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चतुर्थ सर्ग

21 फरवरी 2022

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ब्रह्मचर्य के व्रतीधर्म के
महास्तंभ, बल के आगार
परम विरागी पुरुष जिन्हें
पाकर भी पा न सका संसार ।


किया विसर्जित मुकुट धर्म हित
और स्नेह के कारण प्राण
पुरुष विक्रमी कौन दूसरा
हुआ जगत में भीष्म सामान ?


शरों की नोक पर लेटे हुए,गजराज जैसे
थके, टूटे गरुड़ से,स्रस्त पन्न्गराज जैसे
मरण पर वीर-जीवन का अगम बल भार डाले
दबाये काल को, सायास संज्ञा को संभाले,


पितामह कह रहे कौन्तेय से रण की कथा हैं,
विचारों की लड़ी में गूंथते जाते व्यथा हैं।
ह्रदय सागर मथित होकर कभी जब डोलता है
छिपी निज वेदना गंभीर नर भी बोलता है ।


"चुराता न्याय जो, रण को बुलाता भी वही है,
युधिष्ठिर ! स्वत्व की अन्वेषणा पातक नहीं है ।
नरक उनके लिए, जो पाप को स्वीकारते हैं;
न उनके हेतु जो तन में उसे ललकारते हैं ।


सहज ही चाहता कोई नहीं लड़ना किसी से;
किसीको मारना अथवा स्वयं मरना किसी से;
नहीं दु:शांति को भी तोडना नर चाहता है;
जहाँ तक हो सके, निज शांति प्रेम निबाहता है ।


मगर, यह शांतिप्रियता रोकती केवल मनुज को
नहीं वो रोक पाती है दुराचारी दनुज को ।
दनुज क्या शिष्ट मानव को कभी पहचानता है ?
विनय की नीति कायर की सदा वह मानता है ।


समय ज्यों बीतता, त्यों त्यों अवस्था घोर होती है
अन्य की श्रंखला बढ़ कर कराल कठोर होती है ।
किसी दिन तब, महाविस्फोट कोई फूटता है
मनुज ले जान हाथों में दनुज पर टूटता है ।

न समझोकिन्तु, इस विध्वंस के होते प्रणेता
समर के अग्रणी दो ही, पराजित और जेता ।
नहीं जलता निखिलसंसार दो की आग से है,
अवस्थित ज्यों न जग दो-चार ही के भाग से है ।


युधिष्ठिर ! क्या हुताशन-शैल सहसा फूटता है ?
कभी क्या वज्र निर्धन व्योम से भी छूटता है ?
अनलगिरी फूटता, जब ताप होता है अवनी में,
कडकती दामिनी विकराल धूमाकुल गगन में ।


महाभारत नहीं था द्वन्द्व केवल दो घरों का,
अनल का पुंज था इसमें भरा अगणित नरों का ।
न केवल यह कुफल कुरुवंश के संघर्ष का था,
विकट विस्फोट यह सम्पूर्ण भारतवर्ष का था ।


युगों से विश्व में विष-वायु बहती आ रही थी,
धरित्री मौन हो दावाग्नि सहती आ रही थी;
परस्प वैर-शोधन के लिए तैयार थे सब,
समर का खोजते कोई बड़ा आधार थे सब ।


कहीं था जल रहा कोई किसी की शूरता से ।
कहीं था क्षोभ में कोई किसी की क्रूरता से ।
कहीं उत्कर्ष ही नृप का नृपों को सालता था
कहीं प्रतिशोध का कोई भुजंगम पालता था ।


निभाना पर्थ-वध का चाहता राधेयथा प्रण ।
द्रुपद था चाहता गुरु द्रोण से निज वैर-शोधन ।
शकुनी को चाह थी, कैसे चुकाए ऋण पिता का,
मिला दे धूल में किस भांति कुरु-कुल की पताका ।


सुयोधन पर न उसका प्रेम था, वह घोर छल था ।
हितू बन कर उसे रखना ज्वलित केवल अनल था ।
जहाँ भी आग थी जैसी, सुलगती जा रही थी,
समर में फूट पड़ने के लिए अकुला रही थी ।


सुधारों से स्वयं भगवान के जो-जो चिढे थे
नृपति वे क्रुद्ध होकर एक दल में जा मिले थे ।
नहीं शिशुपाल के वध से मिटा था मान उनका,
दुबक कर था रहा धुन्धुंआँ द्विगुण अभिमान उनका ।



परस्पर की कलह से, वैर से, हो कर विभाजित
कभी से दो दलों में हो रहे थे लोग सज्जित ।
खड़े थे वे ह्रदय में प्रज्वलित अंगार ले कर,
धनुर्ज्या को चढा कर, म्यान में तलवार ले कर ।

था रह गया हलाहल का यदि
कोई रूप अधूरा,
किया युधिष्ठिर, उसे तुम्हारे
राजसूय ने पूरा ।


इच्छा नर की और, और फल
देती उसे नियति है ।
फलता विष पीयूष-वृक्ष में,
अकथ प्रकृति की गति है ।


तुम्हें बना सम्राट देश का,
राजसूय के द्वारा,
केशव ने था ऐक्य- सृजन का
उचित उपाय विचारा ।


सो, परिणाम और कुछ निकला,
भडकी आग भुवन में ।
द्वेष अंकुरित हुआ पराजित
राजाओं के मन में ।


समझ न पाए वे केशव के
सदुद्देश्य निश्छल को ।
देखा मात्र उन्होंने बढ़ते
इन्द्रप्रस्थ के बल को ।


पूजनीय को पूज्य मानने
में जो बाधा-क्रम है,
वही मनुज का अहंकार है,
वही मनुज का भ्रम है ।


इन्द्रप्रस्थ का मुकुट-छत्र
भारत भर का भूषण था;
उसे नमन करने में लगता
किसे, कौन दूषण था ?


तो भी ग्लानि हुई बहुतों को
इस अकलंक नमन से,
भ्रमित बुद्धि ने की इसकी
समता अभिमान-दलन से ।


इस पूजन में पड़ी दिखाई
उन्हें विवशता अपनी,
पर के विभव, प्रताप, समुन्नति
में परवशता अपनी ।


राजसूय का यज्ञ लगा
उनको रण के कौशल सा,
निज विस्तार चाहने वाले
चतुर भूप के छल सा ।


धर्मराज ! कोई न चाहता
अहंकार निज खोना
किसी उच्च सत्ता के सम्मुख
सन्मन से नत होना ।


सभी तुम्हारे ध्वज के नीचे
आये थे न प्रणय से
कुछ आये थे भक्ति-भाव से
कुछ कृपाण के भय से ।


मगर भाव जो भी हों सबके
एक बात थी मन में
रह सकता था अक्षुण्ण मुकुट का
मान न इस वंदन में ।


लगा उन्हें, सर पर सबके
दासत्व चढा जाता है,
राजसूय में से कोई
साम्राज्य बढ़ा आता है ।


किया यज्ञ ने मान विमर्दित
अगणित भूपालों का,
अमित दिग्गजों का,शूरों का,
बल वैभव वालों का ।

 

सच है सत्कृत किया अतिथि
भूपों को तुमने मन से
अनुनय, विनय, शील, समता से,
मंजुल, मिष्ट वचन से ।


पर, स्वतंत्रता-मणि का इनसे
मोल न चूक सकता है
मन में सतत दहकने वाला
भाव न रुक सकता है ।


कोई मंद, मूढमति नृप ही
होता तुष्टवचन से,
विजयी की शिष्टता-विनय से,
अरि के आलिंगन से ।


चतुर भूप तन से मिल करते
शमित शत्रु के भय को,
किन्तु नहीं पड़ने देते
अरि-कर में कभी ह्रदय को ।


हुए न प्रशमित भूप
प्रणय-उपहार यज्ञ में देकर,
लौटे इन्द्रप्रस्थ से वे
कुछ भाव और ही ले कर ।


"धर्मराज, है याद व्यास का
वह गंभीर वचन क्या ?
ऋषि का वह यज्ञान्त-काल का
विकट भविष्य-कथन क्या ?


जुटा जा रहा कुटिल ग्रहों का
दुष्ट योग अम्बर में,
स्यात जगत पडने वाला है
किसी महा संगरमें ।


तेरह वर्ष रहेगी जग में
शांति किसी विध छायी ।
तब होगा विस्फोट, छिडेगी
कोई कठिन लड़ाई ।


होगा ध्वंस कराल, काल
विप्लव का खेल रचेगा,
प्रलय प्रकट होगा धरणी पर,
हा-हा कार मचेगा ।


यह था वचन सिद्ध दृष्टा का,
नहीं निरी अटकल थी,
व्यास जानते थे वसुधा
जा रही किधर पल-पल थी ।


सब थे सुखी यज्ञ से, केवल
मुनि का ह्रदय विकल था,
वहीजानते थे कि कुण्ड से
निकला कौन अनल था ।


भरी सभा के बीच उन्होंने
सजग किया था सबको,
पग-पग पर संयम का शुभ
उपदेश दिया था सबको ।


किन्तु अहम्म्य, राग-दीप्त नर
कब संयम करता है ?
कल आने वाली विपत्ति से
आज कहाँ डरता है ?


बीत न पाया वर्ष काल का
गर्जन पड़ा सुनाई,
इन्द्रप्रस्थ पर घुमड़ विपद की
घटा अतर्कित छायी ।


किसे ज्ञात था खेल-खेल में
यह विनाश छायेगा ?
भारत का दुर्भाग्य द्यूत पर
चढा हुआ आएगा ?


कौन जानता था कि सुयोधन
की धृति यों छूटेगी ?
राजसूय के हवन-कुण्ड से
विकट- वह्नि फूटेगी ?


तो भी है सच, धर्मराज !
यह ज्वाला नयी नहीं थी;
दुर्योधन के मन में वह
वर्षों से खेल रही थी ।


बिंधा चित्र-खग रंग भूमि में
जिस दिन अर्जुन-शर से,
उसी दिवस जनमी दुरग्नि
दुर्योधन के अन्तर से ।


बनी हलाहल वहीवंश का,
लपटें लाख-भवन की,
द्यूत-कपट शकुनी का वन-
यातना पांडु-नंदन की ।


भरी सभा में लाज द्रोपदी
की न गयी थी लूटी,
वह तो यही कराल आग
थी निर्भय हो कर फूटी ।


ज्यों ज्यों साड़ी विवश द्रोपदी
की खिंचती जाती थी,
त्यों–त्यों वह आवृत,
दुरग्नि यह नग्न हुयी जाती थी ।


उसके कर्षित केश जाल में
केश खुले थे इसके,
पुंजीभूत वसन उसका था
वेश खुले थे इसके ।


दुरवस्था में घेर खड़ा था
उसे तपोबल उसका,
एक दीप्त आलोक बन गया
था चीरांचल उसका ।


पर, दुर्योधन की दुरग्नि
नंगी हो नाच रही थी
अपनी निर्लज्जता, देश का
पौरुष जांच रही थी ।



किन्तु न जाने क्यों उस दिन
तुम हारे, मैं भी हारा,
जाने, क्यों फूटी न भुजा को

फोड़ रक्त की धारा ।


नर की कीर्ति- ध्वजा उस दिन
कट गयी देश में जड़ से
नारी ने सुर को टेरा,
जिस दिन निराश हो नर से ।



महासमर आरम्भ देश में
होना था उस दिन ही,
उठा खड्ग यह पंक रुधिर से
धोना था उस दिन ही ।


निर्दोषा, कुलवधू, एकवस्त्रा
को खींच महल से,
दासी बना सभा में लाये
दुष्ट द्यूत के छल से ।


और सभी के सम्मुख
लज्जा-वसन अभय हो खोलें
बुद्धि- विषण्ण वीर भारत के
किन्तु नहीं कुछ बोलें ।


समझ सकेगा कौन धर्म की
यह नव रीति निराली,
थूकेंगीं हम पर अवश्य
संततियां आने वाली ।


उस दिन की स्मृति से छाती
अब भी जलने लगती है,
भीतर कहीं छुरी कोई
हृत पर चलने लगती है ।


धिक् धिक् मुझे, हुयी उत्पीड़ित
सम्मुख राज-वधूटी
आँखों के आगे अबला की
लाज खलों ने लूटी ।

 

और रहा जीवित मैं, धरणी
फटी न दिग्गज डोला,
गिरा न कोई वज्र, न अम्बर
गरज क्रोध में बोला ।


जिया प्रज्ज्वलित अंगारे-सा
मैं आजीवन जग में,
रुधिर नहीं था, आग पिघल कर
बहती थी रग-रग में ।


यह जन कभी किसी का अनुचित
दर्प न सह सकता था,
कहीं देख अन्याय किसी का
मौन न रह सकता था ।


सो कलंक वह लगा, नहीं
धुल सकता जो धोने से,
भीतर ही भीतर जलने से
या कष्ट फाड़ रोने से ।


अपने वीर चरित पर तो मैं
प्रश्न लिए जाता हूँ,
धर्मराज ! पर, तुम्हें एक
उपदेश दिए जाता हूँ ।


शूरधर्म है अभय दहकते
अंगारों पर चलना,
शूरधर्म है शाणित असि पर
धर कर चरण मचलना ।


शूरधर्म कहते हैं छाती तान
तीर खाने को,
शूरधर्म कहते हँस कर
हालाहल पी जाने को ।


आग हथेली पर सुलगा कर
सिर का हविष्चढाना,
शूरधर्म है जग को अनुपम
बलि का पाठ पढ़ाना ।

सबसे बड़ा धर्म है नर का
सदा प्रज्वलित रहना,
दाहक शक्ति समेट स्पर्श भी
नहीं किसी का सहना ।


बुझा बुद्धि का दीप वीरवर
आँख मूँद चलते हैं,
उछल वेदिका पर चढ जाते
और स्वयं बलते हैं ।


बात पूछने को विवेक से
जभी वीरता जाती,
पी जाती अपमान पतित हो
अपना तेज गंवाती ।


सच है बुद्धि-कलश में जल है
शीतल सुधा तरल है,
पर,भूलो मत, कुसमय में
हो जाता वही गरल है ।


सदा नहीं मानापमान की
बुद्धि उचित सुधि लेती,
करती बहुत विचार, अग्नि की
शिखा बुझा है देती ।


उसने ही दी बुझा तुम्हारे
पौरुष की चिंगारी,
जली न आँख देख कर खिंचती
द्रुपद-सुता की साड़ी ।


बाँध उसी ने मुझे द्विधा से
बना दिया कायर था,
जगूँ-जगूँ जब तक, तब तक तो
निकल चुका अवसर था ।


यौवन चलता सदा गर्व से
सिर ताने, शर खींचे,
झुकने लगता किन्तु क्षीण बल
वे विवेक के नीचे ।



यौवन के उच्छल प्रवाह को
देख मौन, मन मारे,
सहमी हुई बुद्धि रहती है
निश्छल खड़ीकिनारे ।


डरती है, बह जाए नहीं
तिनके-सी इस धारा में,
प्लावन-भीत स्वयं छिपती
फिरती अपनी कारा में ।


हिम-विमुक्त, निर्विघ्न, तपस्या
पर खिलता यौवन है,
नयी दीप्ति, नूतन सौरभ से
रहता भरा भुवन है ।


किन्तु बुद्धि नित खड़ी ताक में
रहती घातलगाए,
कब जीवन का ज्वार शिथिल हो
कब वह उसे दबाये ।


और सत्य ही, जभी रुधिर का
वेग तनिक कम होता,
सुस्ताने को कहीं ठहर
जाता जीवन का सोता ।


बुद्धि फेंकती तुरत जाल निज
मानव फंस जाता है,
नयी नयी उलझने लिए
जीवन सम्मुखआता है ।


क्षमा या कि प्रतिकार, जगत में
क्या कर्त्तव्य मनुज का ?
मरण या कि उच्छेद ? उचित
उपचार कौन है रूज का ?


बल-विवेक में कौन श्रेष्ठ है,
असि वरेण्य या अनुनय ?
पूजनीयरुधिराक्त विजय
या करुणा-धौतपराजय ?



दो में कौन पुनीत शिखा है ?
आत्मा की या मन की ?
शमित-तेज वय की मति शिव
या गति उच्छल यौवन की ?


जीवन की है श्रांति घोर, हम
जिसको वय कहते हैं,
थके सिंह आदर्श ढूंढते,
व्यंगय-बाण सहते हैं ।


वय हो बुद्धि-अधीन चक्र पर
विवश घूमता जाता,
भ्रम को रोक समय को उत्तर,
तुरत नहीं दे पाता ।


तब तक तेज लूट पौरुष का
काल चला जाता है ।
वय-जड़ मानव ग्लानि-मग्न हो
रोता-पछताता है ।


वय का फल भोगता रहा मैं
रुका सुयोधन-घर में,
रही वीरता पड़ी तड़पती
बंद अस्थि-पंजर में ।


न तो कौरवों का हित साधा
और न पांडव का ही,
द्वंद्व-बीच उलझा कर रक्खा
वय ने मुझे सदा ही ।


धर्म, स्नेह, दोनों प्यारे थे
बड़ा कठिन निर्णय था,
अत: एक को देह, दूसरे-
को दे दिया हृदय था ।


किन्तु, फटी जब घटा, ज्योति
जीवन की पड़ी दिखाई,
सहसा सैकत-बीच स्नेह की
धार उमड़ कर छाई ।


धर्म पराजित हुआ, स्नेह का
डंका बजा विजय का,
मिली देह भी उसे, दान था
जिसको मिला हृदय था ।


भीष्म न गिरा पार्थ के शर से,
गिरा भीष्म का वय था,
वय का तिमिर भेद वह मेरा,
यौवन हुआ उदय था ।


हृदय प्रेम को चढ़ा, कर्म को
भुजा समर्पित करके
मैं आया था कुरुक्षेत्र में
तोष हृदय में भर के ।


समझा था, मिट गया द्वंद्व
पा कर यह न्याय-विभाजन,
ज्ञात न था, है कहीं कर्म से
कठिन स्नेह का बंधन ।


दिखा धर्म की भीति, कर्म
मुझसे सेवा लेता था,
करने को बलि पूर्ण स्नेह
नीरव इंगित देता था ।


धर्मराज, संकट में कृत्रिम
पटल उघर जाता है,
मानव का सच्चा स्वरूप
खुल कर बाहर आता है ।


घमासान ज्यों बढ़ा, चमकने
धुंधली लगी कहानी,
उठी स्नेह-वंदन करने को
मेरी दबी जवानी ।


फटा बुद्धि -भ्रम, हटा कर्म का
मिथ्याजाल नयन से,
प्रेम अधीर पुकार उठा
मेरे शरीर से, मन से-


लो, अपना सर्वस्व पार्थ !
यह मुझको मार गिराओ,
अब है विरह असह्य, मुझे
तुम स्नेह-धाम पहुंचाओ ।


ब्रह्मचर्य्य के प्रण के दिन जो
रुद्ध हुयी थी धारा,
कुरुक्षेत्र में फूट उसी ने
बन कर प्रेम पुकारा ।


बही न कोमल वायु, कुंज
मन का था कभी न डोला,
पत्तों की झुरमुट में छिप कर
बिहग न कोई बोला ।


चढ़ा किसी दिन फूल, किसी का
मान न मैं कर पाया,
एक बार भी अपने को था
दान न मैं कर पाया ।


वह अतृप्ति थी छिपी हृदय के
किसी निभृत कोने में,
जा बैठा था आँख बचा
जीवन चुपके दोने में ।


वही भाव आदर्श-वेदि पर
चढ़ा फुल्ल हो रण में,
बोल रहा है वही मधुर
पीड़ा बन कर व्रण-व्रण में ।


मैं था सदा सचेत, नियंत्रण-
बंध प्राण पर बांधे,
कोमलता की ओर शरासन
तान निशाना साधे ।


पर, न जानता था, भीतर
कोई माया चलती है,
भाव-गर्त के गहन वितल में
शिखा छन्न जलती है ।

वीर सुयोधन का सेनापति
बन लड़ने आया था ;
कुरुक्षेत्र में नहीं, स्नेह पर
मैं मरने आया था ।


सच है, पार्थ-धनुष पर मेरी
भक्ति बहुत गहरी थी,
सच है, उसे देख उठती
मन में प्रमोद-लहरी थी ।


"सच है, था चाहता पाण्डवों
का हित मैं सम्मन से,
पर दुर्योधन के हाथों में
बिका हुआ था तन से ।


"न्याय–व्यूह को भेद स्नेह ने
उठा लिया निज धन है,
सिद्ध हुआ, मन जिसे मिला,
संपत्ति उसी की तन है ।


"प्रकटी होती मधुर प्रेम की
मुझ पर कहीं अमरता,
स्यात देश को कुरूक्षेत्र का
दिन न देखना पड़ता ।


"धर्मराज, अपने कोमल
भावों की कर अवहेला ।
लगता है, मैंने भी जग को
रण की ओर ढकेला ।


"जीवन के अरूणाभ प्रहर में
कर कठोर व्रत धारण,
सदा स्निग्ध भावों का यह जन
करता रहा निवारण ।


"न था मुझे विश्वास, कर्म से
स्नेह श्रेष्ठ, सुन्दर है,
कोमलता की लौ व्रत के
आलोकों से बढ़, कर है ।

 

"कर में चाप, पीठ पर तरकस,
नीति–ज्ञान था मन में,
इन्हें छोड, मैंने देखा
कुछ और नहीं जीवन में ।


"जहाँ कभी अन्तर में कोर्इ
भाव अपरिचित जागे,
झुकना पड़ा उन्हें बरबस,
नय–नीति–ज्ञान के आगे ।


"सदा सुयोधन के कृत्यों से
मेरा क्षुब्ध हृदय था,
पर, क्या करता, यहाँ सबल थी
नीति, प्रबलतम नय था !


"अनुशासन का स्वत्व सौंप कर
स्वयं नीति के कर में,
पराधीन सेवक बन बैठा
मैं अपने ही घर में,


"बुद्धि शासिका थी जीवन की,
अनुचर मात्र हृदय था,
मुझसे कुछ खुलकर कहने में
लगता उसको भय था ।


कह न सका वह कभी, भीष्म !
तुम कहाँ बहे जाते हो ?
न्याय-दण्ड-धर हो कर भी
अन्याय सहे जाते हो ।


प्यार पांडवों पर मन से
कौरव की सेवा तन से,
सध पाएगा कौन काम
इस बिखरी हुई लगन से ?


बढ़ता हुआ बैर भीषण
पांडव से दुर्योधन का,
मुझमें बिम्बित हुआ द्वंद्व
बन कर शरीर से मन का ।

किन्तु, बुद्धि ने मुझे भ्रमित कर
दिया नहीं कुछ करने,
स्वत्व छीन अपने हाथों का
हृदय-वेदी पर धरने ।


कभी दिखती रही बैर के
स्वयं-शमन का सपना,
कहती रही कभी, जग में
है कौन पराया-अपना ।


कभी कहा, तुम बढ़े, धीरता
बहुतों की छूटेगी,
होगा विप्लव घोर, व्यवस्था
की सरणी टूटेगी ।


कभी वीरता को उभार
रोका अरण्य जाने से ;
वंचित रखा विविध विध मुझको
इच्छित फल पाने से ।


आज सोचता हूँ, उसका यदि
कहा न माना होता,
स्नेह-सिद्ध शुचि रूप न्याय का
यदि पहचाना होता ।


धो पाता यदि राजनीति का
कलुष स्नेह के जल से,
दंडनीति को कहीं मिला
पाता करुणा निर्मल से ।


लिख पायी सत्ता के उर पर
जीभ नहीं जो गाथा,
विशिख-लेखनी से लिखने मैं
उसे कहीं उठ पाता ।


कर पाता यदि मुक्त हृदय को
मस्तक के शासन से,
उतार पकड़ता बाँह दलित की
मंत्री के आसन से ।


राज-द्रोह की ध्वजा उठा कर
कहीं प्रचारा होता,
न्याय-पक्ष लेकर दुर्योधन
को ललकारा होता ।


स्यात सुयोधन भीत उठाता
पग कुछ अधिक संभल के,
भरतभूमि पड़ती न स्यात
संगर में आगे चल के ।


पर, सब कुछ हो चुका, नहीं कुछ
शेष, कथा जाने दो,
भूलो बीती बात, नए
युग को जग में आने दो ।


मुझे शांति, यात्रा से पहले
मिले सभी फल मुझको,
सुलभ हो गए धर्म, स्नेह
दोनों के संबल मुझको । 

 


 




 

7
रचनाएँ
'कुरुक्षेत्र'
0.0
'कुरुक्षेत्र' का प्रतिपाद्य यही है कि मनुष्य क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर, बुद्धि और हृदय में समन्वय स्थापित करे तथा प्राणपण से मानवता के उत्थान में जुट जाए। युद्ध एक विध्वंसकारी समस्या है, जिससे त्राण पाने के लिए क्षमा, दया, तप, त्याग आदि मानवीय मूल्यों को अपनाना पड़ेगा।
1

प्रथम सर्ग

21 फरवरी 2022
12
2
0

वह कौन रोता है वहाँ-  इतिहास के अध्याय पर,  जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है  प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;  जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;  जो आप तो लड़

2

द्वितीय सर्ग

21 फरवरी 2022
5
0
0

आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि  'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,  रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये  बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर !  व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, 

3

तृतीय सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

समर निंद्य है धर्मराज, पर,   कहो, शान्ति वह क्या है,  जो अनीति पर स्थित होकर भी  बनी हुई सरला है ?  सुख-समृद्धि क विपुल कोष  संचित कर कल, बल, छल से,  किसी क्षुधित क ग्रास छीन,  धन लूट किसी निर

4

चतुर्थ सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

ब्रह्मचर्य के व्रतीधर्म केमहास्तंभ, बल के आगारपरम विरागी पुरुष जिन्हेंपाकर भी पा न सका संसार ।किया विसर्जित मुकुट धर्म हितऔर स्नेह के कारण प्राणपुरुष विक्रमी कौन दूसराहुआ जगत में भीष्म सामान ?शरों की

5

पंचम सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

शारदे! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं;संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,आशा में था इतिहास-लोक तक आया ।पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है;कोलाह

6

षष्ठ सर्ग

21 फरवरी 2022
5
0
0

धर्म का दीपक, दया का दीप,कब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान ?कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्तहो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।भोग

7

सप्तम सर्ग

21 फरवरी 2022
2
0
0

रागानल के बीच पुरुष कंचन-सा जलने वालातिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला,ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा,ऊब-डूब करता, उतराता घन में विधु-मण्डल-सा ।जय हो, अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मान

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