मापनी- 2122 2122 2122 212, समान्त- काफिया-- अर, रदीफ़- पर
" गीतिका "
उठ रही है यह नजर अब मौकए दिलदार पर
पर पराए भी चलन चलने लगे एतवार पर
बढ़ रही है दिल की हलचल चाहतें चढ़ने लगी
हो गया विश्वास मानों खुद के ही किरदार पर।।
रोज होती थी शिफारिश रोज ही फरियाद भी
अब सुलह यह सज संवर चलने लगी रफ़्तार पर।।
क्या बताऊँ क्या कहूँ किसको दिखाऊं आइना
हर जगह पर टंग गई सूरत शहर चोबार पर।।
अब छुपाकर क्या करूँ कैसे मिलाऊँ यह नजर
जो उभर कर आ गई है खुद ही इस दीदार पर।।
तिल समझकर भूलना गुमराह दर होती नहीं
खुद भुलाकर याद करना पाठ किस आधार पर।।
चल पड़े तो मिल गई अब मंजिले इस राह में
यार चल गौतम गिला करते नहीं है प्यार पर।।
शब्द हैं तरकस बहुत पर याद आते बाद में
त्वरित तुक मिलते नहीं रूप रंग श्रृंगार पर।।
जो मिले उनको सहज ही रख दिया सहेज कर
फिर मिलेगी भावना जो आज हैं उपहार पर।।
दिन रहा सुंदर सुहाना शाम भी होगी मधुर
उफ़ कहाँ से आ गई ये गर्मियां दीवार पर।।
यह दशहरा याद में आएगा हर उद्दान को
गीतिका गाती रहेगी हिंद सर अख़बार पर।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी