मन की बगावत का सिलसिला जारी है
विद्रोह के स्वर से ह्रदय भी भारी है
की सिमट गयी हो जैसे रोटी में जिंदगानी
सुनु अपने मन की या फिर करता रहूँ मनमानी
कलम भी निरंकुश है , कागज़ मचल रहा है
फिर कोई काव्य मेरे सीने में पल रहा है
ये जो उथल पुथल है उसकी गवाही हूँ मैं
विध्वंश और सृजन की मिश्रित सी स्याही हूँ मैं