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सहज ज्योतिष

17 नवम्बर 2022

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33- जन्म कुंडली में राजयोग

इस अपनी पुस्तक मे बात करने जा रही हूँ  किन्हीं राजयोगों की।

सु-योगों की ही तरह राजयोग भी वे योग होते हैं जो जातक को हर प्रकार से सुखी-संपन्न बनाते हैं। राजयोग अगर किसी कुंडली में है तो वह समय आने पर जातक को लाभान्वित अवश्य करता है। इनके होने से जातक को भाग्य का सहारा स्वतः मिलता रहता है।

सु-योग अपने समय में आते हैं और यदि जातक लापरवाह रहे तो वे योग विफल हो जाते हैं किंतु राजयोग अधिक समय तक जातक के जीवन पर प्रभावशाली बना रहता है। सु-योग ग्रहों के गोचर भ्रमण के कारण भी बन जाते हैं। किंतु राजयोग स्थायी होते हैं। आचार्यों ने अनेक राजयोग निम्नानुसार बताए हैं-

-किसी कुंडली में लग्नेश अपने मित्र ग्रहों द्वारा देखा जाता हो कर लग्न में ही अवस्थित हो, इसके साथ लग्न में कोई न कोई शुभ ग्रह मौजूद हों तो यह राजयोग है जो जातक को उच्चस्तरीय सफलताऐं अवश्य देता है। संभव है कि वह न्यायाधीश जैसे पद पर हो। वह किन्हीं ऐसे पदों पर अवश्य आऐगा जहां निर्णय के लिये बहुजन उसकी ओर देखते हों।

-किसी कुंडली में यदि पूर्ण चंद्र उच्च में हो कर बैठा है तथा इसे कम से कम दो शुभ ग्रह देखते हों तो यह राजयोग बताया गया है। यह जातक को सर्वत्र सफल बनाने वाला योग है।

-किसी कुंडली में जब सारे के सारे शुभ ग्रह केंद्र में विराजित हों तथा केंद्र में कोई भी पाप ग्रह न हो, पूर्ण चंद्र सूर्य के नवांश में हो तो उत्तम राजयोग जातक को हर प्रकार प्रतापी बना कर रहता है।

-किन्हीं तीन ग्रह यदि अपनी उच्च राशि में, स्वराशि के अथवा नवम अंश में हों जिन पर किन्हीं तीन शुभ ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो ऐसी ग्रह स्थिति वाला जातक विधायक तो अवश्य बनता है।

-किसी कुंडली में यदि तीन शुभ ग्रह अपनी अपनी उच्च राशियों में बैठे हों जिन्हें कोई कू्रर ग्रह न देखता हो तो जातक मंत्रि पद पाता है। याद रखें कि यदि इस प्रकार की कुंडली में गुरू तथा चंद्र उच्च के हों तो जातक को शिक्षा मंत्री जैसे पद पर आने की पूर्ण संभावना होती है। यदि गुरू, चंद्र तथा मंगल उच्च के हो कर बैठे हैंतो जातक मुख्यमंत्री का पद भी पा सकता है।

-जब किसी कुंडली में लग्न से तृतीय, छठवें, दसवें तथा ग्यारहवें भावों में किसी में बैठा पूर्ण चंद्र गुरू से देखा जा रहा हो अथवा चंद्र की अपनी राशि सातवें या दसवें भाव में हो जिसे गुरू देखता हो तो यह राजयोगकारी है। यह जातक को चौबीसवें साल कीआयु से फलित होने लगता है।

-किसी कुंडली में अगर चार ग्रह अपने उच्च में विराजित हों तो जातक राजकीय उच्च पद पर अवश्य आता है।

-किसी कुंडली में शुक्र, बुध तथा मंगल लग्न में अवस्थित हों तथा सातवें भाव में चंद्र किसी ग्रह के साथ बैठा हो,
इन ग्रहों को शनि देखता होतो यह योग भी उत्तम राजयोग है। जातक को यशस्वी व प्रभावी शासक बनाता है।

-वृष लग्न वाली किसी कुंडली में जब गुरू प्रथम भाव यानि लग्न में ही बैठा हो, चंद्र मिथुन में हो, मकर में मंगल, सिंह में शनि, कन्या में सूर्य बुध के साथ बैठा हो तथा तुला का शुक्र हो तो यह बेहद अच्छा राजयोग है जिसका जातक सेनापति, अति धनवान, परोपकारी तथा राजा के समान महत्वपूर्ण प्रशासक होता है।

-किसी जातक की कुंडली में जन्म समय में यदि गुरू, शुक्र तथा बुध बली होकर नवम भाव में विराजते हों तथा इन्हें मित्रग्रह देखते हों तो उच्चाधिकारी बनने का योग होता है।

-अगर तीन शुभ या अशुभ ग्रह यदि किसी जातक की ‘लग्न कुंडली में स्वराशि के, मूल त्रिकोण राशि के अथवा उच्च के हो कर बैठे हों तो यह भी एक अत्यंतअच्छा राजयोग है। सुख, वैभव, प्रतिष्ठा प्रतिभा का अद्भुद्सं ग म’’4
वे बनाते हैं।

-यदि पूर्ण चंद्र उच्च का हो कर बैठा हो तथा इसे तीन शुभ ग्रह पूर्ण दृष्टि से देखते हों तो यह भी उत्तम राजयोग है। जातक धन, मान व प्रेम से परि रहता है।

-कोई ग्रह जब किसी कुंडली मेंअपनी नीच राशिस्थ होते हुए वक्री हो कर किसी शुभ भाव खास कर नवम, दशम तथा ग्यारहवें भाव में विराजमान हो तो यह ग्रह स्थिति इसे भी राजयोग कहा गया है। जातक लाखों में खेलता है। उसे विरासत में धन मिलता है।

-धनु राशि मेंचंद्र तथा गुरू हों, बुध अपनी उच्च राशि में हो कर लग्न में मौजूद हो तथा मकर राशि का मंगल हो तो जातक उच्चाधिकारी अथवा मंत्री बनकर रहेगा।

-मंगल के नवांश में पूर्ण बलवान गुरू मौजूद हो जिस पर मंगल की पूर्ण दृष्टि हो, मेष राशिस्थ सूर्य दसवें घर में बैठा हो तो जातक का मंत्री बनना तय है।

-किसी कुंडली में यदि तीसरे या दसवें भाव में चंद्र मौजूद हो तथा गुरू जहां कहीं भी हो उच्च का हो तो व्यक्ति को अपने जीवन भर शासन करने का पूर्ण अधिकार व अत्यधिक धन-मान प्राप्त होता है।

-केंद्रीय भावों यानि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भावों में से किसी में चंद्रअकेला हो कर अपनी स्वराशि में अथवा उपनी उच्च राशि में विराजमान हो तो यह भी राजयोगकारी है। चंद्र की यह स्थिति जातक की कुंडली के अनेक दोषों का परिहार करके जातक को सर्वोच्च हैसियत, पद मान व धन दिलाने में सक्षम कही गई है। यह चंद्र अगर लग्न व दसवें भाव में विराजता है तो यह फल कोई रोक नहीं सकता। लेकिन पारिवारिक संबंधों का जहां तक सवाल है जातक को निहायत अकेला सा जीवन जीना पडता है।

-लग्न कुंडली मेंअपनी नीच राशि में विराजने वाला ग्रह अगर नवांश कुडली में उच्च राशि का हो जाए तो यह भी बेहद लाभकारी राजयोग है।

-गुरू अगर लग्न में उपस्थित हो तथा बुध किसी अन्य केंदीय भाव जैसे चौथे, सातवें तथा दसवें में विद्यमान हो तो यह जातक के लिये अत्यंत लाभकारी राजयोग है। जातक को जब किसी महत्वपूर्ण कार्य के होने की सब संभावनाऐं समाप्त हो गई दीखती हों तब भी इस राजयोग के कारण उसके आर्थिक, नौकरी आदि के कार्य अंतिम निर्णायक क्षणों में चुटकियों में बन जाते हैं।

-किसी कुंडली में अगर तीन या चार ग्रह मूल त्रिकोण में बलवान हो कर बैठे हों या फिर उच्च के हों तो जातक चाहे कितने ही दरिद्र व निम्न कुल में क्यों न जन्मा हो, यह राजयोग उसे राज्य शासन में मंत्री पद अथवा इसके समकक्ष प्रभावशाली उच्चाधिकार देता है।

-जिस कुंडली में चार अथवा पांच ग्रह बलवान होकर उच्च के हों अथवा मूलत्रिकोण में विराजमान हों वह राज्यपाल,
मंत्री मुख्यमंत्री अथवा अन्य प्रभावी पदों पर पहुंचता है।

-किसी कुंडली में अगर गुरू उच्च का हो कर केंद्र में मौजूद हो तथा दसवें भाव में शुक्र बैठा हो तो जातक राजनीति में भरपूर सफलता प्राप्त करेगा। चुनाव जिताने वाला योग है।

-किसी कुंडली में यदि नौवें भाव में तीन अथवा चार ग्रह उच्च के हों अथवा तीन या चार शुभ ग्रह बैठे हों तो जातक को राजनीति में सफलताव पूर्ण सहयोग मिलता है।

-जिस कुंडली में पाप ग्रहों की उपस्थिति उच्च स्थानों में हो या फिर वे मूल त्रिकोण में मौजूद हों और इन्हें कोई सौम्य  ग्रह न देखता हो तो जातक शासन द्वारा अति सम्मानित होता है।

-किसी कुंडली में यदि जातक के जन्म काल में मेष लग्न हो जिसमें चंद्र, मंगल तथा गुरू हों, अथवा इनमें से कोई दो ग्रह हों तो ऐसा जातक अवश्य ही उच्चाधिकारी बनता है।

-किसी जातक की कुंडली मेष लग्न की है जिसमें गुरू मौजूद हो जिसे उच्च राशि के कम से कम तीन ग्रह देखते हों तो अवश्य ही जातक को शिक्षामंत्री जैसे पदों पर आसीन होने का अवसर मिलता है।

-मेष लग्न वाली किसी कुंडली में चंद्र, सूर्य तथा मंगल लग्नस्थ हों, वृष राशि में शनि, बुध तथा शुक्र हों, नवम भवन में धनु का ही गुरू मौजूद हो या फिर पूर्ण बलवान सूर्य परम उच्चस्थ हो तो कुंडली के स्वामी को यह राजयोग प्रतापी तथा यशस्वी शासक के तौर पर स्थापित करेगा। दांवपेंच में कुशल यह जातक राजनीति में अपना वो मकाम बनाऐगा कि जहां उसके विरोधियों को उससे सदैव मुँह की खानी पड़ेगी।

-किसी जातक की कुंडली में यदि सूर्य उच्च का हो, नवम में गुरू हो तथा दसवें भाव में मंगल मौजूद हो तो जातक प्रभावी मंत्री अथवा राज्यपाल जैसे पदों पर पहुंचता है।

-गुरू किसी जातक की कुंडली में कर्क राशि का अर्थात उच्च का हो, मंगल मेष में हो कर लग्न में ही विराजित हो या फिर मेष लग्न में ही गुरू तथा मंगल दोनों विराजमान हों तो जातक गृहमंत्री या विदेश मंत्री जैसे पदों को पाता है।

-मेष लग्न में जन्में किसी जातक की कुंडली में यदि लग्न को निर्बल ग्रह देखें तो उसे पुलिस अधिकारी बनने के योग बनते हैं।

-अगर किसी कुंडली में लग्न मेष है और कू्रर ग्रहों जैसे शनि, मंगल अथवा सूर्यअपनी उच्च राशियों में अथवा मूल त्रिकोणस्थ या इनकी राशियों में हों तथा गुरू नवम भवन में हो तो जातक को रक्षामंत्री जैसे पदों पर देखा जाताहै। अथवा,

-कुंडली में समस्त शुभ ग्रह पणफर भावों में विद्यमान हों तथा सब पाप ग्रह द्विस्वभाव राशियों में बैठे हों तो जातक रक्षा मंत्री बनने का भाग्य ले कर आया होता है।

-किसी कुंडली में यदि सूर्य-मंगल साथ साथ हों तो जातक को भूमि-भवन के सुख मिलते हैं। किंतु ध्यान दें कि यदि कुंडली तुला लग्न की है जिसमें लग्न में ही सूर्य तथा मंगल एक साथ हों, दशम या ग्यारहवें भाव में शुक्र हो तो अनेक आचार्यों का मानना है कि ये सुख उसे पत्नी के रहने तक ही मिलते हैं।

-किसी कुंडली में अगर मंगल अथवा शुक्र उच्च के हों अथवा मूल त्रिकोणस्थ हों तो जातक को भूमि से संबधित कार्यों में पूर्ण सफलता व अधिकार अवश्य मिलते हैं। जातक भूमि सुधारों से जुड़े महत्वपूर्ण पद पर अथवा खाद्यमंत्री जैसे पद पर हो सकता है।

-किसी मेष या कन्या लग्न वाली कुंडली में यदि ग्यारहवें भाव में चंद्र, शुक्र तथा गुरू हों, लग्न में मेष का ही मंगल हो, शनि मकर का हो तथा कन्या राशि में बुध हो तो जातक राजा के समान सुख-सुविधा वाला होता है।

-कर्क लग्न की कुंडली में यदि पूर्ण चंद्र अवस्थित हो, तृतीय में शनि-मंगल हों, चौथे में शुक्र हो, छठवें भाव में सूर्य,
सातवें भाव में बुध, दसवें में गुरू, तो जातक को शासन में महत्वपूर्ण पद अवश्य मिलता है।

-किसी कुंडली में अगर बुध उच्चस्थ हो कर लग्नस्थ हो, गुरू तथा चंद्र मीन राशि में बैठे हों, मकर में शनि तथा मंगल विराजते हों, शुक्र मिथुन में अवस्थित हो तो जातक राजकीय शासन में उच्चाधिकार न पाए यह संभव ही नहीं। चुनावी सफलता उसके कदम चूमती है। चालीस से ले कर पचास की आयु से यह योग सफलता देना आरंभ कर देता है।

-किसी कुंडली में यदि दसवें भाव में गुरू तथा मंगल साथ बैठे हों तथा पूर्ण चंद्र कर्क राशि में बैठा हो तो जातक को उच्च पद पाने से कोई नहीं रोक सकता।

-वृष लग्न की कुंडली में लग्न में पूर्ण चंद्र मौजूद हो, सूर्य सिंह राशि में, गुरू वृश्चिक में तथा कुंभ राशि में शनि हो तो जातक सर्वसुविधा संपन्न, धनी-मानी होता है।

-किसी कुंडली में वृष लग्न हो जिसमें गुरू तथा चंद्र मौजूद हों, लग्नेश बलवान हो कर त्रिकोणस्थ हो जो कि बलवान शनि, सूर्य तथा मंगल की दृष्टि से पूरी तरह रहित हो तो ऐसा जातक चाहे अपने क्षेत्र में रहे कि जेल में, हमेशा चुनाव जीतता है। उसे कोई हरा नहीं सकता।

-कुंडली में यदि शनि कुंभ राशिस्थ विराजित हो, कोई चार ग्रह अपनी अपनी उच्च राशियों में हों तो जातक को विख्यात, प्रतिष्ठित जननेता बन कर राज करने से कोई नहीं रोक सकता।

-किसी कुंडली में अगर सब के सब शुभ ग्रह प्रथम, चतुर्थ तथा सप्तम भाव में बैठे हों, इस कुंडली में तृतीय, छठवें तथा ग्यारहवें भावों में क्रमशः मंगल, सूर्य तथा शनि बैठे हों तो जातक को कोई चुनाव में हरा नहीं सकता। इसे न्यायी योग कहा गया है।

-किसी कुंडली में जातक के जन्म समय में सब ग्रह परमोच्च के हों तथा बुध अपने उच्च के नवम अंश में अवस्थित हो तो जातक को चुनावी सफलता हमेशा मिलती है। वह कितने ही सामन्य घर-परिवार का, कितना ही साधनहीन क्यों न हो, उसे राजनीति में सफलता व यश अवश्य मिलेगा। उसे देश के सर्वोच्च पद पर बैठने का योग भी हांसिल हो सकता है।

-याद रखें, किसी भी कुंडली में चंद्र व मंगल उच्च राशिस्थ हों तो वे जातक को उच्च पदों पर ले जाकर वाहन, नौकर-चाकर आदि सुविधाओं से संपन्न रखने में पूरी तरह समर्थ माने जाते हैं।

-शुक्र, सूर्य व चंद्र ये तीनों ग्रह एक भाव में हों और गुरू द्वारा देखे जाते हों तो जातक को मान-सम्मान भरी जिंदगी मिलती है।

-किसी कुंडली में पूर्ण चंद्र यदि वृष राशि का हो जिस पर तुला राशि में बैठे शुक्र की अपनी पूरी दृष्टि हो तथा कुंडली के चौथे भाव में बुध बैठा हो तो जातक कम से कम विधायक अवश्य बनता है।

-किसी जातक की कुंडली में अगर बुध केंद्रस्थ यानि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम अथवा दशम भावों में से किसी मे बैठा हो, या फिर यह बुध पंचम या नवम यानि त्रिकोण में से कहीं बैठा हो और नवम भाव का स्वामी ग्रह उसे अपनी शुभ, पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो यह उच्चस्तरीय राजनेता बनाने वाला योग कहा गया है।

-किसी कुंडली में चंद्र यदि क्षीण भी हो किंतु उच्च का हो तो जातक को राजनीति में ले जाता है। पूर्ण चंद्र उच्चस्थ हो तो जातक उत्तम पद पाता है। कुंडली में बाकी समस्त ग्रहों के बलहीन होने पर भी यदि चंद्र बलवान हो तो जातक के उत्तम विकास की रूपरेखा यह चंद्र ही बनाने में सक्षम है।

-यदि किसी कुंडली में गुरू बलवान हो कर लग्न में बैठा हो, शुक्ल पक्ष की अष्टमी केअंतर का चंद्र लाभ भाव यानि ग्यारहवें भवन में ऐसे बैठा हो जिसे बुध देखता हो, तथा इस चंद्र के दूसरे भाव में सूर्य विराजता हो तो निःसंदेह यह किसी मुख्यमंत्री की ही कुंडली है। याद रखें के चंद्र और गुरू दो ऐसे ग्रह हैं जो मुख्यमंत्री की कुर्सी दिलाने में पूरी तरह से सक्षम कहे गए हैं।

-किसी कुंडली में अगर गुरू तथा शुक्र दोनों एकसाथ अपनी अपनी उच्च राशियों में होते हुए या तो लग्न में, या फिर द्वितीय, चौथे, सातवें,नवम, दशम अथवा ग्यारहवें भावस्थ हों तो जातक राज्यपाल अथवा मुख्यमंत्री जैसे पद पर आने का भाग्य लाया है।

-किसी कुंडली में गुरू अगर स्वराशि का हो कर चौथे भवन में हो, पूर्ण चंद्र नौवें भवन में बैठा हो तथा बाकी ग्रह लग्न अथवा तीसरे भवन में विराजमान हों तो जातक विद्वान, धनवान, वाहनादि युक्त सफल, सुखी व संपन्न होता है।

-किसी कुंडली में सभी शुभ ग्रह अगर नवम तथा ग्यारहवें भाव में विराजित हों तो जातक राज्य का सर्वोच्च पदासीन होता है। उसे महामहिम संबोधन मिलते हैं।

-किसी कुंडली में मंगल मेष का, कर्क राशि में गुरू तथा तुला राशि में शुक्र हो तो जातक यशस्वी व प्रमुख पद पर आसीन अवश्य होता है।

-राजयोग के संर्दभ में याद रखें कि लग्न यदि मकर है और कुंडली में कोई तीन ग्रह उच्च के हैं तो जातक को भरपूर सुख-संपन्नता व उच्च शासनाधिकारी होने का योग होता है।

-किसी कुंडली में यदि लग्न मकर है तथा इसमें शनि मौजूद हो, मिथुन राशि में मंगल, कन्या राशि में बुध, धनु में गुरू तथा मीन राशि में चंद्र हो तो इसे बेहदअच्छा राजयोग माना गया है। कितने ही कठिन हालातों में क्यों न पला हो जातक, शासन में उच्च पद अवश्य पाता है। उसको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।

-किसी कुंडली में मकर लग्न हो जिसमें शनि हो, वृश्चिक राशि में मंगल हो, सप्तम सूर्य, आठवें में शुक्र हो, चंद्र कर्क राशि में बैठा हो तो जातक को शासन करने के उच्च स्तरीय अधिकार से कोई वंचित नहीं कर सकता।

-कुंडली में यदि लग्न मकर है जिसमें मंगल विराजमान हो, सातवें भाव में पूर्ण चंद्र हो तो जातक अत्यंत विद्वान, सफल, सम्मानित शासनाधिकारी होता है। ध्यान दें कि मकर लग्न वाला जातक किन्हीं तीन ग्रहों के उच्च के होने पर शासनाधिकारी अवश्य होता है।

-किसी कुंडली मेंउच्च के मंगल को यदि सूर्य, चंद्र तथा गुरू अपनी अपनी पूर्ण दृष्टि से देखते हों तो जातक समस्त सुख पाता है, वह सांसद बनने का भाग्य साथ लिये जन्मता बताया गया है।

-किसी कुंडली में यदि तीसरे, पांचवें तथा ग्यारहवें भावों में तीन ग्रह हों, छठवें भाव में दो ग्रह हों तथा बाकी दो ग्रह सातवें भाव में जा बैठे हों तो जातक को राजदूत जैसे पदों पर रहने का अवसर मिलता बताया है।

-किसी कुंडली में किसी ग्रह की उच्चराशि लग्न में पड़ रही हो, और वह ग्रह अपने मित्र, नवांश या फिर उच्च के नवांश में केंद्र में मौजूद किसी शुभ ग्रह द्वारा देखा जाता हो तो यह एक ऐसा राजयोग है जो जातक को प्रभावशाली शासक-प्रशासक बनाता है। वह यदि राजनीति में जाए तो उसे जीतने से कोई रोक नहीं सकता ।

इसके अतिरिक्त,

अनेक वे योग भी होते हैं जिन्हें विभिन्न नाम दिये गए हैं किसी जातक की जन्म कुंडली में यदि इनमें से कोई योग बन रहा है तो वह भाग्यशाली होता है। साथ अनेक वे योग भी होते हैं जिनसे जातक के हीन भाग्य की ही सूचना मिलती है। वे धन-मान नाश की ओर इंगित करते हैं। इनकी चर्चा अभी यहां नहीं करूंगी। नीचे कुछ सौभाग्यकारी योगों का ही विवरण देरही हूं।

34- सौभाग्यकारी कुछ अन्य योग-

देखें कुछ श्रेष्ठ सौभाग्यकारी योग-

कमल योग- यह योग तब बनता है जब जन्म कुंडली में सारे के सारे ग्रह केवल मूल व केंद्र में ही अवस्थित हों। यानि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम व दशम भाव में ही हों, कुंडली के बाकी अन्य सब भाव खाली हों। यदि ये योग बन रहा है तो फिर और कुछ देखने की आवश्यकता ही नहीं। इस योग वाला जातक निरापद रूप से दीर्धायु, सज्जन, गुणवान, शासक व धनवान होता है। उसे शासन करने का अधिकार व गुण स्वाभाविक तौर पर मिलते हैं।

महाभाग्य योग-जब किसी महिला जातक का जन्म रात्रि का हो तथा उसकी कुंडली में लग्न, सूर्य व चंद्र सम राशियों में पड़ रहे हों जैसे द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठम आदि तथा पुरूष जातक का जन्म दिन का हो तथा उसके लग्न, सूर्य व चंद्र विषम राशियों के पड़ रहे हों तो ऐसे योग को महाभाग्य योग कहा गया है। जातक को यह योग कुशल व अत्यंत प्रभावी वक्ता तथा जननेता बनाने वाला योग कहा गया है। इस योग को आचार्यों ने अत्यंत दुर्लभ तथा पिछले जन्मों के सत्कर्मों का प्रतिफल ही कहा है।

भाग्य योग-जब किसी कुंडली में सारे ग्रह पंचम, सप्तम व नवम भावों में विराजित हों तो यह योग बनता है। यह योग जातक को अत्यंत भाग्यवान बनाने वाला योग कहा गया है। ऐसा जातक प्रायः हर कार्य में सफलता पाता है, वह जहां भी रहे प्रभावशाली बन जाता है। प्रायः वह मुखिया की हैसियत रखता है।

नल योग-यह योग तब बनता है जब किसी कुंडली में सारे के सारे ग्रह द्विस्वभाव राशियों में विराजमान हों। ऐसा जातक धन का संग्रह करने वाला, अत्यंत चतुर, सूझ-बूझ व रणकौशल में बेहद निपुण तथा विजेता होता है।

लक्ष्मी योग-किसी कुंडली में जब लग्न तथा लग्नेश बलवान होकर विराजते हों, नवम घर तथा नवमेश से लग्नेश का किसी भी प्रकार संबंध हो रहा हो, तथा  नवें घर का स्वामी स्वराशि में हो, या मूल त्रिकोण राशि अथवाअपनी उच्च राशि का होते हुए लग्न में या लग्नेश से केंद्र, चतुर्थ, सप्तम व दशम में हो, या फिर त्रिकोण यानि पंचम या नवम में गया हो तो इसे लक्ष्मी योग कहा गया है जो कि अति दुर्लभ माना गया है किंतु मिलता अवश्य है। और यह भी देखी-जानी बात है कि जहां ये लक्ष्मी योग नहीं होता लक्ष्मी वहां भी रहती ही है। ऐसा जातक अत्यंत आकर्षक, सहृदय, सज्जन, बुद्धिमान, सफल, सौभाग्यवान, प्रतिष्ठित व श्रेष्ठ प्रशासक होता है।

लक्ष्मी योग को एक अन्य प्रकार से भी बतलाया गया है। इसके अंर्तगत, शुक्र तथा नवम भवन का स्वामी ग्रह दोनों ही जब अपनी अपनी राशियों में बैठ कर, या मूल त्रिकोण अथवाअपनी अपनी उच्चराशियों में बैठ कर एक दूसरे से केंद्र के किसी भी भाव में स्थित हों तो भी लक्ष्मी योग बनता है।

विहग योग-सारे के सारे ग्रह जब चौथे व दसवें भाव में पड़े हों तो विहग या पक्षी योग बताया है जो कि जातक को गुप्तचर, राजदूत जैसे पदों पर ले जाने वाला बताया गया है। किंतु जातक का धन खर्च होता रहता है वह साधारण धनवान होता है।

कर्म योग-जब किसी कुंडली में सारे ग्रह सप्तम, दशम व एकादश भाव में स्थित हों तो यह योग बनता है। इस योग वाला जातक बेहद गरीब परिवार में जन्म ले कर भी अपनी प्रतिभा व दम-खम से प्रतिष्ठा अर्जित करके उच्च प्रशासकीय पदों पर पहुंचता है।

यूप योग-जब किसी कुंडली में प्रथम भाव यानि लग्न से ले कर द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ भाव में ही समस्त ग्रह विद्यमान हों तो जातक वास्तविक धार्मिक, धर्म का मर्म समझने वाला, आत्मज्ञान का इच्छुक, सबल, श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाला, अच्छी पत्नी वाला तथा श्रेष्ठ निर्णय शक्ति वाला होता है। उसके फैसलों की कद्र होती है। वह निर्णय देने में कुशल होता है।

हंस योग-जब किसी जातक की कुंडली में गुरू शुभ हो कर लग्न में अपनी मीन या धनु राशि में हो या मूल त्रिकोण राशि में हो अथवा अपनी उच्च राशि कर्क का हो कर कुंडली के किसी भी केंद्र भाव में अवस्थित हो तो इस योग को हंस योग कहा गया है। आचार्य वराह मिहिर का मत है कि इस योग वाला जातक धनी-मानी, गुणी-सुखी व शासन द्वारा सम्मानित होता है। वह अत्यंत मोहक व्यक्तित्व का धनी, आध्यात्मिक, सेवाभावी, दीर्धायु तथा मोहक-मृदु भाषी होता है।

गदा योग-सारे ग्रह जब प्रथम व चतुर्थ में हों, अथवा सारे ग्रह जब सप्तम व दशम में हों तो गदा योग कहा गया है।इसका धारक धनवान, सुशिक्षित, धर्मभीरू तथा संगीत को पसंद करने वाला होता है। मतांतर से कुछ आचार्यों ने इस योग वाले जातक को पुलिस विभाग में पदस्थ होना बताया है।

माला योग-यह योग किसी जन्म कुंडली में तब बनता है जब चौथे, सातवें तथा दसवें भावों में क्रमशः बुध, गुरू तथा शुक्र विराजमान हों तथा बाकी ग्रह अन्य भावों में हों तो जातक धनी, कामी, अच्छे वस्त्राभूषण-भोजन आदि का शौकीन, चुनाव आदि में विजयी होने वाला होता है। उसे सांसद तक के पद की प्राप्ति संभव बताई है।

बुधादित्य योग-जब किसी कुंडली में सूर्य व बुध एक साथ किसी भाव में विराजित हों तो बुधादित्य योग होता है। इसे सामान्य तौर पर मिलने वाले एक चमत्कारिक योग के रूप में जाना जाता है। यह योग जातक को बुद्धिमान, प्रतिष्ठित,
कार्यकुशल, खुशहाल, सुविधा संपन्न व प्रख्यात बनाता है।

सूर्य तथा बुध सदा 28 डिग्री से अधिक दूरी पर नहीं रहते। सूर्य इतना ज्वलनशील ग्रह है कि इसके उदित होते ही केवल बुध को छोड़ कर सारे ग्रह धूमिल हो जाते हैं। आचार्यों ने माना है कि बुधादित्य योग के सुफल के लिये सूर्य व बुध के मध्य कम से कम छह डिग्री तथा अधिक से अधिक दस डिग्री का फासला होना श्रेष्ठ होता है।

यव योग-जब किसी कुंडली में सारे पाप ग्रह प्रथम व सातवें भाव में हों या फिर,सारे के सारे शुभ ग्रह चौथे व दसवे भाव में बैठे हों तो जातक को धन-धान्य से परिपूर्ण, स्त्री-पुत्र से सुखी, सत्कर्मी, दानी बनाता है। ऐसा जातक अपनी चौबीस वर्ष की अवस्था से सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगता है। इसका बचपन चाहे जैसा हो ये अध्य आयु में पूर्ण सुख-वैभव पाने में सक्षम हो जाता है। इसकी बुद्धि स्थिर व परिपक्व होती है।

महापुरूष योग- जब किसी जातक की कुंडली में कोई एक, दो, तीन शुभ्र ग्रह स्वग्रही हो कर केंद्रस्थ हों तब यह योग बनता है। ऐसा जातक वास्तव में ही इस योग के नाम को चरितार्थ करने वाला होता है। वह न केवल धन-मानी बल्कि वास्तविक सज्जन व श्रेष्ठ आचार-विचारों वाला होता है। मानवता उस सत्पुरूष के सदा हृदय व आचरण में बसती है।

रूचक योग-जब मंगल महाराज लग्न से केंद्रीय भावों में से किसी में स्वराशि में, अपनी मूल-त्रिकोण राशि या फिर उच्चके हो कर विराजित हों तो रूचक योग बनता बताया है। यह योग अपने जातक को साधन-संपन्नता, सुख-समृद्धि,
विजयी, शक्तिशाली साहसी, उत्साही तथा उच्च पदाधिकारियों का प्रिय बनाता है। जातक का डीलडौल व मुखमुद्रा ताकत व बेफिक्री से भरी होती है। जातक किसी की परवाह नहीं करता। लेकिन यदि मंगल के साथ सूर्य भी मौजूद हो, तथा कुंडली के अन्य कुप्रभाव हों तो उसके जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। जातक जुझारू होता है। यदि दशम भाव में मंगल उच्च का हो कर बैठा है तो यह योग अधिक प्रभावी बनता देखा गया है।

मुसल योग-जब किसी कुंडली में सारे ग्रह स्थिर राशियों में पड़े हों तो जातक धनी-मानी-गुणी, विख्यात, राजमान्य तथा कन्या संतति से रहित होता है। इसे शासन करने का अवसर अवश्य मिलता है।

छत्र योग-जब किसी कुंडली में सातवें भाव से आगे के भावों में सारे ग्रह विद्यमान हों तो जातक धनवान, कुशल, ईमानदारी से अपने कार्य में लीन रहने वाला, लोकप्रिय उच्च पदस्थ होता है।

मालव्य योग-यदि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम व दशम यानि भावों में से कहीं शुक्र उच्च का यानि मीन का हो, अथवा अपनी मूल राशि यानि वृष या तुला का हो तो जो योग बनाता हैउ से मालव्य योग कहा गया है। इसका जातक धनवान, सुदर्शन, सदाचारी और यदि पुरूष है तो महिलाओं में व स्त्री जातक है तो पुरूषों में ख्यातिवान मिलता है।

वापी योग-जब किसी जातक की कुंडली में केंद्र में कोई ग्रह मौजूद न हो अर्थात्सारे के सारे ग्रह आपोक्लिम व पणफर स्थानों में बैठे हों तो वापी योग कहलाता है। ऐसे योग वाला जातक सुखी-संपन्न, दीर्धायु, उच्चपदाधिकारी तथा कलाप्रिय होता है। धन उसके पास स्वतः आता है, धन उसके पास टिकता है।

गजकेसरी योग-जब यदि लग्न या चंद्र से गुरू केंद्र में विराजित हो तथा इस गुरू को केवल शुभ ग्रह देखते हों तो इस जातक को हर तरह से सुखी-संपन्न व विजयी बनाने वाला योग है। कहा गया है कि इस योग के लिये गुरू नीच व अस्त न हो, यह गुरू अपने शत्रु की राशि में न हो तो यह गजकेसरी योग सर्वथा प्रभावी होता है लेकिन मेरे देखने मेंआया है कि यदि यह योग कुछ दूषित भी हो तो भी जातक को कुछ न कुछ लाभान्वित अवश्य करता है। पुराने समय में ये घर में हाथी बंधा होने का प्रतीक था तो आज कार होने का।

चक्र योग-जब कुंडली में लग्न से शुरू हो कर एक भाव छोड़ते हुए छह भावों में सारे ग्रह विद्यमान हों तो इस योग वाले जातक को मालामाल, राजनीति में निपुण व सफल बनाता है। वैसे इसे भी एक राजयोग ही माना गया है। जातक की युवावस्था से ही इसके अच्छे प्रभाव मिलने लगते हैं।

अनफा योग-जब किसी कुंडली में चंद्र से बारहवे भाव में सूर्य के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह विराजमान हो तो अनफा योग कहा गया है। इसका जातक विनम्र, स्वस्थ, सुगठित, सुप्रतिष्ठित व व्यवाहारिक दृष्टिकोण रखने वाला बताया गया है। वह अपनी युवावस्था में साज-श्रृगार आदि में बेहद रूचिवान किंतु धीरे धीरे जीवन के उच्च व सादगी वाले आदर्शों को अपना लेने वाला कहा गया है।

सुनफा योग-जब किसी कुंडली में चंद्र से द्वितीय भाव में सूर्य के अलावा अन्य कोई शुभ ग्रह मौजूद हो तो सुनफा योग बताया गया है जो अपने जातक को सुखी-समृद्ध रखता है।

भेरी योग-किसी कुंडली में नवमेश बलवान हो तथा समस्त ग्रह पहले, दूसरे, सातवें तथा बारहवें भाव में मौजूद हों या फिर, भाग्येश बलवान हो तथा लग्नेश, शुक्र व गुरू केंद्रस्थ हों तो यह योग बनता है जो कि जातक को सुखी, संपन्न, गुणवान, परोपकारी, कीर्ति दिलाने वाला तथा अनेक प्रकार से उन्नति दायक कहा गया है।

अमलकीर्ति योग-लग्न से या फिर चंद्र से दसवें भाव में केवल शुभग्रह ही हो तो जातक को गुणवान, धनवान, धर्मप्रवण, लोकप्रिय, दानी, परोपकारी, भोगी तथा सुखी बनाता है।

समुद्र योग-जब सारे ग्रह दूसरे भाव से आरंभ हो कर एक भाव छोड़ कर छह भावों में हों तो जातक धनवान, कुशल, राज्य से प्रतिष्ठा प्राप्त, सुख वैभव युक्त व पुत्रवान बताया गया है।

वसि योग-किसी कुंडली में सूर्य की स्थिति वाले घर से बारहवें घर में जब चंद्र केअलावा कोई शुभ अथवा अशुभ ग्रह विराजित हो तो वसि योग कहलाता है। यह योग अपने जातक को सुस्वभावी-उदार व सर्वथा सुखी-संपन्न रखता है। उसकी पहुंच अपने से बड़े व उच्च वर्ग में होती है।

कुसुम योग-जब कुंडली में लग्न में कोई स्थिर राशि हो, केंद्र में शुक्र हो तथा त्रिकोण में चंद्र शुभ ग्रहों के साथ बैठा हो और शनि दशम भावस्थ हो तो इसे कुसुम योग कहा गया है जिसमें जन्मा जातक हर प्रकार के सुख-भोग से युक्त,
विद्वान तथा प्राभावशाली मंत्री बनने का भाग्य लिये जन्मता बताया है।

भास्कर योग- जब दशम भाव का स्वामी ग्रह तृतीय में शनि के साथ विराजित हो तथा सूर्य दिग्बली हो कर दशम भावस्थ हो तो भास्कर योग कहलाता है। यह एक बेहद श्रेष्ठ राज योग माना गया है जिसका धारक धीर-गभीर,
वैज्ञानिक सोच युक्त, बहुत कम आयु में ही विख्यात होने लगता है। वह सुदर्शन व्यक्तित्व वाला कहा गया है।

दाम योग- जब किसी कुंडली में समस्त ग्रह छह भावों में हों तो जातक को ऐश्वर्यवान, सन्मार्गी, परोपकारी, धर्मनिष्ठ, लोकप्रिय, पुत्र संतति से युक्त बनाते हैं। लेकिन ऐसे जातक को राजनीति में कुछ विशेष हांसिल होना संभव नहीं। ये उसका क्षेत्र नहीं है।

चंद्र-मंगल योग-जब कुंडली में ये दोनों ग्रह एक ही घर में विराजित हों अथवा एक दूजे से केंद्र अथवा त्रिकोण में पड़ रहे हों तब चंद्र मंगल योग बनता है। इस योग का एक ऋणत्मक पहलू यह है कि यदि ये योग शुभ ग्रहों से दृष्ट न हो तो जातक धन के लिये निकृष्ट से निकृष्टतम कार्य भी कर सकता है। यदि लग्न अथवा नवम भावों में ये योग बनता हो तो जातक अपने माता-पिता किसी की इज्जत नहीं करता। खासकर वह अपने पिता से शत्रुवत् व्यवहार करता है तथा यदि ये योग चौथे अथवा पंचम भाव में बन रहा होतो जातक अपनी माता का अपमान करता बताया है। बहरहाल,

मेरे अब तक के अध्ययन में इस योग की कुंडलियों के कुल दो उदाहरण ही आए हैं जिनमें ये योग था और मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मैं इस योग संबंधी इन बातों की सत्यता का समर्थन करने को मजबूर हुई हूं।

धरधरा योग-कुंडली में जब लग्न के बारहवें भाव में चंद्रमा विराजित हो और द्वितीय भाव में सूर्य केअलावा अन्य कोई शुभ-अशुभ ग्रह विराजता हो तो धरधरा योग बनता है जो अपने जातक को धनवान, प्रतिष्ठित,जमीन-मकान आदि से संतुष्ट रखता है। ऐसे योग वाले जातकों को वाहनादि सारे सुख उपलब्ध होते हैं। उन्हें कभी भी सुख-सुविधा की वस्तुओं की कमी नहीं होती।

पारिजात योग-लग्नेश की स्थिति वाले भाव या राशि का स्वामी कोई ग्रह किसी कुंडली में जब केंद्र में या त्रिकोण भावों में से किसी में भी उच्च का या स्वराशि का हो कर विराजित हो तो इसे पारिजात योग कहा गया है। इस योग वाले जातक का बचपन चाहे जैसा भी रहे, इसकी मध्य आयु व वृद्धावस्था सुख व आराम पूर्वक गुजरती है। उसे उच्च वर्ग में सम्मान व ख्याति प्राप्त होती है। मकान-जमीन-वाहन से परिपूर्ण जीवन होता है।

चामर योग-जब कुंडली में लग्नेश उच्च का हो कर केंद्रस्थ हो तथा गुरू या किसी अन्य शुभ ग्रह द्वारा देखा जाता हो,
अथवा कोई शुभ ग्रह लग्न, सप्तम या नवम भाव में मौजूद हो तो जो योग बनता है उसे चामर योग कहा गया है। इय योग वाले जातक को राज्य से सुख-मान हांसिल होता है। वह विद्वान, कुशल वक्ता,कला साधक, दीर्धायु तथा मंत्री आदि बनने का भाग्य लिये होता है।

कूर्म योग-पंचम, षष्ठम व सप्तम भावों में शुभ ग्रह तथा लग्न, तृतीय व एकादश भाव में अशुभ ग्रह उच्च के हो कर बैैठे हों तो जो योग बनता है उसे कूर्म योग कहा गया है। ऐसा जातक धीर-गंभीर, गुणवान, यशस्वी, विभाग प्रमुख, परोपकारी, सुख-संपत्तिवान तथा राज्य प्रमुख, मंत्री आदि बनने का भाग्य साथ लाता है।

अधि योग-जब किसी कुंडली में चंद्रमा से छठे, सातवें तथा आठवें भाव में सारे शुभ ग्रह मौजूद हों तो अधि योग बनता है जिसका धारक राज्यपाल, सेनानायक, मंत्री आदि बनता है। यह योग होने से जातक अध्ययन की प्रवृत्ति रखता है, विवेकी तथा अपने बुद्धिबल से सफलताऐं अर्जित करता है।

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35- धन योग या धन विचार-

इस दुनिया में कौन है जो धन नहीं चाहता ? ये देखिये, फिर से मैं लीक से हट रही हूं। मेरा ध्यान अपने पाठकों को ठगों आदि से बचाने में इतना लीन रहता है कि संतों के चोले में छिपे ठगों से जहां मौका मिले आपको आगाह करने लगती हूं। वास्तव में एक जमाना था कि जब संत को धन की कोई आवश्यकता नहीं मानी गई थी। आज तो इन स्वनामधन्य तथाकथित साधू-संतों को इस धन की हमसे अधिक आवश्यकता दीखती है। ये बात अवश्य है कि आज भी सच्चे, वास्तविक संत को धन की कोई आवश्यकता नहीं ही है। मगर सच्चे संत आज मिलते कहां हैं ?

आज अनेक संत नाम व पदवी धारियों को अपने भक्तों से धन बटोरते देखती हूं तो यही खयाल आता है कि आखिर इन्हें कौन साधू कहेगा ? ये क्योंकर साधू का तमगा लगाए फिरते हैं जबकि ये हैं पूरे सांसारिक ! अच्छे अच्छे बाबाओं के ढोल की पोल खुल चुकी है। बाकी अनेक हैं जिनकी बस् खुलने ही वाली होगी !

भक्तों को इस बात का इलहाम होना ही चाहिये कि आखिर कौन सच्चा संत है और कौन संत के चोले में सांसारिक तथा लालची मानव। ओह !

बात धन की चली थी तो अब धन पर आ ही जाना चाहिये। मगर अंधश्रृद्धा तथा अंधविश्वास निवारण का मेरा अपना उत्तरदायित्व मुझे बार-बार विषयांतर करने पर मजबूर कर देता है। इसके लिये में अपने पाठकों से क्षमा प्रार्थी हूं।

मानव की कुंडली में दूसरे भाव तथा ग्यारहवें भाव से धन का अंदाजा लगता है। आज के अनेक धनवान साधुओं की कुंडली वैसे तो कभी मुझे देखने को नहीं मिली मगर मेरा दावा है कि अगर उनकी कुंडली बनी होगी तो उसमें उनके ये दोनों भाव बेहद मजबूत होते होंगे। जाने देते हैं। वे नाराज हो जाऐंगे ! आखिर अपनी अक्ल से कमा रहे हैं तो क्या बुरा कर रहे हैं ? कमअक्ली तो हम में है जो अपने मेहनत से कमाए धन का यूं नाश करते हैं। उनकी किस्मत अच्छी है कि उन्हें तो आयकर भी नहीं देना पड़ताऔर हम कुछ करके ही आए होंगे तभी तो उनके ़ ़़ खैर छोड़िये ! मैं तो हंसी-ठठ्ठा ही करने लगी !

तो, अब यह बता दूं कि जन्म कुंडली के दूसरे भाव से प्रायः धन की स्थिति देखने की बात की जाती है। इस दूसरे भाव से वैसे पैतृक धन आदि का पता चलता है, जातक का कमाया, जोड़ा गया धन, उसका सोना-चांदी, जमीन-जायदाद आदि। प्रत्येक मानव के जीवन में धन की आवश्यकता बराबर होती है, धनसुख नाम रख लेने से भी धन संबंधी सुख कई बार न के बराबर होता पाया गया है। और कई बार भिखारीलाल मजे करते मिलते हैं। इसका कारण आचार्यों ने हमारे प्रारब्ध को बताया है। इसे ही हम अपना भाग्य कह सकते हैं। इसे पुरूषार्थ से संवारा जा सकता है। जैसे हमारे तमाम तथाकथित साधु-संतों ने संवार रखा है। साधारण मानव को भाग्य बनाने के लिये इतनी आसान सुविधाऐं नहीं होतीं। फिर भी,

जन्म कुंडली बतलाती है कि धन कैसे-कैसे व कितना कमा सकते हैं। महर्षि पाराशर का विचार है कि कुंडली में धन स्थान का स्वामी जिन ग्रहों के साथ युति व योग करके जहां भी विराजित हो उसी भावानुसार धन संबंधी फल जातक को मिलते हैं। इसके अलावा कुंडली में धनेश होने के अतिरिक्त वह जिस अन्य भाव का स्वामी बन रहा हो, ध्यान देंगे कि धनेश उस भाव केअनुकूल, उसकी दशा आदि के आरंभ में भी वैसे ही धन संबंधी फल देने को बाध्य बताया गया है।

प्रश्न सहज ही हो सकता है कि यह धनेश क्या है ?

तो बता दूं कि जन्म कुंडली की सामान्य जानकारी रखने वाले पाठक इस बात से अच्छी तरह अवगत होंगे कि जो ग्रह जिस भाव का स्वामी होता है उसे उसी भाव से जुड़े नाम से अभिहित किया जाता है। कुंडली में धन भाव यानि द्वितीय भाव के स्वामी को धनेश कहना अब समझ में आता है।

-यह धनेश यदि पूर्णतः शुभ प्रभाव में हो तो धन के लिये अच्छा रहता है।

-कुंडली में केंद्र-त्रिकोण की स्थिति से भी धन संबंधी फलादेश पता चलता है। अगर धन स्थान का स्वामी मजबूत होकर केंद्र-त्रिकोणस्थ हो, केंद्र-त्रिकोण के ग्रहों से युति कर रहा हो तो चाहे बाबाओं जितना नहीं तो भी, काफी धन आपके पास होगा !

अब मैं बाबा-चिंतन छोड़ कर पूरी गंभीरता से धन चर्चा परआ रही हूं।

36- आपकी कुंडली में धनयोग-

-कुंडली में यदि द्वितीयेश, द्वितीय भाव की राशि तथा इस धन भाव पर शुभ ग्रह मौजूद हो अथवा शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक धनवान होता है।

-किसी जातक की कुंडली में लाभेश व भाग्येश की युति बन रही हो और उसे शुभ ग्रह देखता या देखते हों तो धन खूब रहता है।

-जब किसी कुंडली में भाग्येश तथा चतुर्थेश का योग बन रहा हो तो धन के लिये इसे अच्छा संयोग माना गया है।

-कुंडली में जब लाभ भाव का स्वामी तथा चतुर्थ भाव के स्वामी को योग हो, एक दूसरे पर उनकी पूर्ण दृष्टि हो तो धन अच्छा रहता है।

-किसी कुंडली में जब लग्नेश तथा लाभ भाव के स्वामी का योग हो तो धन की आवक खूब रहती है।

-कुंडली में जब लाभेश व धनेश की युति हो तो धन के लिये यह एक अच्छी युति कही गई है।

-जब किसी कुंडली में भाग्य भाव के स्वामी तथा धन स्थान के स्वामी का योग हो तो धन ही धन होता है।

-दशमेश तथा पंचमेश की युति बन रही हो तो धन की कमी नहीं रहती ।

-कुंडली में यदि दशमेश तथा लग्नेश की युति हो तो इस युति को धन के मामले में अच्छा बताया गया है।

-जब किसी कुंडली में द्वितीयेश के साथ दशमेश की युति बन रही हो तो धन के लिये परेशान नहीं होना पड़ता।

-जब दशमेश से चतुर्थेश का योग हो रहा हो तो धन की कमी नहीं रहती।

-लग्नेश जब किसी कुंडली में चतुर्थेश के साथ योग कर रहा हो तो धन के लिये इसे एक सु-योग माना गया है।

-किसी कुंडली में लग्नेश जब पंचमेश के साथ संयुक्त हो तो अच्छा धन रहता है।

-किसी कुंडली में जब धनेश तथा चतुर्थेश योगकारी बन कर बैठे हों तो धन कम नहीं होता।

-धनेश जब पंचमेश से युत हो तो धन की बारिश ही होती रहती है।

-किसी जातक की कुंडली में पंचमेश व चतुर्थेश का योग बन रहा हो तो धन ही धन होता है।

-जब भाग्य भाव का स्वामी ग्रह लग्न भाव के स्वामी से युति बना कर बैठा है तो जीवन भर धन आता रहता है।

इन योगों को धन योग भी कहा जाता है। ये बात ध्यान रखने की है कि यदि ये योग किसी कुंडली में दूसरे, चौथे, पांचवे अथवा सातवें भाव में बन रहे हों तो धन संबंधी पूर्ण फल मिलते हैं। यदि ये योग कुंडली केआठवें तथा बारहवें भावों में बन रहे हों तो फल आधे हो जाते हैं। तथा यदि ये धनयोग छठवें भाव में बन रहे हों तो फल पच्चीस प्रतिशत ही रह जाते हैं। अन्य भावों में इनके फल आचार्यों के मतानुसार निष्फल बताए गए हैं। फिर भी, जब गोचर में कोई शुभ ग्रह पदार्पण करता है अथवा जब इन योगों पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ती है तो इनके फल मिल कर ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त,

आचार्यों ने माना है कि

-किसी जातक की कुंडली में मेष,वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, वृश्चिक तथा मीन राशियों का हो कर राहू जब लग्न, दूसरे, तृतीय, चौथे, पांचवे, छठे,आठवें, नौवें, ग्यारहवें तथा बारहवें में से किसी भी भवन में विराजित हो तो राहू की यह स्थिति जातक को धनवान बनाती है।

-जब किसी कुंडली में किसी भी भाव में चंद्र व गुरू की युति बन रही हो तो जातक को धनी बनाती है। यह युति केंद्र में हो तो इसे गजकेसरी योग कहा गया है जिसके परिणाम स्वरूप जातक को इच्छित धन-मान हमेशा मिलता है। जातक प्रायः अनेक मामलों से सफल जीवन जीता है

देखें चित्र

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अथवा

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-किसी कुंडली में यदि सूर्य व बुध की युति बन रही हो, यह युति सातवें भाव भवन में बन रही है तो जातक को व्यापार आदि में लाभ ही लाभ होता है। दसवें भाव में इस युति के होने से अच्छी सरकारी नौकरी अवश्य लगती देखी है, वह भी तब कि जब सारी उम्मीद समाप्त हो गईं हों। देखिये, दशम भाव पिता व राज्य का सूचक है। पिता से भी धन मिलता है तथा राज्य से भी। ऐसा मेरेअनुभव में आया है।

-किसी कुंडली में दशमेश तथा चतुर्थेश का आपस में स्थान परिवर्तन हो तो इसे धन के संबंध में बहुत अच्छा माना गया है।

-किसी जातक की कुंडली में यदि दो बलवान धन योग मौजूद हों तो धन की स्थिति मजबूत रहती है। तीन धन योग हैं तो धन ही धन, चार योग हों तो धन संभाले नहीं संभलता और पांच योग हों तो वे जातक व उसके परिवार को अतुल धन दायक होते हैं।

-कुंडली में यदि चतुर्थेश द्वितीय अथवा एकादश भाव में हो तो भी धन संबंधी मामलों में बेहद अच्छा कहा गया है।

-चौथे भाव में यदि कोई चर राशि होऔर उस राशि का स्वामी भी किसी चर राशि में ही बैठा हो तो धन के लिये शुभ होता है।

-किसी कुंडली में जब लग्नेश बलवान हो तथा भाग्येश अपने मूल-त्रिकोण अथवा अपनी उच्च या स्वराशि में मौजूद हो कर केंद्र में बैठा हो तो धन ही धन भरा रहता है।

-पंचमेश ग्रह जब किसी कुंडली में लग्नेश, तृतीयेश, षष्ठेश, सप्तमेश, नवमेश अथवा द्वादशेश के साथ मौजूद हो तो जातक के पास करोड़ों की जमीन-जायदाद होती है। वह व्यापार से भी कमाता है।

-किसी कुंडली में यदि चतुर्थेश, दशमेश तथा चंद्र की स्थिति मजबूत हो तथा आपस में वे मित्र भी हों तो जातक को धन की चिंता नहीं करनी पड़ती।

37- अचानक धन लाभ के योग-

-पांचवें भाव में अगर चंद्र की मौजूदगी हो तथा शुक्र उसे देखता हो तो अचानक धन मिलने के योग कहे गए हैं। ऐसे जातक को लॉटरी आदि से भी धन मिलना बतलाया है।

-यदि किसी कुंडली में एकादश तथा द्वितीय भावों के स्वामी चौथे भाव में मौजूद हों तथा चतुर्थेश किसी शुभ ग्रह की राशि में गया हो, अथवा शुभ ग्रह द्वारा देखा जाता हो,
अथवा किसी शुभ ग्रह से युति बना रहा हो तो जातक को अचानक धन लाभ के निश्चित संकेत हैं।

-केतु किसी की कुंडली में अष्टम भाव में हो तो अचानक लाभ देता है किंतु यदिअष्टम में ये मेष, वृष, मिथुन, कन्या, वृश्चिक का हो तो पेट संबंधी समस्या रहती है।

-किन्हीं आचार्यों का मत है कि लाभ भाव में सूर्य-राहू की युति है तो हालांकि ये ग्रहण योग बनता है मगर ये योग अचानक धन लाभ कराता है। जातक येन-केन प्रकारेण हर तरीके से धन कमाता है।

-कुंडली यदि मेष,
कर्क, तुला या मकर लग्न की हो और कर्क राशि में गुरू, नवम भाव में शुक्र बैठे हों तो राजनीति से अचानक जुड़ाव तथा धन प्राप्त होता है।

-किसी कुंडली में सूर्य मिथुन राशि हो तो जातक यदि ज्योतिष या अन्य काउंसिलिंग आदि से जुड़े काम करता हो तो उसे इन कामों से अचानक धन लाभ बताया है।

-राहू वैसे तो आठवें भाव में एक्सीडेंट की संभावना बताता हैं किंतु अकस्मात अचानक धन लाभ कराने वाला भी बताऐ गया है।

-केतु यदि आठवें भाव में है तो हालांकि रोग कारक कहा गया है किंतु लॉटरी, ससुराल आदि से अचानक धनलाभ कराना भी सूचित करता है।

-अष्टम भाव के स्वामी पर एकादश भाव के स्वामी की दृष्टि हो तो इसे भी दुर्घटना आदि का सूचक माना गया है किंतु अचानक धन लाभ का योग भी कहा गया है। दुर्घटना से बचाव के लिये सावधानी व शिव आराधना, महामृत्यंजय जाप आदि उचित है।

38- ससुराल से धन लाभ-

-जब किसी कुंडली में द्वितीयेश तथा सप्तमेश साथ साथ बैठे हों तथा इन दोनों को शुक्र देखता हो तो जातक की ससुराल धनी होती है जहां से उसे धन मिलता है।

-किसी कुंडली में यदि चौथे भाव का स्वामी सप्तम भाव में बैठा हो, तथा शुक्र चौथे भाव में हो, साथ ही इनमें मित्रता भी हो तो जातक को अपने ससुराल से धन मिलता है।

-कुंडली में अगर धनेश बलवान हो तथा सप्तमेश जहां भी हो शुक्र से युति बना रहा हो तो ससुराल से जातक को धन लाभ होना बताया है।

-कुंडली में सप्तमेशव नवमेश का आपस में मित्र, दृष्टि आदि का संबंध हो तथा शुक्र इनके साथ हो तो जातक को ससुराल से धन संबंधी लाभ अवश्य होते हैं।

इसके अलावा

39- अन्यान्य धन योग-

-किसी कुंडली में यदि इसके लग्न भाव का स्वामी दूसरे भाव में बैठा हो, दूसरे भाव का स्वामी ग्यारहवें भाव में बैठा हो तथा ग्यारहवें भाव का स्वामी दूसरे भाव में मौजूद हो तो जातक को जमीन के भीतर से संपत्ति मिलने का फलादेश किया गया है।

-कुंडली में लग्नेश कोई शुभ ग्रह हो तथा वह धन भाव में विराजमान हो अथवा धनभाव का स्वामी आठवें भाव में बैठा हो तो भी जातक को खदान, जमीन से फायदा होता बतलाया गया है।

पहले के जमाने में माना जाता था कि ऐसे जातक को जमीन में गड़ा हुआ धन मिलता है। इसे बाप-दादा की गड़ी हुई संपत्ति भी कहा जा सकता था। तब बैंक आदि नहीं होते थे सो दादाजी वगैरह जमीन में दबा जाते थे। जो बाद में उनके बच्चों को अथवा उस जमीन-मकान के अगले खरीदार को मिल जाता था। आज ऐसी कोई संभावना नहीं। फिर भी, वर्तमान में इस प्रकार के ग्रहयोगों के रहने से मैं देखती हूं कि जातक बोरवेल खुदाई, जमीन खनन व हीरा खदानों,
खनिज कर्मी, खदानों का ठेकेदार तथा इनसे जुड़े व्यवसाय में, खेती आदि में, इन विभागों आदि में अच्छे पदों पर हो कर अच्छा धन पाता है।

-चंद्र तथा सूर्य की स्थिति से भी धन तथा धनहीनता का विचार किया जाता है।

चंद्रमा जब किसी कुंडली में पाप ग्रह युक्त हो, पाप ग्रहों से देखा जाता हो, पाप ग्रह की राशि में मौजूद हो अथवा पाप नवांश में अवस्थित हो तो धन की किल्लत आनी संभव है। जिस रिश्तेदार के भाव में ऐसा पापी चंद्र मौजूद है, जातक का धन उन संबंधियों द्वारा उड़ाने, हड़प लेने की संभावना रहती है। साथ ही

यदि चंद्र शुभ हो कर जिस रिश्ते के भाव में बैठा हो तो उन रिश्तेदारों से धन मिलने के भी योग बनाता है। जैसे एक कुंडली का जिक्र करना चाहूंगी जिसमें बच्चे की कुंडली में चंद्र शुभ ग्रहों द्वारा देखा जा कर अपने स्व भवन अर्थात चौथे भाव में मौजूद था जबकि पिता पक्ष कू्रर था। तो उक्त जातक को पिता की ओर से कुछ नहीं मिलने की हालत में भी माता व मौसी कीओर से सब कुछ उपलब्ध हुआ।

चंद्र को आधार बना कर धन संबंधी मामलों में आचार्यों ने सुनफा, अनफा तथा दुर्धरा नामक योगों का जिक्र किया है जिन्हें हम इस प्रकार समझ सकते हैं-

-जब किसी कुंडली में चंद्र जहां हो उसके दूसरे भाव में तथा उसके बारहवें भाव में सूर्य के अलावा कोईअन्य ग्रह मौजूद हों तो उपरोक्त योग होते हैं। ऐसा जातक धनहीन नहीं रहता। उसका काम धन के अभाव में नहीं रूकता। आवश्यकतानुरूप धन उसे उपलब्ध होता ही रहता है। कहें कि उसका अच्छा खाता-पीता परिवार होता है। हां,
धन के लिये उसे पर्याप्त मेहनत करनी होती है जो प्रायः सफल होती है। उसे बैठे-बैठे धन नहीं मिलता।

इन योगों के लिये मंगल, बुध, गुरू, या शुक्र का चंद्र केआगे-पीछे होना आवश्यक है।

इसे इस प्रकार समझें कि एक मत केअनुसार कुंडली में जब चंद्र केआगे के दूसरे भाव में अथवा लग्न से दूसरे भाव में सूर्य को छोड़ कर कोई भी ग्रह हो तो सुनफा योग होगा। इसे धन के मामले में अच्छा ही कहा गया है। इसके अनुसार इस योग के लिये, यदि चंद्र से द्वितीय भाव में कोई पाप ग्रह न हो कर शुभ ग्रह हो तो जातक को अपने जीवन भर अच्छा धन-धान्य, सुख-सुविधाऐं तथा ऐश्वर्य उपलब्ध होता रहता है। लेकिन मेष लग्न की एक कुंडली मेरे देखने में आई थी जिसमें चंद्र के बाद अगले घर में सूर्य था सो जातक को धन की समस्या होनी थी किंतु इस कुंडली के बारहवें भाव में शुक्र था जिसने जातक को धन व भौतिक सुविधाओं से भरपूर रखा हुआ था।

मतांतर से कुछ आचायों ने यह भी माना है कि कुंडली में चंद्रमा के द्वितीय भाव में समस्त शुभ ग्रह हों तभी पूर्ण सुनफा योग बनता है। लेकिन ऐसा विरल ही होता है। इस योग के फलादेश मैंने चंद्रमा के बाद द्वितीय में एक-दो शुभ ग्रहों के रहने पर भी काफी हद तक घटित होते देखें हैं।

सो,

सुनफा योग वास्तव में यह है कि जब चंद्रमा के बाद के अगले भाव में कोई भी शुभ ग्रह बैठा हो तो सुनफा योग बनता है। इस सुनफा योग के लिये देखें चित्र, इसमें चंद्रमा के बाद वाले भाव में शुक्र बैठा है किंतु यदि यहां कोई अन्य शुभ ग्रह भी होता तो भी सुनफा योगकारी था।

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इसी प्रकार नीचे दिया हुआ चित्र देखें, इसे अनफा योग कहा गया है। इसका जातक चुनावों आदि में भी सफलता पाने वाला होता है। वह जहां भी रहे अपने बाहूबल से धन-वैभव पाने में समर्थ कहा गया है। यह फलादेश तब फलीभूत होता है जब चंद्रमा से बारहवें भाव में कोई शुभ ग्रह मौजूद हो।

साथ ही अगले चित्र में देखें दुर्धरा योग। इस योग का धारक जातक धनी-मानी, वाहनादि संपन्न, दानी, राजमान्य तथा नौकर-चाकर युक्त होता है। एक मान्यता है कि इस योग के लिये चंद्रमा के आस-पास दोनों तरफ सूर्य केअलावा कोई भी ग्रह हों,
एक अन्य मत के अनुसार चंद्र के दोनों तरफ शुभ ग्रह हों, तो यह योग बनता है। मैंने दोनों ही स्थितियों में जातक को अच्छा संपन्न पाया है।

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वैसे धन के मामले में एक मत यह है कि कुंडली में चंद्र यदि अकेला हो तो जातक को कभी न कभी धन की तंगी आ सकती है। मेरा ज्योतिषीय सुझाव यही है कि ऐसे जातक कोअपने धन की अच्छी सार-संभाल करनी आनी चाहिये। जैसे सु-योग आ कर बीत जाते हैं वैसे ही कु-योग भी रूकते तो नहीं ही हैं। आड़े वक्त के लिये इतना धन हर किसी को संजो कर ऐसे रखना ही चाहिये कि वक्त पर वो धन काम आ सके। वैसे मेरे अनुभव में आया है कि कुंडली में अकेला चंद्र जातक को कई तरह से अकेला बना देता है। अतः जातक को अपने रिश्तों की सार संभाल भी बहुत अच्छी प्रकार से करनी चाहिये। बहरहाल,

आगे मैं वे योग बताने जा रही हूं जिन्हें धनहीनता केअथवा दरिद्रता संबंधी माना गया है। यह ध्यान देने की बात है कि धनहीनता के योग हों तो घबराने की बात नहीं है क्योंकि उनके लिये भी फलितार्थ होने का वही नियम काम करता है जो मैंने अभी बताया है। किसी शुभ ग्रह के देखने से, लग्नेश, लाभेश आदि की अनेक स्थितियों से ये दरिद्र योग भंग होता पाया है। फिर भी,
अच्छे भले धनवान भी कभी कभी कंगाली में रहने को मजबूर होते देखे गए हैं। संभव है कि गोचर भ्रमण में उनके ऐसे योगआ गए हों। अतः हमारे बड़े-बूढ़े जो कहते थे कि बुरे वक्त के लिये कुुछ न कुछ अवश्य बचाकर रखना चाहिये तो,
वे गलत नहीं कहते थे। और ये भी एक टोटका ही है कि अगरआपके पास कोई वास्तु रखी है तो उसकी कमी या जरुरत नहीं आएगी, लेकिन वस्तु के न रहने पर उसकी जरुरत पड़ जाती है।

40- धन हीनता के योग-

-जब किसी कुंडली में धनेश का षष्ठेश से योग हो रहा हो तो धन कम होता है।

-किसी जातक की कुंडली में अगर लग्नेश तथा षष्ठेश तथा लग्नेश युति बना रहे हों तो भी धन हीनता रहती है।

-जब किसी कुंडली में षष्ठेश चतुर्थेश के अथवा दशमेश के, पंचमेश के, या फिर भाग्येश के या तृतीयेश के,अथवा लाभेश के, या अष्टमेश के साथ योग बना रहा हो तो धन के लिये तंगी का मुंह देखना पड़ता है।

-किसी कुंडली में व्ययेश अगर चतुर्थेश, धनेश, लग्नेश, पंचमेश, लाभेश अथवा अष्टमेश के साथ योग बनाता हो तो धन कम रहता है।

-जब किसी कुंडली में धन योग कम हों तथा धन हीनता योग अधिक हों तो धन को संभालने की बेहद आवश्यकता होती है। मेहनत व खर्च अधिक तथा कमाई कम होती है। जब धन योग अधिक तथा धन हीनता योग कम हों तो बरकत बनी रहती है। धन संग्रह होता है।

-कुंडली में जब बलवान धन योग कम तथा निर्बल धन हीन योग अधिक हों तो भी जातक को धन की कमी नहीं रहती। इसी प्रकार,

-जब धन हीन योग बलवान हों तथा धन योग बल हीन हों तो जातक को अपने जीवन में पुरूषार्थ की कमी के चलते कभी न कभी निर्धनता का शिकार होना ही पड़ता है।

-धनवान परिवार में जन्में जातक के धन योग हैं तो उसे और अधिक धनवान बनाते हैं। ऐसे ही धन योग यदि किसी सामान्य जातक की कुंडली में हैं तो उसे सामान्य धनवान बनाने वाले कहेगए हैं।

-किसी कुंडली में यदि धन योग की तुलना में धन हीनता का एक योग अधिक हो तो जातक को जीवन जीने लायक धन प्राप्त होता है। दो योग अधिक हों तो गरीबी कही जा सकती है। तीन योग अधिक हों तो लाले पड़े रहते हैं। तीन से अधिक होने पर भिक्षु कहा गया है। हां, बाबा नहीं ! पर

मैं पुरूषार्थ में यकीन करने का बार बार आग्रह करती हूं।

-कुंडली में अगर कोई भी धनयोग नहीं है और एक मात्र धन हीनता का योग है तो जातक धन हीन कहा जा सकता है।

-कुंडली में अगर कोई धन योग न हो और दो धन हीनता योग मौजूद हों तो धन के लिये हमेशा प्रयासरत रहना होगा।इसे धन हीनता ही कहा गया है।

-जब किसी कुंडली में कोई भी धन हीन योग न हो तथा केवल एकही धन योग हो तो जातक का जीवन सामान्यतः सुखी व अच्छा ही चलता है।

-कुंडली में कोई धन हीनता योग नहीं हैऔर दो धनयोग हैं तो जातक अन्यों को देने की हालत में होता है।

-धनेश अगर अप्रभावी भावों में हो, दूषित भावों में जा बैठा हो तो धन के लिये अच्छा नहीं होता।

-किसी कुंडली में यदि कोई धन हीनता योग न होऔर तीन अथवा तीन से अधिक धन योग हों तो जातक विपुल धन का मालिक होता है। हां, यह देखना जरूरी है कि वे योग कितने बलवान अथवा बल हीन हैं। बलवान योग अच्छे फल देते हैं। निर्बल योगों से अपेक्षित फल नहीं मिलते।

मैंने सुनफा, अनफा तथा दुर्धरा योगों का जिक्र किया है जिनके लिये चंद्र के आगे-पीछे किन्हीं ग्रहों का होना आवश्यक है। इनके अतिरिक्त, यदि चंद्र के आगे-पीछे, यानि चंद्र के दूसरे तथा बारहवें भाव में किसी ग्रह की मौजूदगी न हो तो इसे केमद्रु्रम योग कहा गया हैजो कि एक धन हीन योग है। इसे देखें नीचे दिये हुए चित्र में, यहां इस कुंडली में चंद्र के आजू-बाजू यानि चंद्र से दूसरे व बारहवें भाव में, कहें कि चंद्र से अगले व इसके ठीक पिछले भाव में कोई ग्रह नहीं है।

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केमद्रुम योग से डरने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि अधिकांश कुंडलियों में मैंने इसे भंग होते ही देखा है। हालाँकि कुंडली में चंद्र अकेला हो तो जातक को जीवन में अनेक प्रकार से अकेलेपन व दुर्भाग्य का सामना करना पडता बताया है। बहरहाल,

41- इस योग के रहने पर भी यदि  ---

-कुंडली के केंद्र में चंद्र अथवा शुक्र हों, ये गुरू द्वारा देखे जाते हों, चंद्र किसी शुभ्र ग्रह से युति कर रहा हो, अथवा उसके द्वारा देखा जा रहा हो, अथवा अपने अति मित्र की राशि में हो कर, अपने स्वयं के भवन में अथवा नवांश में स्थित हो तथा गुरू के द्वारा देखा जा रहा हो तो इन स्थितियों में केमद्रुम योग पूर्णतः निष्फल हो जाता है। इसी प्रकार अन्य धनहीनता योगों का भी है।

अब मैं बात करूंगी ऐकादश भाव की अर्थात कुंडली के उस भाव की जिसे आचार्यों ने लाभ भाव कहा है और जो मानव के जीवन में धन के आने के लिये मार्ग आदि के बारे में बतलाता है। धन स्थान की ही तरह इस भाव से भी जातक के धन के बारे में ज्ञात किया जाता है।

इस भाव में मौजूद ग्रह को देखने से पता चलता है कि जातक को किस मार्ग से धन की आवक रहेगी। यदि इस भाव में कोई शुभ ग्रह है तो अच्छे मार्ग से धन आता है अन्यथा अनुचित मार्गों से जातक धन कमाता बताया गया है। जब इस भाव में शुभ व पाप ग्रह दोनों हो तो जातक को दोनों ही मार्गों से धन लाभ होता है।

-जब किसी कुंडली में लाभ भवन पर किसी शुभ ग्रह या शुभ ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो प्रायः इसे जातक के लिये धन संबंधी मामलों में लाभकारी कहा गया है। और, जब इस भाव पर किसी पाप ग्रह या पाप ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो लाभ कम हो कर हानि अधिक बताई गई है।

-जब किसी कुंडली में लाभेश लग्न, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम अथवा दशम भाव में विराजित हो तो धन खूब खूब होना सूचित होता है।

-धनेश तथा लाभेश किसी कुंडली में यदि लग्नेश के मित्र ग्रह हैं तो जातक को धन की कमी नहीं रहती।

-किसी कुंडली में अगर चंद्रअथवा सूर्य लाभेश बन रहे हों तो जातक को राज्याश्रयआदि से अपार धन-संपदा उपलब्ध होती है। कह सकते हैं कि उसे राजकीय कार्यों में लाभ मिलने से धन आता है। यह कोई उच्च पद भी हो सकताहै।

-अगर किसी कुंडली में मंगल लाभेश है तो मंत्री जैसे किन्हीं व्यक्तियों के द्वारा धन लाभ होता है। संभव है कि वह किसी मंत्री का मित्र हो, संबंधी, उसका पीए हो।

-किसी कुंडली में बुध यदि लाभेश है तो विद्या-बुद्धि से धन कमाऐगा। वह लेखक,संपादक, कवि आदि भी हो सकता है।

-गुरू यदि लाभेश है तो अच्छे मार्ग से धन आएगा। जातक को अपने आचरण के आधार पर धन उपलब्ध होगा।

-लाभेश यदि शुक्र हो तो सुगंधित पदार्थों, कपड़े के व्यापार, महिलाओं के फैशन आदि से जुड़े व्यापार से धन लाभ होने की बात कही गई है।

-किसी कुंडली में लाभेश यदि शनि है तो जातक अनुचित कार्यों से, खर कार्यों से धन कमाता बताया गया है।

वैसे इस संबंध में थोड़ा व्यावहारिक होने की आवश्यकता है। एक पांडेजी पुरोहित थे जिनके बेटे ने चमड़े के व्यवसाय में कोई कोर्स किया और वह उसीमें अपने लिये बहुत संभावना देख रहा था। पांडेजी ने घर में उत्पात मचा दिया। किंतु बेटे ने उनकी एक न सुनी। उसने अपनी होने वाली ससुराल की मदद से शूज का एक बेहतरीन शोरूम खोला जो अच्छा चल निकला। कहने की आवश्यकता नहीं कि पांडेजी ने अपनी जिंदगी में इतना न कमाया था जितना उनके बेटे ने एक-दो साल में ही कमा कर उन्हें दे दिया कि अब वे स्वयं भी उस शोरूम में बैठने से एतराज नहीं करते। सो,

अगर अनुचित या खर कर्म की बात कुंडली में आ रही है तो यह प्राचीन काल के मानदंडों से आज के मानदंडों में बदल कर देखनी चाहिये। तब संभव ही नहीं था कि पांडेजी इस प्रकार का कर्म करके कमाऐं। अतः यह उनके मान से खर कर्म हुआ। आज इसमें कोई बुराई नहीं।

-जब किसी कुंडली में लाभ भवन का स्वामी केंद्रअथवा त्रिकोण में बैठा हो, लाभ भवन में कोई पाप ग्रह मौजूद हो,
या लाभेश उच्च का अथवा उच्चराशि के नवमांश में हो तो धन अच्छा रहता है। यह फल अर्तंदशा व महादशा में अपेक्षया मिलते हैं। इन योगों के अलावा अन्य योग भी महत्व रखते हैं।

मेरे देखने में एक कुंडली ऐसी आई थी जिसमें कोई अच्छे योग न थे, कहा जा सकता था कि वह अधिक दौलतमंद नहीं होगा किंतु पाया कि जातक वास्तव में खूब कमा रहा था। उसके बुध व गुरू उसके लिये मददगार थे। सो,
गोचर में लाभकारक स्थितियों में उसकी लगन व मेहनत रंग लाती थी और वह बिना किसी बहुत अच्छे योग केभी कईअच्छे योगों वालों सेअधिक सफल, सुखी व धनवान था।

आवश्यकता दिमाग सही रख कर अवसरों को पहचानने व उन्हें सही तौर पर पकड़ लेने की है। जो यह जानता है कि वार तभी होना चाहिये जब लोहा एकदम गर्म हो तो वह अपना काम उचित प्रकार से बना लेता है।

42- कुंडली के बारह भावों में धन योग-

अब मैं धनेश के आधार पर कुंडली के बारहों भावों के संदर्भ में धन योग संबंधी कुछ और जानकारी दूंगी।

-जब मेष लग्न की कुंडली हो जिसमें धनेश होता है शुक्र, यह शुक्र अगर कुंडली के पांचवें अथवा नौवें भवन में विराजित हो तथा सूर्य, मंगल तथा गुरू का परस्पर योग हो रहा हो तो धन के संबंध में जातक के लिये यह बेहद अच्छी स्थिति है। इस लग्न में यह शुक्र यदि बारहवें भाव में हो तो उच्च का होने से पर्याप्त धन रहेगा।

-वृष लग्न में धनेश बुध होता है। यह बुध यदि केंद्र-त्रिकोण में बैठा हो, शनि व शुक्र से इसका योग बन रहा हो तो जातक को खूब धन रहता है। जातक बुद्धिमत्ता से न केवल धन कमाता है बल्कि इसका संग्रह भी करता है।

-मिथुन लग्न होने पर धनेश चंद्रमा बनता है। अगर कुंडली में चंद्र शुभ हो कर केंद्र-त्रिकोण में हो, बुध तथा शुक्र का आपस में शुभ व योगकारी संयोग बन रहा हो तो धन की कमी नहीं रहती।

-कर्क लग्न हो तो धनेश होता है सूर्य। अगर कर्क लग्न वाले जातक की कुंडली में सूर्य लग्नस्थ हो, पांचवें भाव में हो अथवा नवम या दशम भाव में कहीं मौजूद हो, तथा मंगल व चंद्रमा की युति हो तो धन की आवक खूब होती है। इसके अलावा अगर धनेश केंद्र-त्रिकोण में गुरू से योग करता हो तो धन के लिये बहुत अच्छा रहता है।

-सिंह लग्न हो तो धनेश होता है बुध। यह अगर योगकारी हो कर चंद्र से युति करता हो तो धन लाभ खूब होता है। मंगल तथा सूर्य की युति को भी मैंने इस लग्न वाले जातकों के लिये बेहद लाभकारी पाया है। सूर्य तथा मंगल दोनों योगकारी बन रहे हों तो धन अच्छा रहता है।

-कन्या लग्न में शुक्र को धनेश बना हुआ पाते हैं। अगर कन्या लग्न वाले किसी जातक की कुंडली में धनेश शुक्र व बुध की युति लग्न भाव में हो रही है तो धन-धान्य संपन्नता रहती है। अथवा फिर इस लग्न में शुक्र नवम स्थान में स्वग्रही हो कर बैठा हो तो धन आने के मार्ग स्वतः खुलते जाते हैं।

-तुला लग्न हो जिसमें धनेश मंगल होता है, इस लग्न वाले किसी जातक की कुंडली में अगर धन स्थान में शुक्र व शनि की युति बन रही हो तथा धनेश मंगल कुंडली में लग्नस्थ, पंचमस्थअथवा नवम भावस्थ बैठा हो तोऔर जो चाहे हो धन से जातक लबालब रहता है । उसे और चाहे जितनी फिक्र रहे धन के लिये परेशानी नहीं उठानी पड़ती।

-वृश्चिक लग्न में धनेश गुरू महाराज होते हैं। अगर इस लग्न वाले किसी जातक की कुंडली में गुरू लग्न, पंचम, नवम अथवा दशम भाव में विराजित हो तो धन के मामले में कोई चिंताजनक बात नहीं रहती। धन अच्छा होता है। गुरू यदि दूषित न हो तो जातक अपनी कमाई से घर भर देने में सक्षम होता है।

-धनु लग्न हो तो धनेश स्वयं शनि देव नते हैं। इस लग्न में शनि का योगकारी होना, धन के लिये अपने शुभ भावों में बैठना, गुरू का मजबूत होना तथा मंगल व सूर्य का दसवें भवन में उपस्थित होना धन के मामले में बेहद अच्छा कहा गया है।

-मकर लग्न हो तो इसमें भी शनि ही लग्नेश व धनेश होता है। इस लग्न की कुंडली में यदि शनि तथा शुक्र का योग केंद्र त्रिकोण में मौजूद हो तो धन के लिये अत्यंत अच्छा कहा गया है। शनि अक्सर देर से भाग्योदय कराता है किंतु जातक को आजीवन धनयुक्त रखता है।

-कुंभ लग्न हो तो इसमें भी गुरू धनेश होता है। शनि व शुक्र का योगकारी हो कर अपने स्व भवनों में बैठना, एक दूसरे से युति करना, तथा गुरू का प्रभावी होना धन के लिये अच्छा माना गया है।

-मीन लग्न में धनेश मंगल होता है। इस लग्न की कुंडली में अगर योगकारी हो कर गुरू केंद्र-त्रिकोणस्थ बैठा है तो जातक को धन की कभी चिंता नहीं रहेगी। इस गुरू के अलावा यदि चंद्र-मंगल की युति हो अथवा वे एक दूसरे को शुभ दृष्टि से देखते हों तो जातक को धन संबंधी मामलों में ज्यादा चिंता की कोई बात नहीं होती।

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43- सौभाग्य की चाबी, स्वकर्म-

आखिर क्या कारण है कि कुंडली में तमाम अच्छे योगों आदि के बावजूद भी किसी को उस योग से कुछ हांसिल नहीं हुआ ? यहां यह याद दिलाना चाहूंगी कि कुंडली में यदि लिखा है कि आप बहुत विद्या हांसिल करेंगे। बस, आप निश्चिंत होकर बैठ गए तब तो आ गई विद्या !

ज्योतिषशास्त्र की ही तरह हमारी उपनिषदों में भी उल्लेख आया है कि इस जगत में केवल भाग्य भरोसे बैठ जाने वाले का भाग्य भी बैठ जाता है। जो कर्मठ बन उठ खड़ा होता है उसीका भाग्य जाग्रत होता है। यानि, बहुत कुछ हमारे अपने व्यवहार में भी होता है।कुंडली में तो सब अच्छा था मगर किस कारण सब बिगड़ गया ? यहां तक कि समस्त ज्योतिष को भी लांछित होना पड़ा। कहने का आशय यही है कि सब कुछअच्छे-बुरे योगों का खेल नहीं है। आपका अपना जीवन बहुत कुछ आपके अपने फैसलों से बनता-बिगड़ता है। सब कुछ आप पहले से ही लिखा कर नहीं लाए। और यदि लाए भी हैं तो उसे जीने, उसमें परिवर्तन करके सौभाग्य जगाने की चाबी तो आखिर आपके ही हाथ में है। क्या है ये चाबी ?

उत्तर सिर्फ एक ही है,
स्व-कर्म। हमारे कर्म चाहे वे किसी और जन्म के हों या इसी जन्म के हमारा पीछा नहीं छोड़ते। पिछले जन्म के तो हमने देखे नहीं मगर इस जन्म के कर्म तो हम साफ साफ देख रहे हैं। फिर भी हम कुछ नहीं सीखते। तो कुंडली कितनी ही दमदार क्योंन हो, बबूल के पेड़ परआम नहीं लगा सकती। कितने ही अच्छे से अच्छे ज्योतिषियों से क्यों न दिखा लें, कोई आपका मन रखने को भले ही कुछ और कह दे मगर आपके कर्म तो अपनी कहानी स्वयं कहने से बाज नहीं आते तो नहीं ही आते। शांति व धैर्य से कर्मफल भोग करते हुए अपने स्वकर्म में श्रेष्ठ बने रहने से ही हमारा भौतिक,आध्यात्मिक व तमाम विकास संभव है।

44- ठगों से सावधान-

ईश्वर नियमों का निर्माता है, स्वयं भी नियम से सर्वथा बंधा है। अपनी इस दुनिया में वह नियम तोड़ने वालों को पसंद नहीं करता तो स्वयं क्यों नियम तोड़ने लगा ? अतः ऐसे ठगों से सावधान रहें जो आपको जन्मकुंडली देख कर आपके दुख दूर करने का दावा करते हैं। धैर्य व धीरज रखते हुए अपने कर्म व कर्तव्य करते जाना ही हमें अपेक्षित होता है।इसी में हमारा कल्याण है। जो कहता है कि इतना इतना पैसा खर्च करने से वह यह सब बदल कर रख देगा वह सिर्फअपने कल्याण की सोच कर आपको बरगला रहा है।

यह जानने की बात है कि तीव्र अदृष्ट को टाला जाना किसी भी प्रकार संभव नहीं है। मानव जन्म ले कर जन्म के साथ ही कर्म का प्रवाह आरंभ हो जाता है जो कर्म हम जानबूझ कर स्वेच्छा से करते हैं उनके वैसे ही फल हमें ही, प्राप्त करने ही होंगे। कभी ये इसी जन्म में तो कभी इनके सिलसिले अगले जन्म तक चलते रहते हैं। कोई भी इससे बच नहीं सकता। और, यह भी मत मान लीजिये कि स्वयं को त्रिकाल दर्शी बतलाने वाले किसी ने हमारा भाग्य जैसा बता दिया है वैसा ही हमें मिलता रहेगा। हम अपने सुप्रयास से, लगातार कर्मरत रहते हुए अपना भाग्य बदल सकते हैं।

हां कोई अन्य ज्योतिष अथवा पूजा-पाठी इसे नहीं, बिल्कुल नहीं बदल सकता। इतना अवश्य माना जा सकता है कि आपने भरपूर पूजा-पाठ करा लिया है तब आपके धर्म भीरू मनस में एक आत्मविश्वास जाग्रत हो जाने से आप सफलता के लिये पूरे प्रयास करते हैंअतः आपको वैसे अच्छे फल भी मिलने लगते हैं। आप समझते हैं कि यह सब पूजा-पाठ से हुआ है। देखा, जजमान, हमने आपका कार्य सिद्ध करा दिया ! ओह् !

45- ज्योतिष है सचेतक-

ज्योतिष का रोल इतना मानिये कि यह हमें सचेत करता है। सचेतक है यह। इसी रूप में मैं इसे मानव की उन्नति में सहायक मानती हूं। आदि काल में यह एक पूर्ण विज्ञान ही रहा था जिसमें आने वाली घटनाओं को देख लेने की कला विकसित हो रही थी। बाद को जब उत्तर वैदिक काल में समाज में धर्म तथा समाज में बिगाड़उ त्पन्न हुआ तो संभवतः उसी दौरान इसे कर्मकांड आदि से जोड़ कर, अंधविश्वास की बंद गली की ओर इसका रूख मोड़ दिया गया। यद्यपि  हमारे आचार्यों ने इस बारे में अपेक्षित सावधानी बरती किंतु वे इस विद्या को लालची पेशेवरों के हवाले होने से रोक नहीं सके। रोजी-रोटी कमाने का माध्यम बन कर यह उन्नत विज्ञान बड़ी जल्दी एकअंधविश्वास के रूप में बदलता चला गया। खैर,

46- पुनश्चःः-

ज्योतिष को मैं एक ऐसा शास्त्र मानती हूं जो अंधविश्वास नहीं बल्कि अपनी गणनाओं में सही होने पर मानव को उसके भविष्य में आने वाले खतरों के प्रति सावधान करने में सक्षम है। इसे अंधविश्वास से जोड़ कर देखना आज आम बात है लेकिन यदि कोई ज्योतिषी अपने अध्ययन में परिपूर्ण हो तो वह आपको आने वाले समय के प्रति सजग भी कर सकता है। हां, अपने कर्म को छोड़ कर केवल भविष्यवाणी पर ही निर्भर रहना अंधविश्वास है, ज्योतिष का कोई भी वास्तविक अध्येता आपको ऐसा करने की सलाह नहीं देगा। यह बातऔर है कि ऐसे वास्तविक अध्येता का मिल पाना इतना आसान नहीं। फिर भी वह अध्येता जो निस्वार्थ भाव से, भविष्य वाचन करता हो, जिसका अध्ययन हमें उचित प्रतीत होता हो, उसके बताए अनुसार अपने कर्म को बरकरार रखते हुए आप अपना भविष्य बेहतर बना सकते हैं। उन लालची ज्योतिषियों से अवश्य सावधान रहें जो अपनी दुकान चलाने के निमित्त कुछ भी करने-कहने पर आमादा पाए जाते हैं।

देखा जाए तो यह एक उन्नत विज्ञान की तरह ही है किंतु ठीक से समझ न पाने पर यह सीधे-सादे लोगों को ठगने के एक सहज हथियार के तौर पर प्रयोग में आसानी से लाया जाता रहा है। वे किसी ज्योतिषी को भविष्यवाणियां करते देख यह मान लेते हैं कि वह उनके जीवन की सारी परेशानियों को दूर करने के उपाय बता देगा। उन्हें यह ध्यान देना चाहिये कि अन्यों की परेशानियों को छूमंतर करने का दावा करने वाला स्वयं क्यों बदहाल घूम रहा है ? क्यों पाई- पाई के लिये लालायित मिलता है ? आप में अगर जरा भी समझ है तो आप उसके लालच को फौरन भांप जाते हैं। तब आपके मन में किसके प्रति अश्रृद्धा तथा वितृष्णा जागती है ? ज्योतिष विद्या के प्रति ही न ? जबकि दोष इसमें ज्योतिष विद्या का न हो कर इसके आधे-अधूरे जानकारों का ही है।

जिसने बिना पर्याप्त अध्ययन के अपने आप को केवल किसी ज्योतिषी के परिवार में जन्म लेने के कारण ही ज्योतिषी सिद्ध कर रखा हो उसे भी मैं अच्छा ज्योतिषी नहीं मान सकती। मैंने ऐसे अनेक देखे हैं जो कहते हैं कि उन्हें तो यह विद्या भगवान ने स्वयं प्रदान की है। यदि उन्होंने इसका विधिवत अध्ययन नहीं किया है तो मेरी नजर में भगवान उन्हें कभी भी यह विद्या प्रदान नहीं कर सकता। ऐसे स्वनामधन्य ज्योतिषियों से तथा खास कर तंत्र साधकों से भी मानव को बच कर ही रहना चाहिये। ऐसे तांत्रिक मानव तथा समाज को केवल नुकसान ही देते हैं। अतः सावधान करना मैं अपना फर्ज समझती हूं। वे नाराज हों तो उनकी नाराजी की मुझे कोई परवाह नहीं क्योंकि मानव हित सर्वोपरि है।

हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि हमारे पूर्वजों द्वारा ये सारे शास्त्र व विज्ञान मानव हित के लिये ही विकसित किये गए थे। अतः यदि इनसे किसीका अहित होता है तो बजाए इन शास्त्रों आदि को खारिज करने के, यह देखा जाना चाहिये किअपने निजी स्वार्थ के चलते कहीं इनकी गलत या मनमानी, मूर्खतापूर्ण व्याख्या तो नहीं की जा रही ? अतः इनका दुरूपयोग करने वालों पर नकेल कसनी चाहिये। उनसे जन साधारण को आगाह अवश्य करना चाहिये।

इसी संदर्भ में,

अपनी किसी भी पुस्तक में मैं अपने पाठकों को किसी भी प्रकार केअंधविश्वास से मुक्त कराने का ही दायित्व समझती हूं। भले ही आज ज्योतिष विद्या को अज्ञान वश तथा किन्हीं पाखंडियों के व्यवहार के आधार पर अंधविश्वासों से जोड़ना आम बात है मगर ज्योतिष विद्या भी आखिरकार अपने वैज्ञानिक स्वरूप में मानव हित के लिये ही उपजी व विकसित हुई इसमें कोई दो मत नहीं। अतः इस सूत्र को ध्यान में रख कर ही इसे जानने-समझने-अपनाने की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता।

ऐसा नहीं है कि आरंभ में हमारे पूर्वजों को वैज्ञानिक ज्ञान उपलब्ध न था, या वे विज्ञान के बारे में जानते नहीं थे। ऋषि तात्कालीन विज्ञान से खासे परिचित थे किंतु जन-साधारण में हर तरफ अशिक्षा व अज्ञान का बोलबाला था अतः जन साधारण को समझाने के लिये उनकी अपनी मोटी सूझ के मुताबिक, प्रत्येक वैज्ञानिक सत्य को ऐसे प्रस्तुत किया जाना जरूरी था कि वे उस समझ सकें।

सो, यदि जनता के सामने सूर्य, चंद्र व अन्य नक्षत्रों के वैज्ञानिक स्वरूप के बारे में पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चीजें प्रस्तुत की जातीं तो जाहिर है कि केवल कुछ ही लोग उन्हें समझ पाते। जनता को इतनी आसानी से वे समझ में न आतीं। अतः इन तमाम वैज्ञानिक तत्वों व सत्यों को इस प्रकार कहा-बतलाया गया कि सूर्य देवता है, चंद्र देवता है,
नदी, पर्वतों, वृक्षों व प्रकृति के संरक्षण के निमित्त उन्हें देव-देवता के तौर पर प्रस्तुत करने से जनता की अपनी आस्था विकसित हुई और इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने हमसे प्रकृति सरंरक्षण करा लिया। इस रूप में वे हमारे पूर्वज समर्पित पर्यावरणवादी भी सिद्ध होते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय ज्योतिष की उत्पत्ति तो भारत में ही हुई है। यही ज्योतिषआज अगरअंधविश्वास का आगार समझा जाता है तो यह सोचने की बात है कि इसके क्या कारण रहे होंगे ? हमें उन कारणों को दूर करके इसे एक उत्तरदायित्व पूर्ण विज्ञान के रूप में इसे विकसित करने की आवश्यकता को समझना होगा ताकि सामान्य जन के लिये यह अपनी पूरी तथा वास्तविक क्षमताओं में खरा उतर सके। इसी आशा के साथ मैं अपना यह संक्षिप्त सा, एक छोटी सी बूंद सा प्रयास ज्योतिषीय महासागर में अर्पित करती हूं।

इति श्री शुभ

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संदर्भःः

1-शास्त्री नेमिचंद्र, भारतीय ज्योतिष, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ-117

2-सारावली, पृ-149 श्लोक
104, गीता प्रेस, गोरखपुर,

3-शास्त्री नेमिचंद्र, भारतीय ज्योतिष, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,पृ-23

4-वही, वही।

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संदर्भ ग्रंथ-

1-शास्त्री नेमिचंद्र, भारतीय ज्योतिष, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली,1998

2-सारावली, चौखंबा, वाराणसी, 1957

3-सारावली, गोरखपुर, 1936

4-जातक पारिजात, विकल धारा प्रकाशन, कानपुर,1945

5-ऋग्वेद संहिता, मयंक प्रेस, नागपूर,1955

6-दशाफल निरूपण, विरूपाक्ष प्रेस, बनारस, 1948

7-जातक चूड़ामणि, चौखंबा प्रकाशन, वाराणसी, 1929।

8-वर्मा सुबाल, प्राचीन लाल किताब, बंबई।

9-पंडित राम रतन, भृगु संहिता, अनुवाद, केशव प्रकाशन।

10-जीवक, बुधराम, अनुवाद, मानसागरी,

11-रामभद्र चिंतामणि, सुदर्शन संहिता, गीता प्रेस गोरखपुर,

12-ओझा, श्रीदत्त प्रसाद, अनुवाद, वृहद योग रत्नाकर

13-वृहत्संहिता, विरूपाक्ष प्रकाशन, बनारस,

14-त्रिपाठी, सुधीनाथ, अनुवाद, जातकतत्वम्

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रचनाएँ
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आत्म-विकास के साथ-साथ लोक-कल्याण अर्थात मानव-कल्याण ही जयोतिष विद्या के विकास के मूल में विद्यमान माना गया है। इसमें माना गया है कि ग्रह वास्तव में किसी जातक को फल-कुफल देने के निर्धारक नहीं हैं बल्कि वे इसके सूचक अवश्य कहे जा सकते हैं। यानि ग्रह किसी मानव को सुख-दुख, लाभ-हानि नहीं पहुंचाते वरन वे मानव को आगे आने वाले सुख-दुख, हानि-लाभ व बाधाओं आदि के बारे में सूचना अवश्य देते हैं। मानव के कर्म ही उसके सुख व दुख के कारक कहे गए हैं। ग्रहों की दृष्टि मानो टॉर्चलाइट की तरह आती है कि अब तुम्हारे कैसे-कौन प्रकार के कर्मों के फल मिलने का समय आ रहा है। अतः मेरी नजर में ज्योतिष के ज्ञान का उपयोग यही है कि ग्रहों आदि से लगने वाले भावी अनुमान के आधार पर मानव सजग रहे। यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि केवल ग्रह फल-भोग ही जीवन होता तो फिर मानव के पुरूषार्थ के कोई मायने नहीं थे, तब इस शब्द का अस्तित्व ही न आया होता। हमारे आचार्य मानते थे कि पुरूषार्थ से अदृष्ट के दुष्प्रभाव कम किये जा सकते हैं, उन्हें टाला जा सकता है। इसमें ज्योतिष उसकी मदद करने में पूर्ण सक्षम है। उनका मत था कि अदृष्ट वहीं अत्यंत प्रबल होता है जहां पुरूषार्थ निम्न होता है। इसके विपरीत, जब अदृष्ट पर मानव प्रयास व पुरूषार्थ भारी पड़ जाते हैं तो अदृष्ट को हारना पड़ता है। प्राचीन आचार्यों के अभिमत के आगे शीश झुकाते हुए, उनके अभिमत को स्वीकारते हुए मेरा भी यही मानना है कि ज्योतिष विद्या से हमें आने वाले समय की, शुभ-अशुभ की पूर्व सूचना मिलती है जिसका हम सदुपयोग कर सकते हैं। हाथ पर हाथ धर कर बैठने की हमें कोई आवश्यकता नहीं कि सब कुछ अपने आप ही अच्छा या बुरा हो जाऐगा। यह कोई विधान रचने वाला शास्त्र नहीं कि बस् अमुक घटना हो कर ही रहेगी, बल्कि यह तो सूचना देने वाला एक शास्त्र है ! यह बार-बार दोहराने की बात नहीं कि आचार्यों, मुनियों, ऋषियों ने ज्योतिष में रूचि इसलिये ली होगी कि मानव को कर्तव्य की प्रेरणा मिले। आगत को भली-भांति जान कर वह अपने कर्म व कर्तव्य के द्वारा उस आगत से अनुकूलन कर सके ताकि जीवन स्वाभाविक गति से चलता रह सके।
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16- जन्मकुंडली से शरीर का विचार- ज्योर्तिविज्ञान में माना गया है कि जातक के अंगों के परिमाण का विचार करने के लिये जन्म कुंडली को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है। -लग्नगत राशि को सिर, -द्वितीय भाव म

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सहज ज्योतिष

17 नवम्बर 2022
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33- जन्म कुंडली में राजयोग इस अपनी पुस्तक मे बात करने जा रही हूँ  किन्हीं राजयोगों की। सु-योगों की ही तरह राजयोग भी वे योग होते हैं जो जातक को हर प्रकार से सुखी-संपन्न बनाते हैं। राजयोग अगर किसी कुं

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