मिक चित्रण के लिए इसकी प्रशंसा की गई है। यह उपन्यास 20वीं सदी की शुरुआत पर आधारित है और इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में हरीश के बचपन से होती है। हरीश एक प्रतिभाशाली और जिज्ञासु लड़का है, और वह स्वतंत्रता और समानता के उन विचारों की ओर आकर्षित होता है जो उसने अपने पिता, एक गांधीवादी राष्ट्रवादी से सुने थे। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, हरीश स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया और अंततः उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। जेल में, हरीश की मुलाकात अनुभवी क्रांतिकारी दादा से होती है, जो उसके गुरु बन जाते हैं। दादा हरीश को वर्ग संघर्ष के महत्व के बारे में सिखाते हैं, और वह हरीश को एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष जारी रखने के लिए प्रेरित करते हैं। जेल से रिहा होने के बाद, हरीश एक पूर्णकालिक क्रांतिकारी बन गया, और उसने अपना जीवन स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के संघर्ष में समर्पित कर दिया। दादा कामरेड एक शक्तिशाली और मार्मिक उपन्यास है जो स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के विषयों की पड़ताल करता है। यह उपन्यास हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर है और क्रांतिकारी संघर्ष के यथार्थवादी चित्रण के लिए इसकी सराहना की गई है।
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 दुविधा की रात

11 सितम्बर 2023
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  यशोदा के पति अमरनाथ बिस्तर में लेटे अलवार देखते हुए नींद की प्रतीक्षा कर रहे थे। नोकर भी सोने चला गया था। नीचे रसोईघर से कुछ खटके की थापालाई कुँमलाकर यशोदा ने सोचा- 'विशन नालायक जरूर कुछ नंगा

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 नये ढंग की लड़की

11 सितम्बर 2023
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 मध्यम रही अनिथित स्थिति के लोगों की एक अद्भुत चमेली है। कुछ लोग मोटरों और शानदार बंगलों का व्यवहार कर विनय से अपने आपको इस श्रेणी का अंग बताते है। दूसरे लोग मज़दूरी की सी असहाय स्थिति में रहकर भी

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 नये ढंग की लड़की

11 सितम्बर 2023
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 मध्यम रही अनिथित स्थिति के लोगों की एक अद्भुत चमेली है। कुछ लोग मोटरों और शानदार बंगलों का व्यवहार कर विनय से अपने आपको इस श्रेणी का अंग बताते है। दूसरे लोग मज़दूरी की सी असहाय स्थिति में रहकर भी

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 केन्द्रीय सभा

11 सितम्बर 2023
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 कानपुर शहर के उस संग मोहल्ले में आबादी अधिकतर निम्न श्रेणी के लोगों की ही है। पुराने ढंग के उस मकान में, जिसमे सन् २० तक भी बिजली का तार न पहुँच सका था, किवाड़ विज्ञायों के नहीं कंदरी और देखा के

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 मज़दूर का घर

11 सितम्बर 2023
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 हरिद्वार पैसेंजर लाहौर स्टेशन पर आकर रुकी। मुसाफिर प्लेटफार्म पर उत्तरने लगे। रेलवे वर्कशाप का एक कुली, कम्बल ओ और हाथ में दं ओज़ार लिये, लाइन की तरफ़ उतर गया। राक्षत रास्ते से आदमी को जाते देख ए

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 तीन रूप

11 सितम्बर 2023
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 शैलपाला अपने कमरे में बैठी जरूरी पत्र लिख दी थी। नौकर ने जबर दी, दो आदमी उससे मिलने आये हैं। लिखते-लिखते उसने कहा- नाम पूछकर श्रो लोटकर बोकर ने उसे एक चिट दियां चिट देखते ही वह तुरन्त बाहर आई। ह

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मनुष्य

11 सितम्बर 2023
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 दिन-रात और अगले दिन संध्या तक बरफ गिरती रहने के बाद रात में बादल पढ़ कर उस पर पाला पड़ गया। सुबह से स्वच्छ नीले आकाश में सूर्य चमक रहा था। नीचे विछे अनंत श्वेत से प्रतिबिम्बत धूप की कई गुणा मढ़ी

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गृहस्थ

13 सितम्बर 2023
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 ० आर०' और 'हरीश' वह दो नाम अमरनाथ के मस्तिष्क में बारी-बारी से चमकते अपनी शक्ति पर सन्देह करने की कोई गुंजाइश न थी "ठीक बाद था ठीक उसने अपना नाम ० कारखाना और पद उसका नाम बताती है, 'परी' ये सोचते

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 पहेली

13 सितम्बर 2023
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 मंग के सामने कुराड़ी में बेत के काउच पर राबर्ट और शैल बैठे दुबे थे। राबर्ट के एक हाथ में सिगरेट था और दूसरे हाथ में एक पर अनेक दिन के बाद प्रतोरा का पत्र आया था राम पत्र पढ़कर रोल को सुना रहा था-

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 सुलतान १

13 सितम्बर 2023
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पंजाब-मिल, सितारा-मिल, डाल्टन मिल आदि कपड़ा मिलों में डेढ़ मास ताल जारी थी। हड़ताल समाप्त होने के आसार नज़र न आते थे। जून की गरमी में जब लू धूल उड़ा-उड़ा कर राह चलने वालों के चेहरे झुलसा देती थी राबर्

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दादा

13 सितम्बर 2023
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 लाहौर की बड़ी नहर के दाँवे किनारे की सड़क पर दादा साइकल पर चले जा रहे थे। उनसे प्रायः बीस क़दम पीछे-पीछे दूसरी साइकल पर श्रा रहा था जीवन । माडलटाउन जाने वाला पुल लाँघ वे नहर के दूसरे किनारे हो गय

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 न्याय !

13 सितम्बर 2023
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 दकताल में माज़दूरों की जीत होगई। उत्साहित हो कर दूसरों मिलों और कारखाना के मज़दूरों ने भी मज़दूर समायें बनानी शुरू कर दीं। कई मिलों में और कारखानों के क्वार्टरों में रात्रि पाठशालायें जारी हो गई।

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 दादा और कामरेड

13 सितम्बर 2023
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 अदालत से लोड कर शैक्ष ज्वर में पलंग पर लेट गई। ज्वर मूर्छा में परिणित हो गया। उसे कुछ देर के लिये होश आता तो वह अपने इधर-उधर देख कर कुछ सोचने लगती और फिर बेहोश हो जाती। मुआजी उसके सिराहने बैठीं ब

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