अदालत से लोड कर शैक्ष ज्वर में पलंग पर लेट गई। ज्वर मूर्छा में परिणित हो गया। उसे कुछ देर के लिये होश आता तो वह अपने इधर-उधर देख कर कुछ सोचने लगती और फिर बेहोश हो जाती। मुआजी उसके सिराहने बैठीं बार-बार बरफ़ की टोपी उसके सिर पर रखतीं और आया उसके पैर मलती। यत्र करने पर मी उसकी बेहोशी रुक न पाती, बेहोशी में धीमे स्वर में वह ने लगती जैसे किसी से बात कर रही हो। कमी यह पंजाबी में बोलती कभी हिन्दोस्तानी में और कभी भी में पाते। कभी वह सिर दर्द से चीखने लगती
इसी तरह दो सप्ताह बीत गये।
दुलाजी और शाया कुछ समझ न कमी उसे उल्टी होने लगती ।
शैक्ष के पिता की अवस्था स्वयम् भी रिस्तर से उठने लायक न थी परन्तु लड़की की चिन्ताजनक अवस्था तुम कर वे कई बार उतर गये। घर का पुराना डाक्टर सुबह शाम आकर देख जाता। उसी के निर्देश के अनुसार इलाज चल रहा था। बुआजी ने और बड़े डाक्टर को बुलाने के लिये लालाजी से कहा ।
जिस समय गया बार ऐसा को देखने आया, वह होश में न भी। परन्तु जिस समय डाक्टर लौट रहा था, उसे होश आ गया। डाक्टर को देख उसने कहा - 'जाक्टर साहब, मुझे तो कुछ भी नहीं, मैं तो बिलकुल ठीक हूँ।" 'यही तो मैं भी कहता हूँ बेटी, नहीं। बहुत बल्द ठीक हो ग
डार ने उत्तर दिया-बरा
याने रोल को बताया डाक्टर ने कान में एक की नाली लगा उसके शरीर को अच्छी तरह टोला पर देखा और पिताजी को सब कुछ समझा गया है। डाक्टर के नुसरे के अनुसार तीन-तीन पटे बाद शेल को दवाई का सम्म पिलाया बाया और बेहोशी आने पर दवाई पाई जाती थी। इमानी को समीप पाने पर शैल चिंता से पूछती 'खाकर पिताबी से क्या कह गया है ?
विश्वास था, अनन्त विश्वास शायद अन्ध विश्वास या विचारों के मेद की मैंने परवाह न की अपने आपको समभ्यया नये समय के साथ नये विचार आते हैं और अनुभव तुम्हारे विचारों को बदल देगा। यदि तुम्हारे विचार न बदलेंगे तो विचारों के लिए उठाना मनुष्यत्व का अंग है, धात्मिक पक्ष का प्रमाद है। इस सब के बावजूद मुझे विश्वास था कि तुम सदा सत्य पथ पर धड़ रहोगी। जिस प्रकार अपने विचारों के लिए कष्ट उठाने के लिए तुम तैयार थी सब कुछ बलिदान कर देना चाहती थी उसी प्रकार (अपने शिथिल होते हुए स्वर को सम्माकर उन्होंने कहा- आचार पर मी डढ़ रहोगी
शैल की ले लुक गई। शाला ध्यानचन्द का स्वर भी एक गया। हृदय और मस्तिष्क पर विशेष जोर देकर उन्होंने फिर कहार जो कुछ कह गया है, उसके बाद में आगे रहने का साम
नहीं शायद पिछले जन्म के कर्मों का फल अन्त में इसी रूप में ने खमने आना था परन्तु इसे प्राथ रहन सकूँमा प्राय निक जाने के बाद यह सब होने से मेरा यु के बाद भी यकृत होता परन्तु लोगों को मेरे मुख पर मूकने का अवसर न मिलता। तुम्हारे मोह में यह भी सोचा कि आत्म-हत्या कर तुम्हें स्वतन्त्र कर दूँ, परन्तु उड़ा है। जो कुछ इक बची है, नही रहे। यहाँ इव शहर और इस मकान
में यह कलंक प्रकट न हो यही मुझे कहना है।"
जिस संकट की काका से रोल बार-बार डाक्टर की बात पूछ रही थी, वह सामने था गया। शैल की आँखों में नहीं चाये धीमे परन्तु ह स्वर में उसने कहा - पिता की मेरा मार्ग साधारण प्रया के मार्ग से अलग रहा है। मैं आपके से जन्म पर वह नहीं होगी और आपका सबसे बड़ा बरदान मुके त्वतंत्रता के रूप में मिला है। जो कुछ भी मैंने किया, विचारों के मेद के कारण दो मैं अपने किसी भी काम के लिए
अपनी बुद्धि के सामने सन्चित नहीं हूँ
मुझे पता भी नहीं। यदि मैं अपने आपको पनी समझती वो अपना जीवित मुख संसार को कमी न दिसाठी एक ही दो दिन में मैं यहाँ से पक्षी आऊँगी, ऐसी किसी बराइ जहाँ से मेरे कार्यों के कारण आपको हल्लित न होन
कुछ देर चुप रह दीर्घ निश्वास लेकर कुके हुए माये पर हाथ रख ध्यानचन्द ने कहा- जो भी हो, यह सब तुम्हारा ही है, जो कुछ जरूरत हो साथ ले जा सकती हो
नहीं पिताजी, कुछ नहीं चाहिये' कहा......केवल आशीर्वाद चाहिये
सड़की से बाहर देखते हुए रोल ने और यदि वह भी नहीं दे सकते तो
भी अपने विचार में आपके आशीर्वाद के योग्य हूँ स्त्री होने के नाते जो मेरा अधिकार है, उससे कुछ अधिक मैंने नहीं लिया है। मैं मनुष्य हूँ, मनुष्य बनी रहना चाहती हूँ ।'
पिता लाठी टेकते हुए नीचे चले गये। शैल ने एक गिलास जल मँगा- कर दिया और चिन्ता में मग्न हो गई। पर दूसरे प्रकार की चिन्ता में क्या होगा इस चिन्ता में नहीं क्या करना होगा ? इस चिन्ता में
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जाऊँगी, पर कहाँ जाऊँगी ?-रोल सोच रही थी। यह लेटी थी उठ बैठी। मुझे जाना है-उसने सोचा- शायद बहुत चलना पड़ेगा, मैं चा सकूंगी.....नहीं अब मैं कमज़ोर नहीं हूँ। हरीश, मैं घबराऊंगी नहीं, मैं तुम्हारी साथी हूँ, तुम्हारो कामरेड तुम फौती का हुक्म सुनकर भी मुस्करा दिये और मैं चल नहीं सकूंगी !मूलों की की-श्री से डर जाऊँगी १
बह उठकर कमरे में टहलने लगी। उसके पैर कुछ लम्साये परन्तु वह टहलती रही कोई भय नहीं हीं, मैं चल सकूंगी यह कुर्सी पर बैठ गई । मुझे क्या चाहिये ; कुछ नहीं बस साहस समाज मुझे उस नहीं सकेगा, दया नहीं सकेगा।
पर शैल जायगी कहाँ ? राबर्ट उसका मित्र था, अत्यन्त उदार - उसने मुंह फेर लिया मुझे सहायता नहीं चाहिये अपने पैरों पर लूंगी- वह फिर टहलने लगी। मैं कमज़ोर हूँ कोई फिक्र नहीं। ठीक हो जाऊँगी। उसने आया को पुकारा । आया के आने पर उतने एक गिलास गरम दूध लाने के लिये कहा। दूध के प्रति उसे कभी रुचि न थी परन्तु कमजोरी दूर करने के निश्चय से वह उसे पी गई। आया से उसने पूछा 'खाया, अ तो हम ठीक है न कमज़ोर तो नहीं
शेल के मस्तिष्क में उठते हुए तूफान को कुछ भी न समझ आया ने उत्तर दिया- 'हाँ बीबीजी, अब तुम ठीक हो ।
अच्छा या बहन, बाओ आराम करो। तीन चराठे में फिर भ दे जाना । श्राया के चले जाने पर वह सोचने लगी जाऊँगी कहीं भी चली जाऊँगी यह संसार बहुत विस्तृत है. हरीश को जीवित रखूँगी ....उसे पढ़ा करूँ.....वह हरीश का काम चलायगा 'हाँ, कमज़ोरी दूर करने के लिये सोना चाहिए। वह लेट गई और सचमुच सो गई। श्राया जय तीन घण्टे बाद दूध लेकर आई, शैक्ष सो रही थी।
में
नींद खुलने पर शैल ने देखा, संध्या का अँधेरा हो गया है, और मदी देखे स्वप्न की पाठ सोच रही थी और सोच
बना है। वह तुरन्त के
रही थी कि स्वश की बात पर तो
प्राची विश्वास किया करती है और वे भी
कहती है दिन में देखा स्वप्न ठीक नहीं होता। उसी समय नीचे से नौकर ने आकर कहा- दादाराम नीचे बहुत देर से मिलने को बैठे हैं
'दादाराम कौन ?' विस्मय से रोल ने पूछा और लगा आने पर बीती- यहाँ ले आओ।"
एक मिनट में दादा सामने आगये।
'दादा, आप दादा आपही की बात तो मैं सोच रही थी।' रोत ने कहा। मैंने अखबार में सब कुछ देखा है बादा ने बहुत उदास और भीगे हुए स्वर में कहा—शैल बहन मुझे असोस है फिस सुरवड़ी में वह वपया तुम्हें दे गया था। 'नहीं'
शोषित की जीत हुई
नेवा से कहा-सी से तो उस साई में उनकी मुक्ति की इमारत की आधार शिक्षा होगी।
दादा, अन्तिम बात उन्होंने कही थी, दादा को मेरा प्यार धन्यवाद देना।'
दादा की खाँले भीग
कहा---'हरीश चला गया
ना और
गई। उन्हें पते हुए सांस सम्मी भरकर उन्होंने
पर क्रान्तिकारी का आदर्श कायम कर गया।
'नहीं दादा, वे अभी जीवित रहेंगे
'क्या'दादाने आश्चर्य से पूछा
खाली फिर गई।
'दादा, आप मुझे लेने आये है न
'क्या मतलब तुम्हारा '
देश ने आँखें नीचे
रोल के पीछे मुख पर बाकी
"मेरी तबियत खराब हो गई थी दादा'विस्तर की चादर के तारों को खून से होते हुए शैल ने कहा जो ने मुझे कह दिया है मैं चली जाऊँ... कर्तक को सह नहीं सकते मैं ऐसी जगह चली जाना चाहती हूँ, हाँ मैं बनी न समझी जाऊँ।'
क्यों ?- दादा ने रोल के मुख की ओर ध्यान से देकर
मका करते हुए पू
"दादा, क्या आप भी मुझे लंकिनी समझते हैं।"
'तुम्हें
खबरदार
देखो, रोल उस दिन की बात पर मुझे लज्जित न करो,
यह तो तुम्हारे जीवन का स्वाभाविक मार्ग है। मैं।
बल्कि बहुत खुश हूँ...यह तो बहुत अच्छी बात है। बहिन, देखो मुझे बहुत बातें तो करना खाता नहीं
'दादा, मुझे ले चलो' ''मैं यदि किसी का सहारा ले सकती हूँ तो तुम्हारा । पर शैल,' "तुम्हें जिस तरह जीवन बिताने का अभ्यास है ?'
नहीं दादा, उस को जाने दो। तुम्हारे साथ पेड़ के नीचे जिन्दगी बिता सकूंगी।'' दादा सचमुच और तुम्हारे हरी की तुम्हारे हाथों में वे दूंगी।'' तुमने कहा था न, मैने तुम्हारे हरी को तुमसे छीन लिया '
दादा कुछ देर फर्श की ओर देखते दाँत से मूँछ खांटते रहे फिर हाथों के पंजे बाँध शैल की आँखों में देख उन्होंने कहा- मैं यह सोचता था फि मेरा जीवन निष्ययोजन हो गया है। जिस कार्य का साधन अपने आपको मैं बनाया था, उस कार्य की आवश्यकता न रहने से मैं बेकाम हो गया। पर तुमने मेरे लिये काम तैयार कर दिया है। मैं समझता था कि दिये की जो चुभती जा रही है, मैं अब किसके लिए बिगा
'दादा जोत कभी नहीं घुमाती ।
मुझे ले चलो।'
'उठो कामरेड !'
खड़ा रहे थे। उसकी
'नहीं दादा, चलो !
"हम चलेंगे जोत को जारी रखेंगे
दादा उठ लड़े हुए और शैल भी उठी। उसके पैर दयामर दादा ने कहा-'हो कामरेड'
ऐसे ही चलेंगे !"