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तृतीय सर्ग

21 फरवरी 2022

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समर निंद्य है धर्मराज, पर,  

कहो, शान्ति वह क्या है, 

जो अनीति पर स्थित होकर भी 

बनी हुई सरला है ? 



सुख-समृद्धि क विपुल कोष 

संचित कर कल, बल, छल से, 

किसी क्षुधित क ग्रास छीन, 

धन लूट किसी निर्बल से । 



सब समेट, प्रहरी बिठला कर 

कहती कुछ मत बोलो, 

शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें 

गरल क्रान्ति का घोलो । 



हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त 

अपना मुझको पीने दो, 

अचल रहे साम्रज्य शान्ति का, 

जियो और जीने दो । 



सच है, सत्ता सिमट-सिमट 

जिनके हाथों में आयी, 

शान्तिभक्त वे साधु पुरुष 

क्यों चाहें कभी लड़ाई ? 



सुख का सम्यक्-रूप विभाजन 

जहाँ नीति से, नय से 

संभव नहीं; अशान्ति दबी हो 

जहाँ खड्ग के भय से, 



जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति 

को सत्ताधारी, 

जहाँ सुत्रधर हों समाज के 

अन्यायी, अविचारी; 



नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के 

जहाँ न आदर पायें; 

जहाँ सत्य कहनेवालों के 

सीस उतारे जायें; 


 

जहाँ खड्ग-बल एकमात्र 

आधार बने शासन का; 

दबे क्रोध से भभक रहा हो 

हृदय जहाँ जन-जन का; 


 

सहते-सहते अनय जहाँ 

मर रहा मनुज का मन हो; 

समझ कापुरुष अपने को 

धिक्कार रहा जन-जन हो; 


 

अहंकार के साथ घृणा का 

जहाँ द्वन्द्व हो जारी; 

ऊपर शान्ति, तलातल में 

हो छिटक रही चिनगारी; 



आगामी विस्फोट काल के 

मुख पर दमक रहा हो; 

इंगित में अंगार विवश 

भावों के चमक रहा हो; 


 

पढ कर भी संकेत सजग हों 

किन्तु, न सत्ताधारी; 

दुर्मति और अनल में दें 

आहुतियाँ बारी-बारी; 



कभी नये शोषण से, कभी 

उपेक्षा, कभी दमन से, 

अपमानों से कभी, कभी 

शर-वेधक व्यंग्य-वचन से । 



दबे हुए आवेग वहाँ यदि 

उबल किसी दिन फूटें, 

संयम छोड़, काल बन मानव 

अन्यायी पर टूटें; 



कहो, कौन दायी होगा 

उस दारुण जगद्दहन का 

अहंकार य घृणा ? कौन 

दोषी होगा उस रण का ? 



तुम विषण्ण हो समझ 

हुआ जगदाह तुम्हारे कर से । 

सोचो तो, क्या अग्नि समर की 

बरसी थी अम्बर से ? 



अथवा अकस्मात् मिट्टी से 

फूटी थी यह ज्वाला ? 

या मंत्रों के बल जनमी 

थी यह शिखा कराला ? 



कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या 

समर लगा था चलने ? 

प्रतिहिंसा का दीप भयानक 

हृदय-हृदय में बलने ? 



शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का 

जब वर्जन करती है, 

तभी जान लो, किसी समर का 

वह सर्जन करती है । 



शान्ति नहीं तब तक, जब तक 

सुख-भाग न नर का सम हो, 

नहीं किसी को अधिक हो, 

नहीं किसी को कम हो । 



ऐसी शान्ति राज्य करती है 

तन पर नहीं, हृदय पर, 

नर के ऊँचे विश्वासों पर, 

श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर । 



न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, 

जबतक न्याय न आता, 

जैसा भी हो, महल शान्ति का 

सुदृढ नहीं रह पाता । 



कृत्रिम शान्ति सशंक आप 

अपने से ही डरती है, 

खड्ग छोड़ विश्वास किसी का 

कभी नहीं करती है । 



और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था 

में सिख-भोग सुलभ है, 

उनके लिए शान्ति ही जीवन- 

सार, सिद्धि दुर्लभ है । 

पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, 

शोणित पीकर तन का, 

जीती है यह शान्ति, दाह 

समझो कुछ उनके मन का । 



सत्व माँगने से न मिले, 

संघात पाप हो जायें, 

बोलो धर्मराज, शोषित वे 

जियें या कि मिट जायें ? 



न्यायोचित अधिकार माँगने 

से न मिलें, तो लड़ के, 

तेजस्वी छीनते समर को 

जीत, या कि खुद मरके । 


 

किसने कहा, पाप है समुचित 

सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ? 

उठा न्याय क खड्ग समर में 

अभय मारना-मरना ? 


 

क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल 

की दे वृथा दुहाई, 

धर्मराज, व्यंजित करते तुम 

मानव की कदराई । 


 

हिंसा का आघात तपस्या ने 

कब, कहाँ सहा है ? 

देवों का दल सदा दानवों 

से हारता रहा है । 


 

मनःशक्ति प्यारी थी तुमको 

यदि पौरुष ज्वलन से, 

लोभ किया क्यों भरत-राज्य का ? 

फिर आये क्यों वन से ? 


 

पिया भीम ने विष, लाक्षागृह 

जला, हुए वनवासी, 

केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख 

कहलायी दासी 



क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, 

सबका लिया सहारा; 

पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे 

कहो, कहाँ कब हारा ? 


 

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष 

तुम हुए विनत जितना ही, 

दुष्ट कौरवों ने तुमको 

कायर समझा उतना ही । 



अत्याचार सहन करने का 

कुफल यही होता है, 

पौरुष का आतंक मनुज 

कोमल होकर खोता है । 



क्षमा शोभती उस भुजंग को, 

जिसके पास गरल हो । 

उसको क्या, जो दन्तहीन, 

विषरहित, विनीत, सरल हो ? 


 

तीन दिवस तक पन्थ माँगते 

रघुपति सिन्धु-किनारे, 

बैठे पढते रहे छन्द 

अनुनय के प्यारे-प्यारे । 


 

उत्तर में जब एक नाद भी 

उठा नहीं सागर से, 

उठी अधीर धधक पौरुष की 

आग राम के शर से । 



सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि' 

करता आ गिरा शरण में, 

चरण पूज, दासता ग्रहण की, 

बँधा मूढ बन्धन में । 


 

सच पूछो, तो शर में ही 

बसती है दीप्ति विनय की, 

सन्धि-वचन संपूज्य उसी का 

जिसमें शक्ति विजय की । 



सहनशीलता, क्षमा, दया को 

तभी पूजता जग है, 

बल का दर्प चमकता उसके 

पीछे जब जगमग है । 



जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की, 

क्षमा वहाँ निष्फल है । 

गरल-घूँट पी जाने का 

मिस है, वाणी का छल है । 



फलक क्षमा का ओढ छिपाते 

जो अपनी कायरता, 

वे क्या जानें ज्वलित-प्राण 

नर की पौरुष-निर्भरता ? 



वे क्या जानें नर में वह क्या 

असहनशील अनल है, 

जो लगते ही स्पर्श हृदय से 

सिर तक उठता बल है ? 



जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं, 

जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का । 

शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा, 

चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का; 

जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं, 

ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका । 

जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है, 

बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का । 


 

उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या, 

करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है । 

करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे, 

ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है ? 


 

सहता प्रहार कोई विवश कदर्य जीव, 

जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है । 

करुणा, क्षमा है क्लीब जाति के कलंक घोर, 

क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है । 


 

प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त, 

प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है । 

छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही, 

जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है । 

चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर 

जिसके निषग में, करों में धृड चाप है । 

जेता के विभूषण सहिष्णुता, क्षमा है पर, 

हारी हुई जाति की सहिष्णुता अभिशाप है ।  

सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो, 

उठता कराल हो फणीश फुफकर है । 

सुनता गजेंद्र की चिंघार जो वनों में कहीं, 

भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है । 

शूल चुभते हैं, छूते आग है जलाती, भू को 

लीलने को देखो गर्जमान पारावार है । 

जग में प्रदीप्त है इसी का तेज, प्रतिशोध 

जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है । 


 

सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति, 

लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है । 

वासना-विषय से नहीं पुण्य-उद्भूत होता, 

वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है । 

चोट खा परन्तु जब सिंह उठता है जाग, 

उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है । 

पुण्य खिलता है चंद्र-हास की विभा में तब, 

पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है । 

धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत, 

कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है ? 


 

फूटेंगे कराल ज्वालामुखियों के कंठ, ध्रुव 

आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है ? 

फूँक से जलाएगी अवश्य जगति को ब्याल, 

कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है ? 

विद्युत खगोल से अवश्य ही गिरेगी, कोई 

दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है ? 


 

युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि 

वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता ? 

वह जो दबा है शोषणो के भीम शैल से या 

वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता ? 

वह जो बनाके शांति-व्यूह सुख लूटता या 

वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता ? 

कौन है बुलाता युद्ध ? जाल जो बनाता ? 

या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता ? 


 

पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग, 

पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है । 

शोषणो के श्रंखला के हेतु बनती जो शांति, 

युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है । 

सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व का है, 

ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है । 

पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का, 

ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है । 



भूल रहे हो धर्मराज तुम 

अभी हिन्स्त्र भूतल है । 

खड़ा चतुर्दिक अहंकार है, 

खड़ा चतुर्दिक छल है । 


 

मैं भी हूँ सोचता जगत से 

कैसे मिटे जिघान्सा, 

किस प्रकार धरती पर फैले 

करुणा, प्रेम, अहिंसा । 


 

जिए मनुज किस भाँति 

परस्पर होकर भाई भाई, 

कैसे रुके प्रदाह क्रोध का ? 

कैसे रुके लड़ाई ? 


 

धरती हो साम्राज्य स्नेह का, 

जीवन स्निग्ध, सरल हो । 

मनुज प्रकृति से विदा सदा को 

दाहक द्वेष गरल हो । 


 

बहे प्रेम की धार, मनुज को 

वह अनवरत भिगोए, 

एक दूसरे के उर में, 

नर बीज प्रेम के बोए । 



किंतु, हाय, आधे पथ तक ही, 

पहुँच सका यह जग है, 

अभी शांति का स्वप्न दूर 

नभ में करता जग-मग है । 



भूले भटके ही धरती पर 

वह आदर्श उतरता । 

किसी युधिष्ठिर के प्राणों में 

ही स्वरूप है धरता । 


 

किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से 

बार-बार टकरा कर, 

रुद्ध मनुज के मनोद्देश के 

लौह-द्वार को पा कर । 


 

घृणा, कलह, विद्वेष विविध 

तापों से आकुल हो कर, 

हो जाता उड्डीन, एक दो 

का ही हृदय भिगो कर । 



क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन 

अगणित अभी यहाँ हैं, 

बढ़े शांति की लता, कहो 

वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं ? 



शांति-बीन बजती है, तब तक 

नहीं सुनिश्चित सुर में । 

सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक 

उठे नहीं उर-उर में । 


 

यह नबाह्य उपकरण, भार बन 

जो आवे ऊपर से, 

आत्मा की यह ज्योति, फूटती 

सदा विमल अंतर से । 


 

शांति नाम उस रुचित सरणी का, 

जिसे प्रेम पहचाने, 

खड्ग-भीत तन ही न, 

मनुज का मन भी जिसको माने 



शिवा-शांति की मूर्ति नहीं 

बनती कुलाल के गृह में । 

सदा जन्म लेती वह नर के 

मनःप्रान्त निस्प्रह में । 


 

घृणा-कलह-विफोट हेतु का 

करके सफल निवारण, 

मनुज-प्रकृति ही करती 

शीतल रूप शांति का धारण । 



जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह 

भय न शेष रह जाता । 

चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई 

नहीं देश रह जाता । 



शांति, सुशीतल शांति, 

कहाँ वह समता देने वाली ? 

देखो आज विषमता की ही 

वह करती रखवाली । 


 

आनन सरल, वचन मधुमय है, 

तन पर शुभ्र वसन है । 

बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का 

विष से भरा दशन है ।  



वह रखती परिपूर्ण नृपों से 

जरासंध की कारा । 

शोणित कभी, कभी पीती है, 

तप्त अश्रु की धारा । 



कुरुक्षेत्र में जली चिता 

जिसकी वह शांति नहीं थी

 अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली 

वह दुश्क्रान्ति नहीं थी । 



थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि, 

वह जो जली समर में । 

असहनशील शौर्य था, जो बल 

उठा पार्थ के शर में । 



हुआ नहीं स्वीकार शांति को 

जीना जब कुछ देकर । 

टूटा मनुज काल-सा उस पर 

प्राण हाथ में लेकर 



पापी कौन ? मनुज से उसका 

न्याय चुराने वाला ? 

या कि न्याय खोजते विघ्न 

का सीस उड़ाने वाला ?  



 



 



 

 

7
रचनाएँ
'कुरुक्षेत्र'
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'कुरुक्षेत्र' का प्रतिपाद्य यही है कि मनुष्य क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर, बुद्धि और हृदय में समन्वय स्थापित करे तथा प्राणपण से मानवता के उत्थान में जुट जाए। युद्ध एक विध्वंसकारी समस्या है, जिससे त्राण पाने के लिए क्षमा, दया, तप, त्याग आदि मानवीय मूल्यों को अपनाना पड़ेगा।
1

प्रथम सर्ग

21 फरवरी 2022
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वह कौन रोता है वहाँ-  इतिहास के अध्याय पर,  जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है  प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;  जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;  जो आप तो लड़

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द्वितीय सर्ग

21 फरवरी 2022
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आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि  'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,  रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये  बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर !  व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, 

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तृतीय सर्ग

21 फरवरी 2022
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समर निंद्य है धर्मराज, पर,   कहो, शान्ति वह क्या है,  जो अनीति पर स्थित होकर भी  बनी हुई सरला है ?  सुख-समृद्धि क विपुल कोष  संचित कर कल, बल, छल से,  किसी क्षुधित क ग्रास छीन,  धन लूट किसी निर

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चतुर्थ सर्ग

21 फरवरी 2022
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ब्रह्मचर्य के व्रतीधर्म केमहास्तंभ, बल के आगारपरम विरागी पुरुष जिन्हेंपाकर भी पा न सका संसार ।किया विसर्जित मुकुट धर्म हितऔर स्नेह के कारण प्राणपुरुष विक्रमी कौन दूसराहुआ जगत में भीष्म सामान ?शरों की

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पंचम सर्ग

21 फरवरी 2022
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शारदे! विकल संक्रांति-काल का नर मैं,कलिकाल-भाल पर चढ़ा हुआ द्वापर मैं;संतप्त विश्व के लिए खोजते छाया,आशा में था इतिहास-लोक तक आया ।पर हाय, यहाँ भी धधक रहा अंबर है,उड़ रही पवन में दाहक लोल लहर है;कोलाह

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षष्ठ सर्ग

21 फरवरी 2022
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धर्म का दीपक, दया का दीप,कब जलेगा,कब जलेगा, विश्व में भगवान ?कब सुकोमल ज्योति से अभिसिक्तहो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण ?है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार ।भोग

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सप्तम सर्ग

21 फरवरी 2022
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रागानल के बीच पुरुष कंचन-सा जलने वालातिमिर-सिंधु में डूब रश्मि की ओर निकलने वाला,ऊपर उठने को कर्दम से लड़ता हुआ कमल सा,ऊब-डूब करता, उतराता घन में विधु-मण्डल-सा ।जय हो, अघ के गहन गर्त में गिरे हुये मान

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