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सामाजिक

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हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी ये गोरे-गोरे गाल है लाल हुए अति मोद से क्या क

वेेगपूर्ण है अश्‍व तुम्हारा पथ में कैसे कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता ‘हट जाओ’ की हुंकार से होता है भयभीत व

चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी दे

नव-नील पयोधर नभ में काले छाये भर-भरकर शीतल जल मतवाले धाये लहराती ललिता लता सुबाल लजीली लहि संग तरून के सुन्दर बनी सजीली फूलो से दोनों भरी डालियाँ हिलतीं दोनों पर बैठी खग की जोड़ी मिलती बुलबुल को

अरूण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ह

दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर वही हुए अ

दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो जिन-पत्तियों पर रश्‍िमयाँ आश

शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता

शाम का समय था सभी लोग इकट्ठे हो गये थे। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। सभी लोगों की हरीश द्वारा अपने दादा और दादी की सेवा करने के विषय में जानकारी दी। इसलिए सभी लोग हरीश की सराहना कर रहे थे। लेकिन माय

विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है प्रिय वसंत के

सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा हृदय-

प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो- ‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी क

पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनी

"निखिल से शादी के बाद एक-दो महीने ठीक निकले। हालांकि उनका परिवार बहुत रूढ़िवादी विचारों का था। मेरा संगीत विद्यालय जाना भी उन्हें पसंद नहीं था इसलिए वो भी छोड़ना पड़ा। तीन-चार महीने बाद निखिल का एक अल

"ये आप क्या कह रहे हैं पापा? मां को गुज़रे तो ज़माना हो गया।" अतुल ने कहा"जब मेरी शादी निशा से हुई, उस समय मेरी माली हालत ठीक नहीं थी। मां की बिमारी, घर का खर्चा, डॉक्टर की फीस, दवाइयों का खर्चा, सब म

रात के सन्नाटे में मिनाक्षी जी की चीख से राजीव हड़बड़ा कर उठा और उनके कमरे में दौड़ते हुए पहुंचा। मिनाक्षी जी डरी सहमी सी अपने बिस्तर पर बैठी थीं। उनका सारा बदन पसीने से भीगा हुआ था। राजीव ने पहु

मेरा शहर   ( कहानी अंतिम क़िश्त )अब मुकुंद थापर आबकारी मंत्री मोहन पाल की हर पब्लिक मिटिंग में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने लगा । और मोहन पाल जी के छोटी छोटी सी बातों को नोट करने लगा। वह पब्लिक म

मेरी डायरी आज मैं कुछ पहले ही आ गई तुमसे मिलने कल देर से आई थी पर तुम्हें प्रकाशित नहीं कर सकी कल मैं बहुत खुश थी मेरी आंखों से खुशी के आंसू बह रहे थे मुझे खुश देखकर शायद कल इंद्रदेव भी प्रसन्न होकर

शुद्धि और शून्यता से समाधि फलित—(प्रवचन—सातवां) मेरे प्रिय आत्मन्, साधना की भूमिका के परिधि बिंदुओं पर हमने बात की है। अब हम उसके केंद्रीय स्वरूप पर भी विचार करें। शरीर, विचार और भाव, इनकी शुद्धि औ

साधना – सूत्र यहां प्रस्तुत हैं ओशो के विभिन्न साधकों को संकेत कर व्यक्तिगत रूप से लिखे गए साधना-संबंधी इक्कीस पत्र। ये पत्र “प्रेम के फूल, ढाई आखर प्रेम का, अंतर्वीणा, पद घुंघरू बांध, तत्वमसि तथा ट

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