28 जनवरी 2015
0 फ़ॉलोअर्स
विज्ञान आध्यात्म एवं काव्य मेरे जीवन के तीन स्तम्भ हैं. यह मंच मेरे लिए अपने भाव अभिव्यक्ति का माध्यम है तथा मित्रो से जुड़ने का भी .......D
कुछ यादों को समेटे कुछ सपनो को संजोये मैंने असंख्य बीज़ अपने ह्रदय में बोये हर शख़्स जो मिला मुझे जीवन के पगडण्डी पर कुछ नया मुझको युहीं सीखा गया है जब द्वार बंद होते रस्ते दिखा गया है अब वक़्त फिर से आया नए वर्ष के बहाने कुछ मित्र फिर बनेंगे आयेंगे कुछ सीखाने मैं बाहें खोल उनके स्वागत की तैयारी में
कागज़ के प्रमाण हों अगर हासिल दो चार परिवर्तित हो जाता है बात और विचार फिर सभ्य और असभ्य दीखता है चारों और भाव हो जाते हैं निष्ठुर और कठोर जो शेष रह जाता है, है शिक्षा का अहंकार लगता है चंद उपाधियों में सिमटा हो संस्कार
मन की बगावत का सिलसिला जारी है विद्रोह के स्वर से ह्रदय भी भारी है की सिमट गयी हो जैसे रोटी में जिंदगानी सुनु अपने मन की या फिर करता रहूँ मनमानी कलम भी निरंकुश है , कागज़ मचल रहा है फिर कोई काव्य मेरे सीने में पल रहा है ये जो उथल पुथल है उसकी गवाही हूँ मैं विध्वंश और सृजन की मिश्रित सी
जो पहल की मैंने वो सब अधूरे कार्य हैं उनको पूर्ण करना अतयंत ही अनिवार्य है क्यूंकि पेंडुलम की भाँती मन बस युहीं है डोलता भूत के किस्से सुनाता, राज़ भविष्य के है खोलता हो के नतमस्तक या फिर दंडवत प्रणाम कर या फिर लगन से लग पूरा अधूरे काम कर मन को करके मौन और रोक कर हर खलबली चाहता हूँ
न कभी अधिक वाचाल हुआ न कभी मौन ही रह पाया मर्यादा के सीमाओं में खुद को ऐसे मैंने पाया जब भी चाहा विद्रोह करूँ तो कदम रोकते मर्यादा जो सहज था मेरी नज़रों में उनके हिसाब से थी बाधा कहने को नयी पीढ़ी के हैं पर सोंच वही रूढ़ीवादी उस समय की बाट मैं जोह रहा मिले मर्यादाओं से आज़ादी
भाव विचार शब्दों का परस्पर मतभेद मेरे क्रियाकलापों पर हावी है ये संकेत है की कोई आतंरिक विद्रोह अवस्यम्भावी है ये कोई नयी बात नहीं पर जब ये घटनाक्रम दिनचर्या का हिस्सा हो हर पल का किस्सा हो और मन में मंथन रहे जारी तब लगता है हो रही हो कोई क्रांति की तैयारी डर लगता है कहीं खुद न हो जा
सुना है स्किल डेवलपमेंट होने वाला है पर जिनके पास स्किल है वो तो जूते घिस रहे हैं और भटक रहे हैं नौकरी की खोज में बाबूजी डूबे हैं कर्ज की बोझ में माँ भी भावुक हो जाती है बहन देती रहती है सांत्वना भाई भी चाहता है की करूँ पिता के कंधो का बोझ कम तभी तो निकलेगा ह्रदय से वन्दे मातरम्.....
सरल नहीं वो राह रही जो मेरे भाग्य में आयी लगे भले मिथ्या तुमको मेरे हिस्से की सच्चाई निज कन्धों का भार करूँ साझा किससे बतलाओ संभव हो तो एक बार अपना स्वरुप दिखलाओ माना की नहीं अर्जुन हूँ मैं पर तुम तो कृष्ण ही होना हो सके प्रभु तो बस इतनी मुझ पर भी कृपा कर दो न........
सुनाई तो नहीं देता बाहर ये कोलाहल जो है दिल का जो भी कहना है उस पर दिमाग हावी है व्यवहारिक तो अनुभव है बस, शेष सब किताबी है अकेले में अकेला था , अकेला हूँ मैं महफ़िल में भले जो दीखता है तुमको पर दिल की बात है दिल में मैं हूँ ही क्या ये जाना तो विचारों का पुलिंदा था दफ़न थे भाव दिल में ही न
संघर्ष जो होता जीवन का सिद्धांत तो ये कहता है जो सबल हो जीत उसी के पाले में रहता है गर ऐसा है तो गरीब तो होना है बैमानि क्या रखा जीने में होके निरीह सा प्राणी नहीं खौलेगा खून तो क्या होगा तुम्ही बतलाओ कैसा विकास कैसी उपलब्धी हमको भी जरा समझाओ तेरा पिज़्ज़ा तुज़हे सलामत और सलामत बर्गर कबत
जय हो कहा था उसने देकर आशीर्वाद विजय पराजय के दुविधा में समय न हो बर्बाद अगर जीत होती है तो हार भी होता होगा गीत ख़ुशी के गाता कोई लाचार भी होता होगा इस द्वन्द से पृथक तुम , एक नयी कहानी लिखना चूहे की इस दौड़ में सहयोग की वाणी लिखना लिखना की जो साथ चलेगा सबको गले लगाकर वही शिखर पर पह
अढ़ाई आखर में समाहित है जीवन का सार रोम रोम देता मेरा उस अनुभव को आभार उस अनुभव को आभार जिससे अस्तित्व हमारा बहते रहे प्रेम की युहीं अविरल धारा हर ह्रदय में व्याप्त वही जो रहे निरंतर मिटे क्लेश दुनिया में हो दुःख भी छूमंतर
गुण दोष के आकलन से निकलो बाहर हो सके तो दो कदम तो मेरे साथ चलो माना की कुछ कमी है ,कुछ खामियां है संभव हो तो डाल हांथों में हाँथ चलो सुख दुःख हैं सिक्के के दो पहलु भाँती वक्त जैसा भी हो वो तो गुजर जाता है रहे ये याद की ये भी तो सच्चाई है समय पे साथ जो बस याद वही आता है मुझे तो आसरा है उ
हर आदमी की अपनी होती अलग कहानी लोगों का क्या है जाता,बातें उन्हें बनानी उन बातों को तुम अपने ले लेना नहीं दिल पर जीवन की दशा फिर तो होगी बद से बत्तर औरों के नज़रिये से जीना नहीं है आसाँ बन जाएगी नहीं तो जीवन ही एक तमाशा हर रोज़ फिर रहेगी जद्दोजहद ही जारी और सुर्ख़ियों में होगा शहंशाह बना
साथ चले थे , हम फिर भी रह गए अकेले तुमने खूब मक्खन लगाया मैंने पापड़ बेले हो तुम कहाँ आज और मैं वहीँ चौराहे पर गाल हमारे जड़ा समय ने ऐसा थपड़ पढ़े साथ थे आये भी अव्वल थे हमेशा नहीं ज्ञात था कठिन बहुत है नौकरी पेशा ज्ञान तो है पर नहीं पैरवी ठोकर खाओ काबिल हो तो कोई जुगाड़ तो ढूंढ के लाओ ...
रिश्ते हैं नाजुक धागे से प्रेम का हैं ये बंधन शोभता है उन्नत ललाट पर लगा हुआ ही चन्दन शिकन ललाट न आने देना, न करना दिल छोटा संभव है जो सुबह था भुला, शाम है घर को लौटा न्याय नहीं होगा रिश्तों पर, तर्क का बोझ जो डाला मन के मनमानी से ज्यादा ह्रदय ने उसे सम्हाला फूल करे माली से बगावत होगा क
अंदर के बगावत पर बुद्धि का लगा पहरा और खो गया फिर से , असली था जो चेहरा रावण के तो दस सिर थे, मेरे तो हज़ारों हैं दीवारों के नहीं हैं कान,कानो में दीवारें हैं खुद को ही तो हमने, जंजीरों में जकड़ा है जिसको देखो वो ही अहंकार में अकड़ा है ये जो मुखौटे हैं इन्हे आज उतरने दो इस बार विधाता को वो
मैंने खुद ही किये थे बंद अपने दरवाजे ये जानते हुए की मिलने को तैयार हो तुम ये सच है, गया था भूल दुनियादारी में की मैं तो कठपुतली, सूत्रधार हो तुम तुम तो हो विक्रम , विचारों से बैताल हूँ मैं मौन रहते हो तुम, आदत से वाचाल हूँ मैं समय नहीं है ,न मतभेद की गुंजाइश है करोगे पूर्ण क्या आखरी य
होलिका दहन में हो स्वाहा बुराई ,जो बैठा है मन में तो होगी फिर होली जैसे वृन्दावन में
श्याम स्वेत के अलावा रंग कौन सा लिखूं सोंचता हूँ होली पे प्रसंग कौन सा लिखूं यादें कई कैद है ह्रदय के किसी कोने में ख़ुशी अपार होती थी साथ सबके होने में माँ के हाँथ उठते थे चन्दन और आशीर्वाद को भुला नहीं सुंगंध और उन असंख्य स्वाद को अभी भी होती होली है, वही रंग है गुलाल है अपनों से दूर
शायद था नहीं ज्ञात उसे , हम तो एक बीज थे पर वो तो अहंकार के तख़्त पर काबिज़ थे आदेश था दफनादो इन्हे इस धरा के गर्भ में पूछे न कोई सवाल मुझसे अब इस सन्दर्भ में मैं आज हूँ आँगन में तेरे छाँव वाला वो दरख़्त अस्तित्व जिसकी मिटाना तू चाहता था वो कमबख्त
स्क्रीन पे सिमटी है ये दुनिआ जिसे ये ऊँगली रही नचाती भले खबर दुनिया भर की हमको नहीं है दीखता बगल का साथी मेरे समझ से बढ़ी है दूरी भले ही युग आधुनिक है आया अपने ही परछाईं ,से है भयभीत असंख्य साथी जिसने बनाया
सुना है मैंने असंख्य मुख से लेता है उपरवाला परीक्षा और सुना है ये भी , हमारा क्या है रखे वो जैसे ,उसकी हो इक्षा परीक्षा नहीं अपितु स्वइक्षा है जो सोंचते हो, वही है मिलता विचारों के प्रबल नीव पर ही कोई कमल का है फूल खिलता है उसकी ललक, या विषय वस्तु है वो कृपा जो करदे तो तथास्तु है
विचार और व्यवहार में जो बढ़ी हैं दूरियां उसके ही कारण वातावरण असंतोष का और प्रेम से परे जहाँ सिर्फ शिष्टाचार हो तो उठता फिर सवाल है प्रत्यक्ष और परोक्ष का महज निभाते रिश्ते हम मिलाते सिर्फ हाँथ हैं ये देखते कहाँ हैं की,ह्रदय का भी क्या साथ है जब रिश्ते सिमट जाते हैं आकलन में गुण दोष के रह
उतार चश्मा जो देखा सभी एक थे फर्क जो भी था मेरे नज़रिये में था मुझको लगता था मंज़िल है पाना अहम क्या पता था की आनंद जरिये में था
मैंने जो दुनिया देखि , अपने आँखों से उसमे तो डार्विन के विचार ही हावी हैं जो कहता है की अगर तुम्हे है जीना यहाँ तो विकल्प नहीं, संघर्ष अवस्यम्भावी है
मुझे बस तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए नचिकेता को यम से जो ज्ञान था मिला मुझे तुमसे वैसा ही संवाद चाहिए मैं न प्रह्लाद हूँ , न अर्जुन सा गुणी न हूँ जैसे थे ज्ञानि ही नारद मुनि है विनती अनुभव हो वो सत्य शाश्वत स्वीकार करो मेरा तुम मौन दंडवत
आवाज़ देने पर भी आया नहीं जो कोई चलता रहा मैं युहीं अंजान उन राहों पर जो धुप की तपिश थी और छांव की शीतलता मलता रहा मैं उनको, राह की घावों पर कभी मौन के उत्सव में, कभी शोर में अकेला कभी मखमली घांसों पर कभी धुल से मैं खेला पर उसकी योजना का अभिव्यक्ति मात्र मैं था जो चल रहा था मेरे हमसफ़र की भाँती
न जन्म न मृत्यु बस शुद्ध आत्मा करोड़ों के आँखों में छलका गया आंसूं और कर्म ऐसा की, है विश्व नतमस्तक इतिहास में अंकित वो ज्ञान पिपासु कोई ख़ास नहीं वो, है आदमी वो आम भारत के विचारों को दिया नित नया आयाम कोई एपीजे कहता है , कहता कोई है कलाम उस कर्मयोगी को है मेरा दंडवत जीवन ही जिसका है एक स
बेच कर ज़मीर अपना चल पड़े गुरूर में शेष जो आदर्श था उसे झोंक कर तंदूर में तर्क बस इतना की अब तो ये समय की मांग है थक गए हैं रेंगते, लगाना लम्बी छलांग है ज्ञात रहे गिर न जाओ अपने ही जूनून में ये न कहना कुछ कमी थी पूर्वजों के खून में
भ्रम की जाल जो काट दे और कर दे सत्य प्रत्यक्ष और इशारा कर दे ताकि ज्ञात हो अंतिम लक्ष्य जैसे कृष्णा ने अर्जुन के माया के जाल को काटा युद्धभूमि में भी जीवन के सारतत्व को बांटा माना युद्ध भूमि में नहीं मैं, न शत्रु ही हावी है अंतर्मन का युद्ध निशचय ही मायावी है गुरु मुख से जो पाया ज्ञान
क्या क्या प्रमाण दूँ मैं दुनिया के मंच पर अब उठ गया विश्वास है इस क्षल प्रपंच पर दर्पण को दूँ प्रमाण की दीखता हूँ मैं सुन्दर लोगों को ये प्रमाण भरा ज्ञान है अंदर और प्रमाण ये की मैं कितना सच्चा हूँ माँ बाप को प्रमाण की मैं अच्छा बच्चा हूँ गुरु को भी तो प्रमाण की हूँ मैं आज्ञाकारी और स