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प्रथम सर्ग

21 फरवरी 2022

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वह कौन रोता है वहाँ- 

इतिहास के अध्याय पर, 

जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है 

प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का; 

जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है; 

जो आप तो लड़ता नहीं, 

कटवा किशोरों को मगर, 

आश्वस्त होकर सोचता, 

शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ? 



और तब सम्मान से जाते गिने 

नाम उनके, देश-मुख की लालिमा 

है बची जिनके लुटे सिन्दूर से; 

देश की इज्जत बचाने के लिए 

या चढा जिनने दिये निज लाल हैं । 



ईश जानें, देश का लज्जा विषय 

तत्त्व है कोई कि केवल आवरण 

उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का 

जो कि जलती आ रही चिरकाल से 

स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी 

नायकों के पेट में जठराग्नि-सी । 



विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में 

मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का; 

चाहता लड़ना नहीं समुदाय है, 

फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से । 



हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से, 

हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही- 

उपचार एक अमोघ है 

अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का ! 



लड़ना उसे पड़ता मगर । 

औ' जीतने के बाद भी, 

रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ; 

वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में 

विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता । 



उस सत्य के आघात से 

हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी, 

सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों । 

वह तिलमिला उठता, मगर, 

है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है । 



सहसा हृदय को तोड़कर 

कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की- 

'नर का बहाया रक्त, हे भगवान ! मैंने क्या किया 

लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने । 



इस दंश क दुख भूल कर 

होता समर-आरूढ फिर; 

फिर मारता, मरता, 

विजय पाकर बहाता अश्रु है । 



यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में 

नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी, 

पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का 

वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था । 



और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी, 

मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की 

दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से, 

रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की, 

केश जो तेरह बरस से थे खुले । 



और जब पविकाय पाण्डव भीम ने 

द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर 

हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो 

पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी । 



कौरवों का श्राद्ध करने के लिए 

या कि रोने को चिता के सामने, 

शेष जब था रह गया कोई नहीं 

एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा । 



और जब, तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से 

घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में, 

लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा, 

लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही, 

जीवितों के कान पर मरता हुआ, 

और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ- 

'देख लो, बाहर महा सुनसान है 

सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।' 



हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है, 

कौन सुन समझे उसे ? सब लोग तो 

अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से; 

जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है । 



किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में 

एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल 

बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा 

मग्न चिन्तालीन अपने-आप में । 



"सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं 

दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से ! 

मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे; 

हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।" 



स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा- 

"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं; 

तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो, 

किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं । 



"हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ 

दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा, 

जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर, 

अर्थ जिसका अब न कोई याद है । 



"आ गये हम पार, तुम उस पार हो; 

यह पराजय या कि जय किसकी हुई ? 

व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का 

अब विजय-उपहार भोगो चैन से।" 



हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा 

लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में, 

औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा 

एक रव मन का कि व्यापक शून्य का । 



'रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी 

हो गयी है लाल नीचे कोस-भर, 

और ऊपर रक्त की खर धार में 

तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के । 



'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी 

शेष क्या है ? व्यंग ही तो भग्य का ? 

चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे 

तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया ? 

'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे 

चाहता था, शत्रुओं के साथ ही 

उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में 

व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर । 



'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ, 

उफ ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है ? 

पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से 

हो गया संहार पूरे देश का ! 



'द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता, 

और हम भोगें अहम्मय राज्य यह, 

पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं 

कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ ! 



'रक्त से छाने हुए इस राज्य को 

वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं ? 

आदमी के खून में यह है सना, 

और इसमें है लहू अभिमन्यु का' । 



वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा, 

दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में । 

दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही 

खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में । 



भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से, 

फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा ! 

खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे 

'पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।' 



और हर्ष-निनाद अन्तःशून्य-सा 

लड़खड़ता मर रहा था वायु में ।  

 

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रचनाएँ
'कुरुक्षेत्र'
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'कुरुक्षेत्र' का प्रतिपाद्य यही है कि मनुष्य क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर, बुद्धि और हृदय में समन्वय स्थापित करे तथा प्राणपण से मानवता के उत्थान में जुट जाए। युद्ध एक विध्वंसकारी समस्या है, जिससे त्राण पाने के लिए क्षमा, दया, तप, त्याग आदि मानवीय मूल्यों को अपनाना पड़ेगा।
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द्वितीय सर्ग

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आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि  'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,  रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये  बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर !  व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, 

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तृतीय सर्ग

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चतुर्थ सर्ग

21 फरवरी 2022
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पंचम सर्ग

21 फरवरी 2022
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शारदे! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं;संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,आशा में था इतिहास-लोक तक आया ।पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है;कोलाह

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धर्म का दीपक, दया का दीप,कब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान ?कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्तहो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।भोग

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सप्तम सर्ग

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रागानल के बीच पुरुष कंचन-सा जलने वालातिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला,ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा,ऊब-डूब करता, उतराता घन में विधु-मण्डल-सा ।जय हो, अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मान

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