उड़ रही थी एक मैना निर्भीक होकर खुले गगन में। मगन थी, अपने विश्वास से परिपूर्ण होकर अपने पंख फड़फड़ाये जा रही थी। बे-खबर थी, उन शिकारी परिंदों की ललचायी आँखों से जो अपनी उड़ान तभी भरते हैं जब कोई नयी मैना आकाश से मंत्रमुग्ध होकर अपने हौसलों को हवा में उछाल कर अपने कोमल पंखों से आश्वस्त होना चाहती है और शायद दिखाना भी चाहती है अपने जीवन के वजूद को।
अभी कुछ ही दूर तो उड़ पाई थी कि उसका आकाश थर्रा गया, जमीन हिल गई। समझ भी न पाई कि आकाश में परिंदों की शक्ल में भेड़िए कहाँ से आ गए। उनसे बचने के लिए चीखने लगी, चिल्लाने लगी और जोर लगाकर पंख चलाने लगी पर नाकाम रही और शिकार हो गई अपने ही शक्ल सूरत जैसे परिंदों से। क्षत-विक्षत होकर जमीन पर गिर पड़ी और अपलक देखती रही काले बादलों से घिरे आकाश को, नहीं दिखा उसे कोई सूरज जो प्रकाश देता है। धीरे-धीरे अंधेरा घिरने लगा उसकी आँखों में और कब रात हो गई उसे कुछ भी पता नहीं चला, अपनी गति पर चलकर सुबह भी हुई और लोगों ने देखा उसके लतफल पंख को, उसके घायल ज़मीर को पर उसके दर्द पर मरहम किसी ने नहीं रखा! शायद वह बहुत, बहुत ऊपर तक उड़ गई थी अपने शरीर को जमीन पर छोड़कर, कभी न उड़ने के लिए।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी