"मनहरण घनाक्षरी"
नमन करूँ प्रभु जी पूरण हो काज शुभ सेवक हूँ मैं आप का शिल्प तो सिखाइये
विनती है परमात्मा पुकारती मेरी आत्मा शब्द के श्रृंगार शब्द आप ही सजाइये।।
छंद के विधान भाव घनाक्षरी कवित्त चाव कवि रचित रचना स्नेह फरमाइये
पाठक प्रसन्न रहें लेख नी चैतन्य रहें कीर्ति यश गाथागान मान भी बढाइये।।-१
कलम अधीर हुई भाव ले फ़क़ीर हुई हरि इस पगली को अब समझाइए
रुक रुक चलती है शब्द पे मचलती है दिन-रात गुनती है लिखना सिखाइए।।
बड़ नखराली लगे कविता दीवानी लगे तोता जैसे राम राम इसको रटाइए
शायद ये बोल पड़े कंठ दिल खोल पड़े गुमसुम बैठी मंद तनिक हँसाइए।।-२
महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी