वेटिंग रूम, लघुकथा
गर्मी का तपता हुआ महीना और कॉलेज के ग्रीष्मावकाश पर घर जाने की खुशी में रजिया और नीलू अपने बैग को पीठ पर लटकाए हुए स्टेशन की ओर कदम बढ़ाए जा रही थी। ट्रेन अपने समय पर थी और दोनों दिल्ली पहुँच गई। दूसरी ट्रेन आने में अभी पाँच घंटे इंतजार करना था अतः वेटिंग रूम का शरण लेना उचित लगा। थकी हारी सखियाँ वेटिंग रूम का दृश्य देखकर सहम गई। अमरम्पार भीड़, पाँव रखने की भी जगह न थी, गरम हवा में लोग-,बाग अपना पसीना पोछ रहे थे। सकुचाई हुई दोनों लड़कियों ने खिड़की के किनारे थोड़ी सी जगह बनाई और सिर के नीचे अपना बैग रखकर अभी पौढ़ी ही थी कि लाल बंदरों के झुंड का कमरे में आक्रमण हो गया किसी का खाना, किसी का पानी, किसी की गठरी नोचे जाने लगी। चीख पुकार मच गई, कइयों को बंदर बचके का स्वाद भी चखना पड़ा और हनुमान जी की कृपा से उनकी सेना किसी तरह अयोध्या के लिए वापस तो हुई पर रजिया को इस अफरा-तफरी में नीलू कहीं नजर न आई। वह बेतहासा नीलू नीलू चिल्लाए जा रही थी कि कराहती हुई नीलू की आवाज उसके कानों में पड़ी। आवाज की दिशा में मुडकर देखा तो नीलू कोने में फर्श पर औंधे मुँह गिरी हुई थी और उसके पैर से लाल पदार्थ निकल कर फैला हुआ था।
उसे समझने में देर न लगी कि नीलू बंदर के काटने से जख़्मी हो गई है। खून बहे जा रहा था, रजिया किसी तरह वेटिंग रूम से नीलू को उठाकर डॉक्टर के पास ले गई, इलाज हुआ, नीलू को कुछ राहत मिली और दूसरी ट्रेन पकड़ कर दोनों अपने घर पँहुची। आज भी नीलू के पैर पर वेटिंगरूम की दाग उसे दहला जाती है और बंदरों को देखते ही वह काँपने लगती है। काश, इस व्यवस्था पर अंकुश व खिड़कियों पर ग्रिल होता तो नीलू जख्मी न होती। दाग कोई भी जीवन भर का दर्द दे जाता है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी