( तितलियां ये लड़कियां )
बस दहलीज तक सीमित रह गई,
वो तितलियां जो उड़ना चाहती थी,
जो चाहती थी अपने पंख फैलाकर ,
उस ऊंचे आकाश को छूना,
जो करना चाहती थी पार,
उस दायरे को,
तय कर दी जाती हैं जहां सीमाएं उनके लिए,
पैदा होते ही,
अदृश्य एक जंजीर सी डाल दी जाती है,
उनके उन नाजुक से कदमों में,
एक अध्याय रटा दिया जाता हैं उन्हें,
सामाजिक रीति रिवाजों का,
उन्हे बतला दिया जाता है कि,
परिवार की इज्जत का सारा दारोमदार उन पर है,
उनके नाजुक से मन को बांध दिया जाता है,
ये कहकर कि तुम परी हो मगर,
उड़ान की कल्पना भी तुम्हारे लिए पाप है,
तुम गौरव हो हमारा मगर,
तुम्हारे ही ऊपर सारे खानदान की इज्जत का भार होगा,
तुम्हारी हंसी बहुत प्यारी है,
मगर उसको सदैव रखना इस दहलीज के अंदर तक,
तुमको जाना है पराए घर में,
तो शर्म हया को अपना गहना बनाना सीखो,
तुम्हे रखनी है दो घरों की इज्जत,
अपनी बात को सबके बाद रखना सीखो,
ज्यादा पढ़ना है तो पढ़ना अपने ससुराल में तुम,
पीहर में पहले कुशल गृहिणी बनना सीखो,
बराबरी करने की कोशिश न करो,
तुम घर की शोभा हो, शांत रहना सीखो...!