shabd-logo

द्वितीय सर्ग

21 फरवरी 2022

1065 बार देखा गया 1065

आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि 

'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर, 

रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये 

बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर ! 

व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, 

काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर । 

और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास 

हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर । 

  

श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से 

योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से । 

देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही 

श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से । 

करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद, 

उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से, 

"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ" 

चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से । 

  

"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है, 

छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार; 

छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन, 

व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार; 

और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष, 

चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार- 

विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो, 

जीत किसकी है और किसकी हुई है हार ? 

  

"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह ? 

ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन ? 

कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है ? 

लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन ? 

और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर 

नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन ? 

कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का ? 

उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन ? 

  

"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का, 

तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता; 

तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को 

जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता । 

और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो, 

मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता; 

तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं, 

भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता । 

  

"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज, 

साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने; 

उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और 

पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने; 

और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच, 

बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने; 

सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी, 

सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने । 

  

"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे 

प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से; 

लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं 

दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से ? 

और महाभारत की बात क्या ? गिराये गये 

जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से, 

अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय, 

हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से ? 

  

"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है, 

एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है; 

जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु, 

लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है; 

ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य, 

ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है; 

जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य, 

या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है । 

  

"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का, 

उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है; 

अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी ? 

पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है; 

विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे, 

इससे न जूझने को मेरे पास बल है; 

ग्रहण करूँ मैं कैसे ? बार-बार सोचता हूँ, 

राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है । 

  

"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और 

आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का; 

आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ 

सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का; 

बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी, 

तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का; 

और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो 

शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का । 

  

"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई, 

एक आग तब से ही जलती है मन में; 

हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ 

मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे 

ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे, 

धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में; 

मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन 

चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में । 

  

"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा, 

नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा; 

पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी 

कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा; 

जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी, 

छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा; 

व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं, 

वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।" 

और तब चुप हो रहे कौन्तेय, 

संयमित करके किसी विध शोक दुष्परिमेय 

उस जलद-सा एक पारावार 

हो भरा जिसमें लबालब, किन्तु, जो लाचार 

बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है । 

  

भीष्म ने देखा गगन की ओर 

मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर; 

और बोले, 'हाय नर के भाग ! 

क्या कभी तू भी तिमिर के पार 

उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग, 

एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है 

आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से ?' 

  

औ' युधिष्ठिर से कहा, "तूफान देखा है कभी ? 

किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ, 

काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता, 

और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से 

उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं ? 

रुग्ण शाखाएँ द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं, 

टूट गिरते गिरते शावकों के साथ नीड़ विहंग के; 

अंग भर जाते वनानी के निहत तरु, गुल्म से, 

छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से । 

  

पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी, 

वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से । 

सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला, 

नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता । 

किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे, 

(वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को) 

देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से, 

क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में, 

सोचता, 'है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों ?' 

  

पर नहीं यह ज्ञात, उस जड़ वृक्ष को, 

प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के । 

यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं; 

किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का, 

जो जमा होता प्रचंड निदाघ से, 

फूटना जिसका सहज अनिवार्य है । 

  

यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी 

एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से, 

तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का, 

और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी 

क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से । 

भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी 

युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता 

राजनैतिक उलझनों के ब्याज से 

या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले । 

किन्तु, सबके मूल में रहता हलाहल है वही, 

फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से । 

  युद्ध को पहचानते सब लोग हैं, 

जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है ! 

सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए ! 

  

किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में 

पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे; 

युद्ध में मारे हुओं के सामने 

पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे ! 

  

और भी थे भाव उनके हृदय में, 

स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के; 

खींच कर जिसने उन्हें आगे किया, 

हेतु उस आवेश का था और भी । 

  

युद्ध का उन्माद संक्रमशील है, 

एक चिनगारी कहीं जागी अगर, 

तुरत बह उठते पवन उनचास हैं, 

दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से । 

  

और तब रहता कहाँ अवकाश है 

तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का ? 

युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं 

प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को । 

  

युद्ध की ललकार सुन प्रतिशोध से 

दीप्त हो अभिमान उठता बोल है; 

चाहता नस तोड़कर बहना लहू, 

आ स्वयं तलवार जाती हाथ में । 

  

रुग्ण होना चाहता कोई नहीं, 

रोग लेकिन आ गया जब पास हो, 

तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या ? 

शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से । 

  

है मृषा तेरे हृदय की जल्पना, 

युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है; 

क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं, 

जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो ।  

सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा, 

'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना, 

मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में 

भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।' 

  

औ' समर तो और भी अपवाद है, 

चाहता कोई नहीं इसको मगर, 

जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब 

आ गया हो द्वार पर ललकारता । 

  

है बहुत देखा-सुना मैंने मगर, 

भेद खुल पाया न धर्माधर्म का, 

आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर 

बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को । 

  

जानता हूँ किन्तु, जीने के लिए 

चाहिए अंगार-जैसी वीरता, 

पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है, 

जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर । 

  

छीनता हो सत्व कोई, और तू 

त्याग-तप के काम ले यह पाप है । 

पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे 

बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो । 

  

बद्ध, विदलित और साधनहीन को 

है उचित अवलम्ब अपनी आह का; 

गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों 

वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो ? 

  

युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर, 

जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ 

भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की, 

युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है । 

  

और जो अनिवार्य है, उसके लिए 

खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है । 

तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह 

फूटती निश्चय किसी भी व्याज से । 

  

पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी 

रुक न सकता था सहज विस्फोट यह 

ध्वंस से सिर मारने को थे तुले 

ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के । 

  

धर्म का है एक और रहस्य भी, 

अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे ? 

दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर 

हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से । 

  

व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा, 

व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी, 

किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का, 

भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को। 

  

जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में, 

कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही । 

किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं, 

पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था ? 

हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये, 

पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को, 

जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था । 

  

और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में 

क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का, 

द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही 

उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था 

और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया; 

सो बता क्या पुण्य था ? य पुण्यमय था क्रोध वह, 

जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के ? 

  

कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक 

है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही; 

जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती, 

जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर । 

  

त्याग, तप, भिक्षा ? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर, 

त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं; 

याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं; 

या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का, 

जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर 

ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं 

  

त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर, 

व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर, 

हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे, 

काम आता है बलिष्ठ शरीर ही । 

  

और तू कहता मनोबल है जिसे, 

शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का; 

क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है, 

नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से । 

  

कौन केवल आत्मबल से जूझ कर 

जीत सकता देह का संग्राम है ? 

पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा, 

आत्मबल का एक बस चलता नहीं । 

  

जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में, 

व्यक्ति का ही मन उसे है मानता; 

योगियों की शक्ति से संसार में, 

हारता लेकिन, नहीं समुदाय है । 

  

कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का 

दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने; 

"मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक 

शस्त्र ही है ?" पूछा था कोमलमना वाम ने । 

नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप, 

त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने, 

"तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव 

पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।"  

   

 

7
रचनाएँ
'कुरुक्षेत्र'
0.0
'कुरुक्षेत्र' का प्रतिपाद्य यही है कि मनुष्य क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर, बुद्धि और हृदय में समन्वय स्थापित करे तथा प्राणपण से मानवता के उत्थान में जुट जाए। युद्ध एक विध्वंसकारी समस्या है, जिससे त्राण पाने के लिए क्षमा, दया, तप, त्याग आदि मानवीय मूल्यों को अपनाना पड़ेगा।
1

प्रथम सर्ग

21 फरवरी 2022
12
2
0

वह कौन रोता है वहाँ-  इतिहास के अध्याय पर,  जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है  प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;  जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;  जो आप तो लड़

2

द्वितीय सर्ग

21 फरवरी 2022
5
0
0

आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि  'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,  रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये  बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर !  व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, 

3

तृतीय सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

समर निंद्य है धर्मराज, पर,   कहो, शान्ति वह क्या है,  जो अनीति पर स्थित होकर भी  बनी हुई सरला है ?  सुख-समृद्धि क विपुल कोष  संचित कर कल, बल, छल से,  किसी क्षुधित क ग्रास छीन,  धन लूट किसी निर

4

चतुर्थ सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

ब्रह्मचर्य के व्रतीधर्म केमहास्तंभ, बल के आगारपरम विरागी पुरुष जिन्हेंपाकर भी पा न सका संसार ।किया विसर्जित मुकुट धर्म हितऔर स्नेह के कारण प्राणपुरुष विक्रमी कौन दूसराहुआ जगत में भीष्म सामान ?शरों की

5

पंचम सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

शारदे! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं;संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,आशा में था इतिहास-लोक तक आया ।पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है;कोलाह

6

षष्ठ सर्ग

21 फरवरी 2022
5
0
0

धर्म का दीपक, दया का दीप,कब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान ?कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्तहो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।भोग

7

सप्तम सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

रागानल के बीच पुरुष कंचन-सा जलने वालातिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला,ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा,ऊब-डूब करता, उतराता घन में विधु-मण्डल-सा ।जय हो, अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मान

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए