मापनी- 2222 2222 2222 222,
"गीतिका"
कोई तो चिंतन को मेरे आकर के उकसाता है
बहुत सवेरे मन को मेरे आकर के फुसलाता है
अलसाई बिस्तर की आँखें मजबूरी में ही खुलती
कुछ तो है आँगन में तेरे छूकर के बहलाता है।।
कोयल सी बोली मौसम बिन गूँज रही आकर सुन लो
फूलों औ कलियों की बगिया आकर के महकाता है।।
मेरे दामन के काटों को चुन-चुन करके ले जाता
किशलय कोमल कण पराग ले आकर के सहलाता है।।
बहुत मना करता हूँ उसको पर वो बहुत सयाना है
रातों में सोने से पहले आकर के मिल जाता है।।
क्या कोई अंजाना होगा पकड़ नहीं पाते उसको
भौंरों के जैसा ही खुद वह आकर के मँडराता है।।
गौतम अपने घर पर रहकर बोल किसी का बन पाया
उत्तर हैं बहुतेरे मुख प्रश्नाकर के मुरझाता है।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी