shabd-logo

षष्ठ सर्ग

21 फरवरी 2022

10232 बार देखा गया 10232

धर्म का दीपक, दया का दीप,
कब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान ?
कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्त
हो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?


है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,

पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।
भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
बह रही असहाय नर की भावना निष्काम ।


भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर या कि हों भगवान,

बुद्ध हों कि अशोक, गांधी हों कि ईसु महान;
सिर झुका सबको, सभी को श्रेष्ठ निज से मान,
मात्र वाचिक ही उन्हे देता हुआ सम्मान,


दग्ध कर पर को, स्वयं भी भोगता दुख-दाह,

जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह ।
अपहरण, शोषण वही, कुत्सित वही अभियान,
खोजना चढ़ दूसरों के भस्म पर उत्थान;


शील से सुलझा न सकना आपसी व्यवहार,

दौड़ना रह-रह उठा उन्माद कीतलवार ।
द्रोह से अब भी वही अनुराग
प्राण में अब भी वही फुँकार भरता नाग ।


पूर्व युग सा आज का जीवन नहीं लाचार,

आ चुका है दूर द्वापर से बहुत संसार;
यह समय विज्ञान का, सब भांति पूर्ण, समर्थ;
खुल गए हैं गूढ संसृति के अमित गुरु अर्थ ।


चीरता तमको, संभाले बुद्धि की पतवार

आ गया है ज्योति की नव भूमि में संसार ।
आज की दुनिया विचित्र, नवीन;
प्रकृति पर सर्वत्र है, विजयी पुरुष आसीन ।


हैं बंधे नर के करों में वारी, विद्युत, भाप,

हुक्म पर चढ़ता उतरता है पवन का ताप ।
है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,
लांघ सकता नर सरित, गिरि, सिंधु एक समान ।

सीस पर आदेश कर अवधार्य,
प्रकृति के सब तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य ।
मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,
और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश ।


नव्य नर की मुष्टि में विकराल

हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण दिक्काल ।
यह प्रगति निस्सीम ! नर का यह अपूर्व विकास !
चरण तल भूगोल ! मुट्ठी में निखिल आकाश !


किन्तु है बढ़ता गया मस्तिष्क ही नि:शेष,

छूट कर पीछे गया है रह हृदय का देश;
नर मानता नित्य नूतन बुद्धि का त्योहार,
प्राण में करते दुखी होदेवता चीत्कार ।


चाहिए उनको न केवल ज्ञान

देवता हैं मांगते कुछ स्नेह, कुछ बलिदान;
मोम-सी कोई मुलायम चीज,
ताप पा कर जो उठे मन में पसीज-पसीज;


प्राण के झुलसे विपिन में फूल कुछ सुकुमार;

ज्ञान के मरू में सुकोमल भावना की धार;
चाँदनी की रागनि, कुछ भोर की मुसकान;
नींद में भूली हुई बहती नदी का गान;


रंग में घुलता हुआ खिलती कली का राज़;

पत्तियों पर गूँजती कुछ ओस की आवाज़;
आंसुओं में दर्द की गलती हुई तस्वीर;
फूल की, रस में बसी-भीगी हुई जंजीर ।


धूम, कोलाहल, थकावट धूल के उस पार,

शीतजल से पूर्ण कोई मंदगामी धार;
वृक्ष के नीचे जहां मन को मिले विश्राम,
आदमी काटे जहां कुछ छुट्टियाँ, कुछ शाम ।


कर्म-संकुल लोक-जीवन से समय कुछ छीन,

हो जहां पर बैठ नर कुछ पल स्वयं में लीन ।
फूल-सा एकांत में उर खोलने के हेतु
शाम को दिन की कमाई तोलने के हेतु ।

ले चुकी सुख-भाग समुचित से अधिक है देह,
देवता हैं मांगते मन के लिएलघु गेह ।
हाय रे मानव ! नियति के दास !
हाय रे मनुपुत्र, अपना आप ही उपहास !


प्रकृति को प्रच्छन्नता को जीत

सिंधु से आकाश तक सबको किए भयभीत;
सृष्टि को निज बुद्धि से करता हुआ परिमेय
चीरता परमाणु की सत्ता असीम, अजेय,


बुद्धि के पवमान में उड़ता हुआ असहाय

जा रहा तू किस दशा की ओर को निरुपाय ?
लक्ष्य क्या ? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ ?
यह नहीं यदि ज्ञात, तो विज्ञान का श्रम व्यर्थ ।


सुन रहा आकाश चढ़ ग्रह तारकों का नाद;

एक छोटी बात ही पड़ती न तुझको याद ।
एक छोटी, एक सीधी बात,
विश्व में छायी हुर्इ है वासना की रात।


वासना की यमिनी, जिसके तिमिर से हार,

हो रहा नर भ्रांत अपना आप ही आहार;
बुद्धि में नभ की सुरभि, तन में रुधिर की कीच,
यह वचन से देवता, पर, कर्म से पशु नीच ।


यह मनुज, जिसका गगन में जा रहा है यान,

काँपते जिसके कारों को देख कर परमाणु ।
खोल कर अपना हृदय गिरि, सिंधु, भू, आकाश
हैं सुना जिसको चुके निज गुह्यतम इतिहास ।


खुल गए पर्दे, रहा अब क्या यहाँ अज्ञेय

किन्तु, नर को चाहिए नित विघ्न कुछ दुर्जेय,
सोचने को और करने को नया संघर्ष,
नव्य जय का क्षेत्र पाने को नया उत्कर्ष ।


पर धरा सुपरीक्षिता, विशिष्ट, स्वाद-विहीन,

यह पढ़ी पोथी न दे सकती प्रवेग नवीन ।
एक लघु हस्तामलक यह भूमि मण्डल गोल,
मानवों ने पढ़ लिए सब पृष्ठ जिसके खोल ।


किन्तु, नर-प्रज्ञा सदा गतिशालिनी उद्दाम,
ले नहीं सकती कहीं रुक एक पल विश्राम ।


यह परीक्षित भूमि, यह पोथी पठित, प्राचीन
सोचने को दे उसे अब बात कौन नवीन ?
यह लघु ग्रह भूमिमंडल, व्योम यह संकीर्ण,
चाहिए नर को नया कुछ और जग विस्तीर्ण ।


घुट रही नर-बुद्धि की है सांस;

चाहती वह कुछ बड़ा जग, कुछ बड़ा आकाश ।

यह मनुज जिसके लिए लघु हो रहा भूगोल

अपर-ग्रह-जय की तृषा जिसमें उठी है बोल ।


यह मनुज विज्ञान में निष्णात,

जो करेगा, स्यात, मंगल और विधु से बात ।
यह मनुज ब्रह्मांड का सबसे सुरम्य प्रकाश,
कुछ छिपा सकते न जिससे भूमि या आकाश ।


यह मनुज जिसकी शिखा उद्दाम;

कर रहे जिसको चराचर भक्तियुक्त प्रणाम ।
यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार;
ज्ञान का, विज्ञान का, आलोक का आगार ।


पर सको सुन तो सुनो, मंगल-जगत के लोग !

तुम्हें छूने को रहा जो जीव कर उद्योग-
वह अभी पशु है; निरा पशु, हिंस्र, रक्त पिपासु,
बुद्धि उसकी दानवी है स्थूल की जिज्ञासु ।


कड़कता उसमें किसी का जब कभी अभिमान,

फूंकने लगते सभी हो मत्त मृत्यु-विषाण ।
यह मनुज ज्ञानी, शृंगालों, कूकरों से हीन
हो, किया करता अनेकों क्रूर कर्म मलिन ।


देह ही लड़ती नहीं, हैं जूझते मन-प्राण,

साथ होते ध्वंस में इसके कला-विज्ञान ।
इस मनुज के हाथ से विज्ञान के भी फूल,
वज्र हो कर छूटते शुभ धर्म अपना भूल ।


यह मनुज, जो ज्ञान का आगार !
यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार !
नाम सुन भूलो नहीं, सोचो विचारो कृत्य;
यह मनुज, संहार सेवी वासना का भृत्य ।


छद्म इसकी कल्पना, पाषंड इसका ज्ञान,

यह मनुष्य मनुष्यता का घोरतम अपमान ।
व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय,
पर, न यह परिचित मनुज का, यह न उसका श्रेय ।


श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत;

श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत;
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान
तोड़ दे जो, है वही ज्ञानी, वही विद्वान ।


और मानव भी वही, जो जीव बुद्धि-अधीर

तोड़ना अणु ही, न इस व्यवधान का प्राचीर;
वह नहीं मानव; मनुज से उच्च, लघु या भिन्न
चित्र-प्राणी है किसी अज्ञात ग्रह का छिन्न ।


स्यात, मंगल या शनिश्चर लोक का अवदान

अजनबी करता सदा अपने ग्रहों का ध्यान ।
रसवती भू के मनुज का श्रेय
यह नहीं विज्ञान, विद्या-बुद्धि यह आग्नेय;


विश्व-दाहक, मृत्यु-वाहक, सृष्टि का संताप,

भ्रांत पाठ पर अंध बढ़ते ज्ञान का अभिशाप ।
भ्रमित प्रज्ञा का कौतुक यह इन्द्र जाल विचित्र,
श्रेय मानव के न आविष्कार ये अपवित्र ।


सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार,

तो इसे दे फेंक, तज कर मोह, स्मृति के पार ।
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान;
फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान ।


खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार;

काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी यह धार ।
रसवती भू के मनुज का श्रेय,
यह नहीं विज्ञान कटु, आग्नेय ।

श्रेय उसका प्राणमें बहती प्रणय की वायु,
मानवों के हेतु अर्पित मानवों की आयु ।
श्रेय उसका आंसुओं की धार,
श्रेय उसका भग्न वीणा की अधीर पुकार ।


दिव्य भावों के जगत में जागरण का गान,

मानवों का श्रेय आत्मा का किरण-अभियान ।
यजन अर्पण, आत्मसुख का त्याग,
श्रेय मानव का तपस्या की दहकती आग ।


बुद्धि-मंथन से विनिगत श्रेय वह नवनीत,

जो करे नर के हृदय को स्निग्ध, सौम्य, पुनीत ।
श्रेय वह विज्ञान का वरदान,
हो सुलभ सबको सहज जिसका रुचिर अवदान ।


श्रेय वह नर-बुद्धि का शिवरूप आविष्कार,

ढोसके जिससे प्रकृति सबके सुखों का भार ।
मनुज के श्रम के अपव्यय की प्रथा रुक जाये,
सुख-समृद्धि-विधान में नर के प्रकृति झुक जाये ।


श्रेय होगा मनुज का समता-विधायक ज्ञान,

स्नेह-सिंचित न्याय पर नव विश्व का निर्माण ।
एक नर में अन्य का नि:शंक, दृढ़ विश्वास,
धर्म दीप्त मनुष्य का उज्ज्वल नया इतिहास-


समर, शोषण, ह्रास की विरुदावली सेहीन,

पृष्ठ जिसका एक भी होगा न दग्ध, मलिन ।
मनुज का इतिहास, जो होगा सुधामय कोष,
छलकता होगा सभी नर का जहां संतोष ।


युद्ध की ज्वर-भीति से हो मुक्त,

जब किहोगी, सत्यही, वसुधा सुधा से युक्त ।
श्रेय होगा सुष्ठु-विकसित मनुज का यह काल,
जब नहीं होगी धरा नर के रुधिर से लाल ।


श्रेय होगा धर्म का आलोक वहनिर्बन्ध,

मनुज जोड़ेगा मनुज से जब उचित संबंध ।
साम्यकि वह रश्मि स्निग्ध, उदार,
कब खिलेगी, कब खिलेगी विश्व में भगवान ?
कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्त
हो सारस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ? 



 

7
रचनाएँ
'कुरुक्षेत्र'
0.0
'कुरुक्षेत्र' का प्रतिपाद्य यही है कि मनुष्य क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर, बुद्धि और हृदय में समन्वय स्थापित करे तथा प्राणपण से मानवता के उत्थान में जुट जाए। युद्ध एक विध्वंसकारी समस्या है, जिससे त्राण पाने के लिए क्षमा, दया, तप, त्याग आदि मानवीय मूल्यों को अपनाना पड़ेगा।
1

प्रथम सर्ग

21 फरवरी 2022
12
2
0

वह कौन रोता है वहाँ-  इतिहास के अध्याय पर,  जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है  प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;  जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;  जो आप तो लड़

2

द्वितीय सर्ग

21 फरवरी 2022
5
0
0

आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि  'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,  रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये  बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर !  व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, 

3

तृतीय सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

समर निंद्य है धर्मराज, पर,   कहो, शान्ति वह क्या है,  जो अनीति पर स्थित होकर भी  बनी हुई सरला है ?  सुख-समृद्धि क विपुल कोष  संचित कर कल, बल, छल से,  किसी क्षुधित क ग्रास छीन,  धन लूट किसी निर

4

चतुर्थ सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

ब्रह्मचर्य के व्रतीधर्म केमहास्तंभ, बल के आगारपरम विरागी पुरुष जिन्हेंपाकर भी पा न सका संसार ।किया विसर्जित मुकुट धर्म हितऔर स्नेह के कारण प्राणपुरुष विक्रमी कौन दूसराहुआ जगत में भीष्म सामान ?शरों की

5

पंचम सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

शारदे! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं;संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,आशा में था इतिहास-लोक तक आया ।पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है;कोलाह

6

षष्ठ सर्ग

21 फरवरी 2022
5
0
0

धर्म का दीपक, दया का दीप,कब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान ?कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्तहो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।भोग

7

सप्तम सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

रागानल के बीच पुरुष कंचन-सा जलने वालातिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला,ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा,ऊब-डूब करता, उतराता घन में विधु-मण्डल-सा ।जय हो, अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मान

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए