"मनहरण घनाक्षरी"
जनक नंदिनी सीता चाहत चाह पिता की जगत रक्षिणी न्यारी वैदेही सुकुमारी।
धन्य सु-अवतरण मिथिला रजत कण कुंभ हल धार फल जानकी अवतारी।।
खुशी चहुँ ओर भयो जनक विभोर भयो नगरी निहाल हुई बढ़ती फुलवारी
दिन प्रति रात बाढ़े जनक सुता निहारे पावन गुलाल लाल गुंजित किलकारी।।-१
महारानी सुनयना मुँह निकले न वैना रोम रोम पुलकित नयना निहारती
छोटे छोटे हाथ पाँव पलना में लली चाव घुँघराले केश कल्प रूप को सँवारती।
लेती बलैया पुलक चूमें हैं भाल ललक हिया से लगाय रहीं आँचल दुलारती
धन्य है भाग्य भवन एक साथ चार जन्म चारों दिशाएं पलक ललना पुकारती।।-२
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी